21 January, 2014

निर्णय-वीरेन्द्र कुमार मैसी

सुरभि से चरत का विवाह हुए लगभग दस वर्ष हो गए थे. पर इन दस वर्षों में शायद ही कोई दिन ऐसा बीता हो जिसमें दोनों की तकरार न हुई हो. वैसे दोनों दो प्यारी-प्यारी पुत्रियों के माता-पिता बन चुके थे. पर विचारों के भिन्नता, सुरभि का शंकालु दिमाग परिवार की खुशियों को दीमक की तरह चाटता चला जा रहा था. हर शाम बस यही प्रश्न रहता था सुरभि का - "कहाँ-कहाँ गये थे? किससे मिले थे? क्यों इतनी देर लगाई? इत्यादि. सुरभि एक केंद्रिय कार्यालय दिल्ली में यू. डी. सी- थी. वहीं चरत एक डिग्री कॉलेज में प्रवक्ता था. सुरभि को सदा यही शक खाये जाता कि हो न हो चरत का अपने कॉलेज की किसी महिला प्रोफ़ेसर से अफ़ेयर चल रहा ऐ. रोज़-रोज़ की तकरार, झूठे इल्ज़ामों तथा बेबुनियाद बातों से दोनों बच्चियों प्रियंका तथा मुनमुन पर बुरा असर पड़ रहा था. वह भी डरी-डरी सी रहती थीं. पढ़ाई में भी मन नहीं लगाती थी. यद्यपि चरत की माताजी श्रीमती बेला शर्मा प्रधानाचर्या के पद से सेवनिव्रित होकर उसके साथ ही रह रही थी. पर वह भी सुरभि की रोज़-रोज़ की झिक-झिक पारिवारिक कलह से तंग आ चुकी थी.
सुरभि तथा चरक का विवाह भी स्वयं की पसन्द का था. एक साहित्यिक गोष्ठि में दोनों की मुलाक़ात हुई थी. वहाँ प्रदेश के बड़े-बड़े कवि तथा साहित्यिकार आये हुए थे. उसमें सुरभि ने अपनी मधुर आवाज़ में कविता का पाठन किया था. एक साहित्यकार तथा कवि के रूप में चरत ने अपनी प्रसिद्ध कविता "स्म्रिति" तथा कहानी "प्रतिविम्ब" सुनाई थी. जिससे प्रभावित होकर सुरभि स्वयं चरत के प्रति आकर्षित हो उसके निकट आती चली गयी. एक माह के अंतर में दोनों ने कोर्ट में जाकर विवाह कर लिया. शारीरिक मोह कुछ माह बाद समाप्त हो गया और अब दोनों के बीच प्रेम का स्थान घृणा, तिरिस्कार, अपमान ने ले लिया. अन्त यही था कि दोनों अपनी राहें अलग-अलग कर लें.
सुरभि अपनी दोनों बच्चियों को तथा कोर्ट से सेपरेशन लेकर अपनी विधवा माँ के पास जाकर रहने लगी थी. उस दिन चरक बहुत रोया था. सुरभि अलमारी में टँगी अपनी साड़ियों को चरत के टँगे सूटों से अलग कर रही थी तथा अपनी अटेचीयों में अपने कपड़े ठूँस-ठूँस कर भर रही थी. तथा एक अटेची में बच्चियों के कपड़े रख रही थी. बच्चियाँ चरत के पास बैठी रो रही थीं. चरत उनके आँसू पोंछ सीने से लगाये बैठा था. "पापा हम आपके पास रहेंगे, हम पापा कहकर किसे पुकारेंगे." पर सुरभि पर इसका कोई असर नहीं था. चरत ने सुरभि को बहुत समझाना चाहा. उसका हाथ भी पकड़ा, उसका रास्ता भी रोका. कहा भी कि "सब बातों के पीछे तुम्हारे भ्रम है. तुम साबित तो करो कि मेरा किसी से सम्बन्ध है." पर वह हाथ छुड़ा कर बच्चियों को लेकर लान को पार कर दरवाज़े का निकल चुकी थी. टैक्सी वह पहले ही मंगवा चुकी थी. चरत अब अपने उजड़े आशियाने में माँ के साथ अकेला था. चरत ने बहुत चाहा कि सुरभि लौट आये. पर उसने ठान ली थी कि अब वह कभी वापस नहीं आयेगी. सो नहीं आयी.
एक वर्ष बाद निहारिका ने उसके जीवन में प्रवेश किया विश्वविध्यालय के कान्वोकेशन समाहरोह में उसकी भेंट निहारिका से हुई. संयोग से वह चरत की पास वाली सीट पर ही बैठी थी. उसके पास से आती हुई पर्फ़्यूम की सुगन्ध चरत को मदहोश किये जा रही थी. खुले, बिखरे बाल उसकी सुन्दरता में चार चाँद लगा रहे थे. वह भी बार-बार एक-दूसरे का परिचय प्रप्त कर लिया था. तथा एक-दूसरे को अपना कार्ड देकर कर्यक्रम से विदा हो गये थे.
