मेरे अधःपतन का अपराध मेरे सिर नहीं, मेरे माता-पिता और उस बूढ़े पर है जो मेरा स्वामी बनना चाहता था। मैं यह पंक्तियां न लिखती, लेकिन इस विचार से लिख रही हूं कि मेरी आत्मकथा पढ़कर लोगों की आंखें खुलें, मैं फिर कहती हूं कि अब भी अपनी बालिकाओं के लिए मत देखो धन, मत देखो जायदाद, मत देखो कुलीनता, केवल वर देखो। अगर उसके लिए जोड़ा का वर नहीं पा सकते तो लड़की को क्वारी रख छोड़ो, जहर देकर मार डालो, गला घोंट डालो, पर किसी बूढ़े खूसट से मत ब्याहो।
रात ‘भक्तमाल’ पढ़ते-पढ़ते न जाने कब नींद आ गयी। कैसे-कैसे महात्मा थे जिनके लिए भगवत-प्रेम ही सब कुछ था, इसी में मग्न रहते थे। ऐसी भक्ति बड़ी तपस्या से मिलती है। क्या मैं वह तपस्या नहीं कर सकती? इस जीवन में और कौन-सा सुख रखा है? आभूषणों से जिसे प्रेम हो जाने, यहां तो इनको देखकर आंखें फूटती हैंऋ धन-दौलत पर जो प्राण देता हो वह जाने, यहां तो इसका नाम सुनकर ज्वर-सा चढ़ आता है। कल पगली सुशीला ने कितनी उमंगों से मेरा शृंगार किया था, कितने प्रेम से बालों में फूल गूंथे। कितना मना करती रही, न मानी। आखिर वही हुआ जिसका मुझे भय था। जितनी देर उसके साथ हंसी थी, उससे कहीं ज्यादा रोयी। संसार में ऐसी भी कोई स्त्री है, जिसका पति उसका शृंगार देखकर सिर से पांव तक जल उठे? कौन ऐसी स्त्री है जो अपने पति के मुंह से ये शब्द सुने- तुम मेरा परलोक बिगाड़ोगी, और कुछ नहीं। तुम्हारे रंग-ढंग कहे देते हैं…। भगवान! संसार में ऐसे भी मनुष्य हैं। आखिर मैं नीचे चली गयी और ‘भक्तिमाल’ पढ़ने लगी। अब वृंदावन बिहारी ही की सेवा करूंगी, उन्हीं को अपना शृंगार दिखाऊंगी। वह तो देखकर न जलेंगे। वह तो हमारे मन का हाल जानते हैं।
भगवान! मैं अपने मन को कैसे समझाऊं! तुम अंतर्यामी हो, तुम मेरे रोम-रोम का हाल जानते हो। मैं चाहती हंू कि उन्हें अपना ईष्ट समझूं, उनके चरणों की सेवा करूं, उनके इशारे पर चलूं, उन्हें मेरी किसी बात से, किसी व्यवहार से नाममात्र भी दुख न हो। वह निर्दोष हैं, जो कुछ मेरे भाग्य में था वह हुआ, न उनका दोष है, न माता-पिता का, सारा दोष मेरे नसीबों ही का है। लेकिन यह सब जानते हुए भी जब उन्हें आते देखती हूं, तो मेरा दिल बैठ जाता है, मुंह पर मुरदनी-सी छा जाती है, सिर भारी हो जाता है, जी चाहता है इनकी सूरत न देखूं, बात तक करने को जी नहीं चाहताऋ कदाचित शत्रु को भी देखकर किसी का मन इतना क्लांत नहीं होता होगा। उनके आने के समय दिल में धड़कन-सी होने लगती है। दो-एक दिन के लिए कहीं चले जाते हैं तो दिल पर से बोझ उठ जाता है। हंसती भी हूं, बोलती भी हूं, जीवन में कुछ आनंद आने लगता है लेकिन उनके आने का समाचार पाते ही फिर चारों ओर अंधकार! चित्त की ऐसी दशा क्यों है, यह मैं नहीं कह सकती। मुझे तो ऐसा जान पड़ता है कि पूर्वजन्म में हम दोनों में बैर था, उसी बैर का बदला लेने के लिए उन्होंने मुझ से विवाह किया है, वही पुराने संस्कार हमारे मन में बने हुए हैं। नहीं तो वह मुझे देख-देख कर क्यों जलते और मैं उनकी सूरत से क्यों घृणा करती? विवाह करने का तो यह मतलब नहीं हुआ करता! मैं अपने घर कहीं इससे सुखी थी। कदाचित मैं जीवन-पर्यन्त अपने घर आनंद से रह सकती थी। लेकिन इस लोक-प्रथा का बुरा हो, जो अभागिन कन्याओं को किसी-न-किसी पुरुष के गले में बांध देना अनिवार्य समझती है। वह क्या जानती है कि कितनी युवतियां उसके नाम को रो रही हैं, कितने अभिलाषाओं से लहराते हुए कोमल हृदय उसके पैरों तले रौंदे जा रहे हैं? युवती के लिए पति कैसी-कैसी मधुर कल्पनाओं का स्रोत होता है। पुरुष में जो उत्तम है, श्रेष्ठ है, दर्शनीय है, उसकी सजीव मूर्ति इस शब्द के ध्यान में आते ही उसकी नजरों के सामने आकर खड़ी हो जाती है। लेकिन मेरे लिए यह शब्द क्या है? हृदय में उठने वाला शूल, कलेजे में खटकने वाला कांटा, आंखों में गड़ने वाली किरकिरी, अंतःकरण को बेधने वाला व्यंग्य बाण! सुशीला को हमेशा हंसते देखती हूं। वह कभी अपनी दरिद्रता का गिला नहीं करतीऋ गहने नहीं हैं, कपड़े नहीं हैं, भाड़े के नन्हें से मकान में रहती है, अपने हाथों घर का सारा कामकाज करती है, फिर भी उसे रोते नहीं देखती। अगर अपने बस की बात होती तो आज अपने धन को उसकी दरिद्रता से बदल लेती। अपने पतिदेव को मुस्कराते हुए घर में आते देखकर उसका सारा दुख-दरिद्रय छूमंतर हो जाता है, छाती गज-भर की हो जाती है। उसके प्रेमालिंगन में वह सुख है, जिस पर तीनों लोक का धन न्योछावर कर दूं।
आज मुझसे जब्त न हो सका। मैंने पूछा- तुमने मुझसे किस लिए विवाह किया था? यह प्रश्न महीनों से मेरे मन में उठता था, पर मन को रोकती चली आती थी। आज प्याला छलक पड़ा। यह प्रश्न सुनकर वे कुछ बौखला-से गये, बगले झांकने लगे, खीझकर बोले- घर संभालने के लिए, गृहस्थी का भार उठाने के लिए, और नहीं क्या भोग-विलास के लिए? घरनी के बिना यह आपको भूत का डेरा-सा मालूम होता था। नौकर-चाकर घर की संपत्ति उड़ाये देते थे। जो चीज जहां पड़ी रहती थी, कोई उसको देखने वाला न था। तो अब मालूम हुआ कि मैं इस घर की चैकसी के लिए लाई गई हूं। मुझे इस घर की रक्षा करनी चाहिए और अपने को धन्य समझना चाहिए कि यह सारी संपत्ति मेरी है। मुख्य वस्तु संपत्ति है, मैं तो केवल चैकीदारिन हूं। ऐसे घर में आज ही आग लग जाये! अब तक तो मैं अनजाने में घर की चैकसी करती थी, जितना वह चाहते हैं उतना न सही, पर अपनी बुद्धि के अनुसार अवश्य करती थी। आज से किसी चीज को भूलकर भी छूने की कसम खाती हूं। यह मैं जानती हूं। कोई पुरुष घर की चैकसी के लिए विवाह नहीं करता और इन महाशय ने चिढ़ कर यह बात मुझसे कही। लेकिन सुशीला ठीक कहती है, इन्हें स्त्री के बिना घर सुना लगता होगा, उसी तरह जैसे पिंजरे में चिड़िया को न देखकर पिंजरा सूना लगता है। यह हम स्त्रियों का भाग्य!
