19 January, 2014

मनोज तिवारी की कहानी— 'जय माता दी'

शहर की आबादी से करीब पचास किलोमीटर दूर सिद्धेश्वरी माता का मंदिर। आस-पास के गाँवों में इसकी बड़ी आस्था है और वे इसे दुर्गा का ही एक रूप मानते हैं। लोगों का मानना है कि देवी के दरबार में जो भी सच्चे मन से मुराद माँगता है देवी उसकी मनोकामना अवश्य पूर्ण करती हैं। यहाँ पर लोग पहली बार आकर मन्नत माँगते हैं और माता को याद कराते रहने की गरज से एक धागे में गाँठ लगाकर छोड़ जाते हैं। जब उनकी मनोकामना पूर्ण हो जाती तो वे अगली बार आकर उस गाँठ को खोल देते हैं। नवरात्रि के अवसर पर तो यहाँ श्रद्धालुओं का अपार जनसमूह इकट्ठा होता ही है लेकिन वर्ष के बाकी महीनों में भी कुछ न कुछ भीड़ बनी रहती है।
पहाड़ी के ऊपर बना यह मंदिर प्रचलित मान्यता के अनुसार करीब चार सौ वर्ष पुराना है। मंदिर तक पहुँचने के लिए लगभग पाँच सौ सीढ़ियाँ हैं जिन पर चल कर मंदिर तक पहुँचना अपने आप में किसी तप से कम नहीं है। बुजुर्ग और लाचार रुक-रुक कर यह दूरी पूरी करते हैं तो कुछ जवान हर सीढ़ी पर लेट-लेट कर। समय के साथ रास्ते के दोनों ओर माता के प्रसाद की कई दुकानें बन गई हैं। इनमें से ज़्यादातर कच्ची दुकानें हैं। एक या दो तख्तों को मिला कर सामान के लिए स्थान बना 
रास्ते पर जैसे-जैसे ऊपर मन्दिर के करीब पहुँचते हैं दुकानों की सघनता और पक्की बनी दुकानों की संख्या बढ़ने लगती हैं। ये पक्की दुकानें उन स्थानीय लोगों द्वारा चलाई जाती हैं जो यहाँ साल के बारहों महीने बने रहते हैं।
मुख्य मंदिर स्थल से करीब पचास सीढ़ी नीचे ऐसी ही एक पक्की दुकान पर लाजवंती देवी उर्फ़ लाजी उर्फ़ अम्मा सुबह से भक्तों का इंतज़ार कर रही है। लाजी पचास वर्ष की विधवा महिला है जो करीब बीस साल पहले पास के गाँव से आकर यहीं बस गई थी। उस समय वह जवान ही थी जब उसका पति दो छोटे बच्चों को छोड़ कर उस साल की बाढ़ में बह गया था। अब लाजी के सामने अपने बच्चों का पेट भरने की चुनौती तो थी ही साथ ही अपने सतीत्व की रक्षा भी करनी थी। किसी ने रास्ता सुझाया और वह बच्चों समेत सिद्धेश्वरी माता की शरण में आ गई। तमाम लोगों की तरह माता ने लाजी की भी लाज रखी और भरण पोषण का रास्ता दिखाया। मंदिर के रास्ते में एक टोकरी में फूल बेचने से शुरू करके आज वह अपनी पक्की दुकान की मालकिन बन चुकी है। बड़ा लड़का रामेश्वर पास की फैक्टरी में मजदूरी करता है और छोटा लड़का मनोहर कुछ मन्द बुद्धि होने के कारण उसके साथ दुकान पर बैठता है। रामेश्वर का विवाह हो चुका है और एक छोटा बच्चा भी है। मजदूरी से कमाई में उसका अपना खर्च ही मुश्किल से चल पाता है इसलिए घर के बाकी खर्च अभी भी दुकान से ही आते हैं।
नवरात्रि को आने में अभी भी दो महीने से ऊपर बाकी हैं और आजकल मंदिर में ज़्यादा श्रद्धालु नहीं आ रहे हैं। नवरात्रि के दिनों में तो कोई दुकानदार ग्राहकों को घास भी नहीं डालता लेकिन साल के कम भीड़ वाले महीनों में सब के सब उन पर टूट पड़ते। आस-पास की सभी दुकानों में श्रद्धालु, या दुकानदारों की भाषा में कहें कि ग्राहक, को देखते ही अपनी दुकान पर आकर्षित करने में होड़-सी लग जाती। हर तरफ़ से आवाज़ें आने लगती- ''भाई जी आइए जूते चप्पल यहीं छोड़ दीजिएगा,'' ''माता के दर्शनों के पहले हाथ पैर धो लीजिए,'' ''प्रसाद लीजिए बहन जी, ग्यारह और इक्कीस का भी प्रसाद है,'' ''लौट के जलपान भी इधर ही करिएगा'' इत्यादि।