एक सप्ताह बाद अचानक चरत के मोबाइल कि घंटी बजी. फ़ोन निहारिका का ही था. बोली, "क्या आप मेला माल में आ सकते हैं? मैं पाँच बजे आपकी प्रतीक्षा करूँगी." चरत तैयार होकर पाँच बजे मेला माल पहुँच गया. हाय, हेलो के बाद दोनों एक रेस्त्रा. में बैठ गये. बातों-बातों में दोनों ने एक-दूसरे के बारे में बहुत कुछ जान लिया. निहारिका का जीवन भी कुछ चरत के जीवन से मिलता जुलता था. फ़र्क केवल इतना था कि निहारिका के पति की मृत्यु एक दुर्घटना में हो गयी थी तथा उसकी एक बेटी थी निराली जिसका विवाह पिछले वर्ष अमरीका में बसे एक धनी परिवार के अकेले पुत्र राजदीप से हो चुका था. अब वह अकेली थी तथा एक रूम सेट किराये पर लेकर पॉस की ही एक पाश कालोनी राजनगर में रहती थी.
अब दोनों की मुलाक़ातों का सिलसिला आरम्भ हो चुका था. प्रत्येक छुट्टी के दिन दोनों मिलकर घूमने फिरने, शॉपिंग में बिताते. चरत एक दिन उसे अपनी माँ से मिलवाने लाया. माँ को निहारिका बहुत पसन्द आयी. माँ ने तो निहारिका से शादी की बात तक कर ली, ताकि चरत के जीवन में खुशियाँ वापस आ सकें. पर होनी को कौन टाल सकता है. निहारिका को अपनी बेटी की डिलीवरी के कारण मिशिगन जाना पड़ गया. निहारिका चरत से केवल 6 माह के लिये कह कर गयी थी. तथा घर की चाबी, बैंक अकाउंट तक उसके नाम करके गयी थी. पर धीरे-धीरे समय बीतता गया. 6 माह के स्थान पर 6 वर्ष बीत गये. पर निहारिका नहीं लौटी. उसकी लड़की ने उसका ग्रीन कार्ड बनवा दिया था. अब वह अमरीका की नागरिक थी. नागरिक क्या थी पिंजड़े में कैद पक्षी. अब वह घर की एक नौकरानी थी. बच्चों को पालना, उन्हें पढ़ाना, घर के समस्त कार्य, झाड़ू, पोंछा उसका काम था. अब वह किसी को फ़ोन तथा पत्र तक नहीं लिख सकती थी. अपनी दयनीय स्थिति के बारे में उसने स्वयं लिखकर चुपचाप किसी से चरत को पत्र पोस्ट करवा दिया था. तथा भारत आने की असमर्थता जाहिर करके चरत से निवेदन किया था कि अब वह उसे भूल जाये. पत्र पर गिरे उसके आँसू उसकी व्यथा बता रहे था. 6 वर्ष का इन्तज़ार एक हवा के झोंके से समप्त हो गया था. तनहा, बिल्कुल तनहा. चरत अपनी किस्मत को कोस रहा था. ईश्वर मैंने कौन-सा पाप किया जिसकी सज़ा मुझे इतनी कड़ी तथा लम्बी मिली. उसके आँसू नहीं थम रहे थे. वह अपने दोनों हाथ आँखों पर रखे फूट-फूटा कर रो रहा था. माँ मन्दिर गयी हुई थी.
तब ही किसी ने उसके हाथों को खींचकर उसके चेहरे से अलग किया. "पापा" उसे अपने कानों पर विश्वास नहीं हुआ. सामने छोटी बेटी मुनमुन खड़ी थी. वह उठ कर खड़ा हुआ. उसने मुनमुन को अपने सीने से लगा लिया. "मेरी बच्ची" सामने प्रियंका भी खड़ी थी. दोनों बच्चियों को अपने आगोश में भरकर वह फूटकर रोया. यह गम के नहीं खुशी के आँसू थे. "पापा, मम्मी भी दरवाज़े पर खड़ी है. वह आपके डर के कारण भीतर नहीं आ रही है. क्या आप उन्हें भीतर नहीं बुलाएँगे." मुनमुन ने कहा. चरत दौड़ कर बाहर आया. सुरभि अब भी उतनी ही सुन्दर थी जैसी घर छोड़ कर गयी थी. पर बालों में सफ़ेदी नज़र आने लगी थी. कुछ पल एक दूसरे को निहारने के बाद, दौड़कर सुरभि सरत के सीने से लिपट गयी. चरत उसका एक हाथ अपने हाथ में पकड़ कर तथा बूसरे में उसकी अटेची उठाकर घर में ले आया था. सुरभि अलमारी में लगे उय खाली हेंगरों में साड़ियाँ टाँग रही थी जिन्हें वह दस वर्ष पूर्व छोड़ कर गयी थी.

No comments:

Post a Comment