मालूम नहीं, इन्हें मुझ पर इतना संदेह क्यों होता है। जब से नसीब इस घर में लाया है, इन्हें बराबर संदेह-मूलक कटाक्ष करते देखती हूं। क्या कारण है? जरा बाल गुंथवाकर बैठी और यह होंठ चबाने लगे। कहीं जाती नहीं, कहीं आती नहीं, किसी से बोलती नहीं, फिर भी इतना संदेह! यह अपमान असहय है। क्या मुझे अपनी आबरू प्यारी नहीं? यह मुझे इतनी छिछोरी क्यों समझते हैं, इन्हें मुझ पर संदेह करते लज्जा भी नहीं आती? काना आदमी किसी को हंसते देखता है तो समझता है लोग मुझी पर हंस रहे हैं। शायद इन्हें भी यही वहम हो गया है कि मैं इन्हें चिढ़ाती हूं। अपने अधिकार के बाहर से बाहर कोई काम कर बैठने से कदाचित हमारे चित्त की यही वृत्ति हो जाती है। भिक्षुक राजा की गद्दी पर बैठकर चैन की नींद नहीं सो सकता। उसे अपने चारों तरफ शत्रु दिखायी देंगे। मैं समझती हूं, सभी शादी करने वाले बुड्ढ़ों का यही हाल है।
आज सुशीला के कहने से मैं ठाकुर जी की झांकी देखने जा रही थी। अब यह साधारण बुद्धि का आदमी भी समझ सकता है कि फूहड़ बहू बनकर बाहर निकलना अपनी हंसी उड़ाना है, लेकिन आप उसी वक्त न जाने किधर से टपक पड़े और मेरी ओर तिरस्कापूर्ण नेत्रों से देखकर बोले- कहां की तैयारी है?
मैंने कह दिया, जरा ठाकुर जी की झांकी देखने जाती हूं। इतना सुनते ही त्योरियां चढ़ाकर बोले- तुम्हारे जाने की कुछ जरूरत नहीं। जो अपने पति की सेवा नहीं कर सकती, उसे देवताओं के दर्शन से पुण्य के बदले पाप होगा। मुझसे उड़ने चली हो। मैं औरतों की नस-नस पहचानता हूं।
ऐसा क्रोध आया कि बस अब क्या कहूं। उसी दम कपड़े बदल डाले और प्रण कर लिया कि अब कभी दर्शन करने नहीं जाऊंगी। इस अविश्वास का भी कुछ ठिकाना है! न जाने क्या सोचकर रुक गयी। उनकी बात का जवाब तो यही था कि उसी क्षण घर से चल खड़ी हुई होती, फिर देखती मेरा क्या कर लेते।
इन्हें मेरे उदास और विमन रहने पर आश्चर्य होता है। मुझे मन में कृतघ्न समझते हैं। अपनी समझ में इन्होंने मेरे से विवाह करके शायद मुझ पर एहसान किया है। इतनी बड़ी जायदाद और विशाल संपत्ति की स्वामिनी होकर मुझे फूले न समाना चाहिए था, आठों पहर इनका यशगान करते रहना चाहिये था। मैं यह सब कुछ न करके उलटे और मुंह लटकाए रहती हूं। कभी-कभी बेचारे पर दया आती है। यह नहीं समझते कि नारी जीवन में कोई ऐसी वस्तु भी है, जिसे देखकर उसकी आंखों में स्वर्ग भी नरक तुल्य हो जाता है।