प्रसाद के लिए शुरू हुई यह दुकानें ज़्यादा से ज़्यादा ग्राहकों को आकर्षित करने के उद्देश्य से आज बहु-धन्धी हो गई हैं। अब यहाँ सिद्धेश्वरी माता की लैमिनेटेड फोटुएँ, उनकी पूजा विधि, मंदिर के इतिहास का साहित्य और भजनों के कैसेट भी मिलते हैं। इनके अतिरिक्त महिलाओं के लिए शृंगार सामग्री जैसे बिन्दी, सिन्दूर, इमीटेशन वाले सस्ते जेवरात भी सामने सजे रहते हैं। बच्चों के लिए दस–बीस रुपये के खिलौने भी रखे हैं। आती भीड़ में छोटे बच्चों को देखकर दुकानदार अपनी दुकान में रखे प्लास्टिक के हवाई जहाज़ का स्विच आन कर देते हैं। लाल नीली लाइटों के साथ हवाई जहाज़ को आवाज़ करते सुना नहीं कि बच्चे वहीं खड़े हो जाते हैं और खिलौने लेने की माँग चालू। हर रोज़ लाजी यह दृश्य दिन में कई बार देखती है। माता-पिता लगभग हर बार वही घिसे-पिटे बहाने सुनाते हैं ''बेटा अभी नहीं, लौटते समय...'', ''अरे यह मज़बूत थोड़े ही हैं...जल्दी टूट जाएँगे'' या फिर ''तुम्हारे पास एक जहाज़ घर पर है न।'' लाजी बाकी दुकानदारों की तरह इन सब दृश्यों के बीच सिर्फ़ अपने लिए ग्राहक तलाशती और जब बच्चों के माता–पिता उन्हें घसीट कर आगे ले जा रहे होते तो उसे सिर्फ़ इस बात का अफ़सोस रहता कि एक ग्राहक हाथ से निकल गया। दूर जाते बच्चों की आवाज़ धीमी होते-होते समाप्त हो जाती ''मम्मी, ... घर वाले जहाज़ में इतनी लाइटें नहीं हैं...।''
सच पूछें तो आस्था की इन दुकानों में सिर्फ़ एक ईमान है – ज़्यादा से ज़्यादा माल की बिक्री। वे यह नहीं देखना चाहते इस प्रयास में वे भक्तों को खिझा रहे हैं। यहाँ तक कि माता के मंदिर के सामने लोहे के जंगले पर अपनी मनोकामना के प्रतीक के तौर पर बाँधे जाने वाले धागे को भी दस रुपये में बेचना इनकी नज़र में गलत नहीं है। यही वजह है कि ज़्यादातर भक्तों में मन्दिर के अन्दर पहुँचते-पहुँचते भक्ति के अलावा सारे भाव जाग जाते है।
अपनी सफ़ेद किनारी वाली धोती पहने बैठी लाजी रह-रह कर सूनी सीढ़ियों पर नज़र डालती और फिर मायूस हो जाती। सुबह से गिनती के दस-बारह लोग ही मंदिर गए हैं और वे सभी प्रसाद लेने के लिए लाजी की दुकान पर नहीं आए। तभी लाजी की निगाह सीढ़ियों से ऊपर आते एक नव-दम्पत्ति पर पड़ी। लाजी फौरन हरकत में आ गई, ''बेटा इधर आकर हाथ-पैर धो लो फिर माता के दरबार में जाना। तुम्हारी जोड़ी सलामत रहेगी, बहू की गोद जल्दी भरेगी।'' युवक ने एक नज़र अपनी नवविवाहिता पत्नी की ओर देखा तो वह शरमाते हुए मुस्करा दी। कुछ सोच कर वे लाजी की दुकान से अगली दुकान पर चले गए। यह लाजी के मन को नहीं भाया, धीमी आवाज़ में बड़बड़ाने लगी, ''अरे बड़ी आई नई नवेली... अरे कोई हमारी दुकान पर भी आ जाओ। इस गरीब का पेट कैसे भरेगा?''