तीन दिन से बीमार हैं। डाक्टर कहते हैं, बचने की कोई आशा नहीं, निमोनिया हो गया है। पर मुझे न जाने क्यों इनका गम नहीं है। मैं इतनी कठोर-हृदय कभी न थी। न जाने वह मेरी कोमलता कहां चली गयी। किसी बीमार की सूरत देखकर मेरा हृदय करुणा से चंचल हो जाता था, मैं किसी का रोना नहीं सुन सकती थी। वही मैं हूं कि आज तीन दिन से उन्हें बगल के कमरे में पड़े कराहते सुनती हूं और एक बार भी उन्हें देखने न गयी, आंखों में आंसू का जिक्र ही क्या। मुझे ऐसा मालूम होता है, इनसे मेरा कोई नाता ही नहीं। मुझे चाहे कोई पिशाचनी कहे, चाहे कुलटा, पर मुझे तो यह कहने में लेशमात्र भी संकोच नहीं है कि इनकी बीमारी से मुझे एक प्रकार का ईष्र्यामय आनंद आ रहा है। इन्होंने मुझे यहां कारावास दे रखा था। मैं इसे विवाह का पवित्र नाम नहीं देना चाहती… यह कारावास ही है। मैं इतनी उदार नहीं हूं कि जिसने मुझे कैद में डाल रखा हो उसकी पूजा करूं, जो मुझे लात से मारे उसके पैरों को चूमूं। मुझे तो मालूम हो रहा था, ईश्वर इन्हें इस पाप का दंड दे रहे हैं। मैं निस्संकोच होकर कहती हूं कि मेरा इनसे विवाह नहीं हुआ है। स्त्री किसी के गले बांध दिये जाने से ही उसकी विवाहिता नहीं हो जाती। वही संयोग विवाह का पद पा सकता है, जिसमें कम-से-कम एक बार तो हृदय प्रेम से पुलकित हो जाए! सुनती हूं, महाशय अपने कमरे में पड़े-पड़े मुझे कोसा करते हैं। अपनी बीमारी का सारा बुखार मुझ पर निकालते हैं, लेकिन यहां इसकी परवाह नहीं। जिसका जी चाहे जायदाद ले, धन ले, मुझे इसकी जरूरत नहीं।
आज तीन दिन हुए, मैं विधवा हो गयी, कम-से-कम लोग यही कहते हैं। जिसका जो जी चाहे कहे, पर मैं अपने को जो कुछ समझती हूं वह समझती हूं। मैंने चूड़ियां नहीं तोड़ी, क्यों तोडूं? मांग में सिंदूर पहले भी न डालती थी, अब भी नहीं डालती। बूढ़े बाबा का क्रिया-कर्म उनके सुपुत्र ने किया, मैं पास न फटकी। घर में मुझ पर मनमानी आलोचनाएं होती हैं। कोई मेरे गुंथे हुए बालों को देखकर नाक सिकोड़ता है, कोई मेरे आभूषणों पर आंख मटकाता है, यहां इसकी चिंता नहीं। उन्हें चिढ़ाने को मैं भी रंग-बिरंगी साड़ियां पहनती हूं, और भी बनती-संवरती हूं, मुझे जरा भी दुख नहीं है। मैं तो कैद से छूट गयी। इधर कई दिन बाद सुशीला के घर गयी। छोटा-सा मकान है, कोई सजावट न सामान, चारपाइयां तक नहीं, पर सुशीला कितने आनंद से रहती है। उसका उल्लास देखकर मेरे मन में भी भांति-भांति की कल्पनाएं उठने लगती हैं… उन्हें कुत्सित क्यों कहूं, जब मेरा मन उन्हें कुत्सित नहीं समझता। इनके जीवन में कितना उत्साह है। आंखें मुस्कराती रहती हैं, होंठों पर मधुर हास्य खेलता रहता है, बातों में प्रेम का स्रोत बहता हुआ जान पड़ता है। इस आनंद से, चाहे वह कितना ही क्षणिक हो, जीवन सफल हो जाता है। फिर उसे कोई भूल नहीं सकता। उसकी स्मृति अंत तक के लिए काफी हो जाती है। इस मिजराब की चोट हृदय के तारों को अंतकाल तक मधुर स्वरों में कंपित रख सकती है।
एक दिन मैंने सुशीला से कहा- अगर तेरे पति देव कहीं परदेश चले जाएं तो रोत-रोते मर जाएगी!
सुशीला गंभीर भाव से बोली- नहीं बहन, मरुंगी नहीं, उनकी याद सदैव प्रफुल्लित करती रहेगी, चाहे उन्हें परदेश में बरसों लग जाएं।
मैं यही प्रेम चाहती हूं, इसी चोट के लिए मेरा मन तड़पता रहता है। मैं भी ऐसी ही स्मृति चाहती हूं, जिससे दिल के तार सदैव बजते रहें, जिसका नशा नित्य छाया रहे।
रात रोते-रोते हिचकियां बंध गयीं। न जाने क्यों दिल भर आता था। अपना जीवन सामने एक बीहड़ मैदान की भांति फैला हुआ मालूम होता था, जहां बगुलों के सिवा हरियाली का नाम नहीं। घर फाड़े खाता था, चित्त ऐसा चंचल हो रहा था कि कहीं उड़ जाऊं। आजकल भक्ति के ग्रंथों की ओर ताकने को जी नहीं चाहता। कहीं सैर करने जाने की भी इच्छा नहीं होती। क्या चाहती हूं वह मैं स्वयं भी नहीं जानती। लेकिन मैं जो नहीं जानती, वह मेरा एक-एक रोम-रोम जानता है, मैं अपनी भावनाओं की संजीव मूर्ति हंू, मेरे एक-एक अंग में मेरी आंतरिक वेदना का आर्तनाद हो रहा है।
मेरे चित्त की चंचलता उस अंतिम दशा को पहुंच गयी है, जब मनुष्य को न निंदा की लज्जा रहती है और न भय। जिन लोभी, स्वार्थी माता-पिता ने मुझे कुएं में ढकेला, जिस पाषाण-हृदय प्राणी ने मेरी मांग में सिंदूर डालने का स्वांग किया, उनके प्रति मेरे मन में बार-बार दुष्कामनाएं उठती हैं। मैं उन्हें लज्जित करना चाहती हूं। मैं अपने मुंह में कालिख लगा कर उनके मुख में कालिख लगाना चाहती हूं, मैं अपने प्राण देकर उन्हें प्राणदंड दिलाना चाहती हूं। मेरा नारीत्व लुप्त हो गया है, मेरे हृदय में प्रचंड ज्वाला उठी हुई है।
घर के सारे आदमी सो रहे थे। मैं चुपके से नीचे उतरी, द्वार खोला और घर से निकली, जैसे कोई प्राणी गर्मी से व्याकुल होकर घर से निकले और किसी खुली हुई जगह की ओर दौड़े। उस मकान में मेरा दम घुट रहा था।
सड़क पर सन्नाटा था, दुकानें बंद हो चुकी थीं। सहसा एक बुढ़िया आती हुई दिखायी दी। मैं डरी, कहीं यह चुड़ैल न हो। बुढ़िया ने मेरे समीप आकर मुझे सिर से पांव तक देखा और बोली- किसकी राह देख रही हो?
मैंने चिढ़ कर कहा- मौत की!
बुढ़िया- तुम्हारे नसीब में तो अभी जिंदगी के बड़े-बड़े सुख भोगने लिखे हैं। अंध्ोरी रात गुजर गयी, आसमान पर सुबह की रोशनी नजर आ रही है।
मैंने हंसकर कहा- अंध्ोरे में भी तुम्हारी आंखें इतनी तेज हैं कि नसीबों की लिखावट पढ़ लेती हो?