वैसे लाजी सच कह रही है, आने वाले लोगों के लिए भले ही यह माता की निशानी स्वरुप प्रसाद हो, दुकानदारों के लिए तो यह रोजी रोटी का मसला है।
एक बार फिर लाजी ने सीढ़ियों पर नज़र डाली। नए दम्पत्ति से थोड़ा पीछे ही एक बूढ़ा आदमी आता दिखा। वह चलने फिरने में असमर्थ लग रहा था और सहारे के लिए एक नवयुवक साथ था। बड़ी मुश्किल के साथ वह एक-एक सीढ़ी चढ़ रहा है। उसने हाथ में छड़ी पकड़ रखी है लेकिन ऐसा लगता है कि चार सौ सीढ़ियाँ चढ़ने के बाद वह नवयुवक ही उसका एकमात्र सहारा है। पास आता देख आसपास के सभी दुकानदार अपनी-अपनी शैली में उसे अपनी दुकान पर बुलाने लगे। लाजी ने भी प्रयास किया, ''बाबा, थोड़ा रुक लो, फिर आगे दरबार में चले जाना।''
पता नहीं क्यों बूढ़ा लाजी की दुकान के ठीक सामने आकर रुक गया, शायद वह बहुत थक गया था। एक बार अपने साथ आए नवयुवक की ओर देखा और धीमे स्वर में बोला, ''गुड्डू थोड़ा रुक लेते हैं, अभी और नहीं चला जाता।'' नवयुवक ने हामी भरी और दोनों लाजी की दुकान की ओर बढ़े। लाजी ने यह देखते ही आगे जोड़ा, ''यहाँ से प्रसाद लो, माता तुम्हारी मन्नत ज़रूर पूरी करेंगी।''
काफी प्रयास करते हुए बूढ़े व्यक्ति ने लाजी की छोटी-सी दुकान में प्रवेश किया। नवयुवक ने हाथ से सहारा देकर उसे सामने पड़ी बेंच पर बैठा दिया। बूढ़ा व्यक्ति थका और परेशान लग रहा था। लाजी ने आवाज़ लगाई, ''मनोहर पानी लाकर पिला...।'' फिर बूढे व्यक्ति की ओर देखकर, ''बाबा, कितने का प्रसाद दे दूँ?''
कपड़ों से बूढ़ा व्यक्ति गरीब नहीं लग रहा था। लाजी ने भाँपते हुए सबसे महँगे प्रसाद के लिए कहा, ''इक्यावन वाला दे दूँ?''
नवयुवक ने बूढ़े व्यक्ति की ओर प्रश्नवाचक निगाह से देखा। बूढ़े ने सिर हिलाया। नवयुवक बोला, ''इक्यावन वाला ही दे दो।''
दस मिनट बैठने के बाद नवयुवक ने बूढ़े व्यक्ति से पूछा, ''दादा, अब चल सकते हैं क्या? आज ही वापस शहर भी लौटना है।''
बूढ़े व्यक्ति ने तनिक सोचते हुए सिर हिलाया, लेकिन उठने के प्रयास के बीच उसे कुछ याद आ गया। वह अचानक फफक कर रो पड़ा। लाजी मुड़कर उन्हें देखने लगी। नवयुवक ने बूढ़े व्यक्ति के बगल में बैठ कर उसे सांत्वना देनी चाही, ''दादा, भरोसा रखो, इस मंदिर के बारे में बहुत सुना है। स्वामी जी ने भी कहा था कि माता सबकी मदद करती हैं।''
लाजी ने पूछा, ''इन्हें क्या हुआ है बेटा?''
अपने को काबू में करते हुए जवाब में बूढ़े ने नवयुवक की ओर इशारा करते हुए कहा, ''इसका बाप, ... मेरा बेटा ...अस्पताल में...।'' वह इसके आगे नहीं बोल सका और रो पड़ा। उसके आगे नवयुवक ने ही बताया, ''मेरे पिता अस्पताल में भर्ती हैं, डाक्टरों ने जवाब दे दिया है...।''
लाजी के मन में कई विचार एक साथ कौंध गए पर सबसे अंत में उसे सिर्फ़ यह याद रहा कि सुबह से अब तक बोहनी नहीं हुई है। उसने तनिक हमदर्दी दिखाते हुए कहा, ''यह धागा ले लो- दस रुपये का है। माता के दरबार में मन्नत माँग कर बाँध देना। और यह माता की स्फटिक की मूर्ति है, दो सौ रुपये की, इसे बीमार के सिरहाने रख देना। सब ठीक हो जाएगा।''
बूढ़े और नवयुवक ने एक साथ लाजी की ओर कातर निगाहों से देखा। उन्हें ऐसा लगा कि माता सिद्धेश्वरी देवी से सीधे सम्पर्क कराने वाली लाजी ही है। उन्होंने लाजी के कहे अनुसार ही सारा सामान ले लिया और मंदिर की ओर चल दिए। भीड़ न होने के कारण दर्शन जल्दी ही हो गए। वापसी में बूढ़े ने ही पैसे दिए। लाजी ने देखा कि उस समय भी बूढ़े व्यक्ति के हाथ काँप रहे थे। उसने एक बार फिर लाजी से पूछा, ''मेरा बेटा, बच तो जाएगा न?''