बुढ़िया- आंखों से नहीं पढ़ती बेटी, अक्ल से पढ़ती हूं। धूप में चूड़े नहीं सफेद किये हैं। तुम्हारे दिन गये और अच्छे दिन आ रहे हैं। हंसो मत बेटी, यही काम करते इतनी उम्र गुजर गयी। इसी बुढ़िया की बदौलत जो नदी में कूदने जा रही थीं, वे आज फूलों की सेज पर सो रही हैं, जो जहर का प्याला पीने को तैयार थीं, वे आज दूध की कुल्लियां कर रही हैं। इसीलिए इतनी रात गये निकलती हूं कि अपने हाथों किसी अभागिन का उद्धार हो सके तो करूं। किसी से कुछ नहीं मांगती, भगवान का दिया सब कुछ घर में है। केवल यही इच्छा है उन्हें धन, जिन्हें धन की इच्छा है, जिन्हें संतान की इच्छा है उन्हें संतान, बस और क्या कहूं, वह मंत्र बता देती हूं कि जिसकी जो इच्छा हो वह पूरी हो जाये।
मैंने कहा- मुझे न धन चाहिए न संतान। मेरी मनोकामना तुम्हारे बस की बात नहीं है।
बुढ़िया हंसी- बेटी, जो तुम चाहती हो वह मैं जानती हूंऋ तुम वह चीज चाहती हो जो संसार में होते हुए स्वर्ग की है, जो देवताओं के वरदान से भी ज्यादा आनंदप्रद है, जो आकाश कुसुम है, गुलर का फूल है और अमावस का चांद है। लेकिन मेरे मंत्र में वह शंक्ति है जो भाग्य को भी संवार सकती है। तुम प्रेम की प्यासी हो, मैं तुम्हें उस नाव पर बैठा सकती हूं जो प्रेम के सागर में, प्रेम की तरगों पर क्रीड़ा करती हुई तुम्हें पार उतार दे।
मैंने उत्कंठित होकर पूछा- माता, तुम्हारा घर कहां है?
बुढ़िया- बहुत नजदीक है बेटी, तुम चलो तो मैं अपनी आंखों पर बैठा कर ले चलूं।
मुझे ऐसा मालूम हुआ कि यह कोई आकाश की देवी है। उसके पीछ-पीछे चल पड़ी।
आह! वह बुढ़िया, जिसे मैं आकाश की देवी समझती थी, नरक की डाइन निकली। मेरा सर्वनाश हो गया। मैं अमृत खोजती थी, विष मिला, निर्मल स्वच्छ प्रेम की प्यासी थी, गंदे विषाक्त नाले में गिर पड़ी। वह वस्तु न मिलनी थी, न मिली। मैं सुशीला का-सा सुख चाहती थी, कुलटाओं की विषय-वासना नहीं। लेकिन जीवन-पथ में एक बार उलटी राह चलकर फिर सीध्ो मार्ग पर आना कठिन है?
लेकिन मेरे अधःपतन का अपराध मेरे सिर नहीं, मेरे माता-पिता और उस बूढ़े पर है जो मेरा स्वामी बनना चाहता था। मैं यह पंक्तियां न लिखती, लेकिन इस विचार से लिख रही हूं कि मेरी आत्मकथा पढ़कर लोगों की आंखें खुलेंऋ मैं फिर कहती हूं कि अब भी अपनी बालिकाओं के लिए मत देखो धन, मत देखो जायदाद, मत देखो कुलीनता, केवल वर देखो। अगर उसके लिए जोड़ा का वर नहीं पा सकते तो लड़की को क्वारी रख छोड़ो, जहर देकर मार डालो, गला घोंट डालो, पर किसी बूढ़े खूसट से मत ब्याहो। स्त्री सब कुछ सह सकती है। दारुण से दारुण दुख, बड़े से बड़ा संकट, अगर नहीं सह सकती तो अपने यौवन-काल की उमंगों का कुचला जाना। रही मैं, मेरे लिए अब इस जीवन में कोई आशा नहीं। इस अधम दशा को भी उस दशा से न बदलूंगी, जिससे निकल कर आयी हूं।
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