''हाँ...'' कहते हुए लाजी ने पैसे ले लिए, फिर उन्हें गुल्लक में छुआया और माता का धन्यवाद किया। मन ही मन बोली, ''देर से ही सही माँ, लेकिन बड़ा ग्राहक दिलाया तुमने।'' उसके बाद दिन में और भी कई लोग लाजी की दुकान में आए और उसका उस दिन का व्यापार अच्छा रहा। पता नहीं क्यों बार-बार उस बूढ़े और नवयुवक का चेहरा उसकी आँखों के सामने आ रहा था।
दिन डूबते-डूबते उसके दिमाग में एक संशय घर कर गया कि पता नहीं उसने बूढ़े को झूठी दिलासा दे कर ठीक किया या नहीं। अपने आप से बतियाते हुए सवाल-जवाब चलने लगे।
''शादी-ब्याह की बात होती तो ठीक था, यह तो किसी की जिन्दगी का सवाल था।''
''उम्मीद ही तो दी है, कोई नुकसान तो नहीं किया।''
''कुछ पैसे नहीं कमाएँगे तो घर कैसे चलाएँगे।''
''अब लोग यहाँ पहले से ही आस्था लेकर आते हैं। मैं कोई नई बात तो नहीं कह रही थी।''
''कहीं बूढे ने सच में मान लिया हो कि उसका बेटा बच जाएगा तो।''
''अब जब डाक्टर ने ही जवाब दे दिया है तो कोई क्या कर सकता है?''
''मेरी बिक्री तो हो गई लेकिन माँ पर लोगों की आस्था का क्या होगा? वह तो माता के पास यही सोच के आया था कि वे मदद करेंगी। बस मैंने माता की जगह उसे भरोसा दिला दिया कि सब ठीक हो जाएगा।''
''और वैसा नहीं हुआ तो?''
''बूढ़ा जाते समय थोड़ा आश्वस्त लग रहा था। लेकिन क्या उसका लड़का नहीं बचेगा?''
''अब हम लोग तो दिन भर सबसे ऐसे ही कहते रहते हैं। सब सच थोड़े ही हो जाता है।''
पूरी रात लाजी ने करवटों में काटी। बीस सालों में पहली बार उसे लगा कि किसी की तकलीफ़ पर उसने व्यापार कर लिया था। माता के नाम का गलत इस्तेमाल किया था। मन को लाख समझाने के बाद भी वह इस अपराधबोध से मुक्त नहीं हो पा रही थी। बूढ़े का चेहरा उसका पीछा नहीं छोड़ रहा था। मानो कह रहा हो कि तुमने पाप किया है।
सुबह जब वह दुकान पर पहुँची तो रामेश्वर फैक्टरी के लिए निकलने ही वाला था। लाजी ने रामेश्वर से कहा, ''बेटा दस मिनट दुकान पर बैठ। मैं अभी आई...।''
रामेश्वर ने पीछे से आवाज़ लगाई, ''अम्मा, कहाँ जा रही है? मुझे देर हो रही है।''
बिना जवाब दिए लाजी तेज़ी से सीढ़ियों पर चढ़ती हुई माता के दरबार में पहुँच गई। दरवाज़े के पास पहुँच कर ठिठक कर रुक गई। पता नहीं क्यों उसे माता के सामने जाने से डर लग रहा था। जैसे किसी की चोरी पकड़ गई हो वैसे ही सहमे-सहमे माता की मूर्ति के सामने वह जाकर आँखें मूँद कर खड़ी हो गई। कुछ क्षणों बाद उसने ज्यों ही आँखें खोल कर माता की ओर देखा तो एकदम से काँप गई। माता आज चंडी रुप में लग रही थीं, उनकी आँखें क्रोध में मानो दहक रही हों।
लाजी को ऐसा लगा कि उसके पैरों में शक्ति समाप्त हो गई है। वह घुटनों के बल गिरते हुए माता के सामने लेट गई। आँसू अबाध रुप से उसकी आँखों से झरने लगे। हाथ जोड़कर वह ज़ोर-ज़ोर से कहने लगी, ''माँ मुझे माफ़ कर दो। मैंने पाप किया है। तुम्हारी आड़ में मैंने व्यापार किया और झूठ बोला। ...मुझे ऐसा नहीं करना चाहिए था, तेरे सामने मेरी क्या बिसात।''
मंदिर का पुजारी लाजी को पहचानता था और वह भी खड़ा मूक दर्शक की भाँति देख रहा था। शायद लाजी और माँ के बीच में पड़ने की उसकी भी हिम्मत नहीं पड़ी। लाजी अभी भी रोते-रोते कह रही थी, ''माँ अभी मैं क्या करूँ? तू मुझे जो चाहे सज़ा दे देना लेकिन वह बूढ़ा बड़ी आस ले कर गया है। उसके बेटे को ठीक कर देना ...उसे जीवन दान दे दे माँ।''
लगभग दस मिनट तक पुजारी यह दृश्य देखता रहा। इतनी करुणा से माता के सामने उसने किसी को अपना अपराध स्वीकार करते नहीं देखा था। उसके बाद लाजी चुपचाप उठी और अपने आँचल से आँखें पोछते हुए चली गई और जाकर गुमसुम-सी अपनी दुकान पर बैठ गई। पूरे दिन उसका जी खट्टा रहा लेकिन दिन खत्म होते-होते यह टीस कम होने लगी। फिर एक-एक करके दिन बीतने लगे और लाजी कुछ सामान्य होने लगी।
लगभग बीस दिन बाददुकान पर लाजी के लिए एक और सामान्य दिन था। एकाएक उसकी दृष्टि सीढ़ियों पर से आते उसी बूढ़े और नवयुवक पर पड़ी। उसकी दुकान के सामने पहुँच कर वे एक बार फिर रुक गए। लाजी नज़रें चुराना चाहती थी लेकिन तभी उसने देखा कि उन दोनों की आँखों में हल्की-सी मुस्कान थी। पास आकर बूढ़े ने बताया, ''माता ने मेरी बात सुन ली। माता के आशीर्वाद और तुम्हारे यहाँ के प्रसाद ने मेरे बेटे की जान बचा दी।''
लाजी एकदम से हकबका गई, ''क्या ...अच्छा ...अब वो ठीक है?''
इस बार नवयुवक ने बताया, ''हाँ, अभी तो पापा अस्पताल से घर भी आ गए हैं। यहाँ से जाने के एक दिन बाद ही उनकी तबियत सुधरने लगी। एक हफ्ते बाद तो डाक्टर भी इस चमत्कार को मानने लगे। दो हफ्ते में वह घर आ गए। कमज़ोरी अभी है लेकिन डाक्टर का कहना है कि खतरे वाली कोई बात नहीं।''
आसमान की ओर हाथ उठा कर बूढ़े व्यक्ति ने कहा, ''माता तेरा बड़ा सहारा, बड़ा उपकार किया। वही प्रसाद एक बार और दे दो, माता का धन्यवाद कर दूँ। तुम्हारा भी शुक्रिया।'' फिर कुछ रुक कर, ''अगली बार बेटे को भी लाऊँगा।''
लाजी ने हड़बड़ाते हुए प्रसाद दिया। बूढ़ा और नवयुवक आगे बढ़ गए। अपनी धोती के सिरे से लाजी ने अपनी आँखे पोछीं तो उसे अहसास हुआ कि वे सजल हो चुकी थीं। ज़रा सहमते ही उसने अपने सामने वाले दुकानदार को आवाज़ लगाई, ''राधे, ज़रा मेरी दुकान देखना... मैं अभी आई।'' लाजी में अचानक न जाने कहाँ से इतनी स्फूर्ति आ गई। भीड़ को चीरते हुए लाजी एक बार फिर माता के दरबार में पहुँच गई और उनके चरणों पर गिर गई। आज आँखों में कृतज्ञता के आँसू थे। थोड़ी देर बाद उसने सिर उठाया तो देखा कि सामने सौम्यरुपा सिद्धेश्वरी माता विराजमान थीं। लाजी ने देखा इस बार माँ के नेत्रों में ज्वाला नहीं थी।
''जय माता दी'', ''जय माता दी'' की करतल ध्वनि के साथ श्रद्धालु मंदिर में लगातार आते जा रहे थे।
२८ सितंबर २००९

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