23 January, 2014

गुडिया का ब्याह-इला प्रसाद

उस दिन अचानक ही हमें मालूम हुआ कि हमारी गुडिया अब बडी हो गई है और हमें उसकी शादी कर देनी चाहिएहमें समझ में भी नहीं आता अगर दीदी ने बतलाया न होतागुडिया दीदी ने ही बनाकर दी थी। लाल होंठ और काली पहुंचने वाली कपडे क़ी सफेद गुडिया जिसे हम बडे चाव से कभी साडी तो कभी फ्राक पहनाते। वह इतनी सुन्दर थी कि किसी भी ड्रेस में अच्छी लगतीकभी हम उसके लम्बे काले बालों की चोटियां बना देते  ज़ब फ्राक पहनाते और उन्हीं बालों का जूडा बन जाता साडी पर। ळेकिनउसकी शादी का खयाल कभी हमारे मन में नहीं आयाहम तो हर रोज क़ी तरह स्कूल से लौटकर अपनी किताबों की अलमारी के निचले खाने में बैठी गुडिया से बातें कर रहे थे। उस छोटे से घर में और जगह थी भी नहीं । एक कोने में हमारी आलमारीदूसरे में दीदी कीबाकी जो जगह बची वहां हमारे बिस्तर। दीदी बडी थीं उन्हैं बहुत पढना होता था इसलिए उनके लिए एक टेबल कुर्सी भी थी। हम तो यूं ही पढ लेते थे। ज्यादा पढना भी नहीं था। सुबह 7बजे से दस बजे तक का स्कूल फिर घर आकर थोडा होमवर्क और बाकी समय गुडिया का। उस दिन भी यही हुआ । हमने किताबें कोने में डालीं खाना खाया और गुडिया से बातें करने लगे
दीदी अपनी कुर्सी पर बैठी परीक्षा की तैयारी में व्यस्त थीं क़ि अचानक उन्होंने सिर घुमाया और बोलीं '' सुधानीलू ! मुझे लगता है तुमलोगों की गुडिया अब बडी हो गई है। उसकी शादी कर तुमलोगों को उसे ससुराल भेज देना चाहिए
हम चकित! सब अच्छी बातें दीदी के ही दिमाग में कैसे आती हैं!
ळेकिनअब अगली समस्या उठ खडी हुई। हम गुडिया का दूल्हा कहां खोजेंपूरे मुहल्ले में जिस जिस को हम जानते थे सबके तो गुडिया ही थी या फिर गुड्डा गुडिया दोनों ही थे। अकेला गुड्डा तो किसी का भी नहीं था। कोन हमारी गुडिया से ब्याह रचाए?
हम पूरा मुहल्ला अगले दो दिनों में घूम आयेकहीं हमारी सुन्दर गुडिया का दूल्हा नहीं था। क्या समझती होलडक़ी की शादी आसान होती हैकुक्कू ने सयानेपन से कहा ''मैं जानती हूं रोज तो मेरी माँ मेरे पपा से यही कहती हैं । मेरी दीदी की शादी होनी है न। बहुत ढूंढना पडता है''
हम थक हारकर रूआंसे हो गए
नहीं करना गुडिया का ब्याह!

फिर दीदी ने ही हमारी परेशानी समझीउन्होंने एक गुड्डा बना दिया। हम वह गुड्डा शीलू के घर दे आए। उनका गुड्डाहमारी गुडिया! विवाह की तैयारियां होने लगीं

दिन तो रविवार ही रखना थासबकी छुट्टी होती है। शादियां रात में होती हैं इसलिए और कोई झंझट नहींसब आ सकते थे और सबने आना स्वीकार भी कर लिया। हम सारे दोस्तों को निमंत्रण दे आए।माँ ने छोले पूरियां और गुलाब जामुन बनाने की स्वीकृति दो दी। जिन्हें आना था वे सब बाराती ही थे। कुल दस बारह बाराती नीलूपंडित। गुड्डे की मम्मी शीलू । गुडिया की मम्मी मैंमुन्ना गुड्डे का पिता बनने को तैयार हुआसबकुछ निर्विघ्न सम्पन्न हो जाता लेकिन शादियां क्या इतनी आसानी से हो जाती हैं! कन्यादान के समय समस्या खडी हो गई जब पंडित ने पूछा '' गुडिया के पापा कौन?''
मुन्ना हमारी तरफ आ गया। मैं गुडिया का पिता हूं। गुड्डे के पिता नहीं हैं''
पंडितजी मान गए
शादी हो गई
ऐसी परंपरा है कि लडक़ी ससुराल जाए तो उसके घरवाले रोते हैं और लडक़ी भी। इसलिए भी हम रोये। अपनी तरफ से भी और गुडिया की तरफ से भी। बहुत रो धोकर हमने गुडिया को ससुराल भेज दिया
''बेटियां तो ससुराल जाने के लिए ही होती हैं '' बडों ने कहा।
हमारे लिए घर सूना हो गया
अगले दिन जब हम स्कूल से आये तो हमारे पास करने के लिए कुछ नहीं था
गुडिया ससुराल में थीउसके गहनेकपडेख़िलौनेबिस्तर  सब हमने दहेज में दे डाले थेआलमारी के निचले खाने में जगह ही जगह थी। हम चाहते तो कुछ किताबें वहां भी जमा स्कते थे। लेकिन ऐसा करने का मेरा बिल्कुल ही मन नहीं हुआनीलू को भी ऐसा ही लगा
हमदोनों उदास हो गये
अगले दिन से गर्मी की छुट्टियां शुरू हो गईंअब दोपहर भर करें क्यादीदी को तो पढना ही पढना है। हमें कहेंगी ''सो जाओ''दिन में कहीं नींद आती है! कितना खाली खाली लग रहा हैकिससे बात करेंकिसे नहलायेंखिलायेंसुलायें। लोरी सुनायें!
हमें अचानक से रोना आने लगा
''हम शाम को गुडिया को देखने जायेंगे। शीलू के घर।'' मैंने नीलू से कहा।
वह झट सहमत
लेकिन इस तरह अगले ही दिन लडक़ी के माँ बाप का उसकी ससुराल पहुंच जाना कुछ ठीक नहीं लगाहमने अपने बडों से इसकी निन्दा ही सुनी थीइसलिए हमदोनों को ही लगा कि हमें शीलू और मुन्ना को बुलावे का इन्तजार करना चाहिएजब गुडिया का रिसेप्शन होगा तब हम जायेंगे
पहाड ज़ैसे गर्मी की छुट्टियों के दिन
दिन भर गर्म हवा सांय सांय करतीमैं और नीलू ढूंढ-ूंढ क़र पुराने धर्मयुग निकालते और बाल जगत पढतेचार किताबें ऊंची आलमारी से और गिरतीं और दीदी भइया डांट लगाते। दो दिन बीत गये। कोई खबर नहीं आई
''सुधा नीलू ! तुमलोग बाहर जाकर खेलतीं क्यों नहींशाम हो गई तब भी अन्दर ही बैठे रहना है?'' बडों ने पूछा।
''किसके साथ खेलेंशीलू मुन्ना आते ही नहीं।''हमने मायूसी से जवाब दिया।
''क्योंमुहल्ले में एक उन्हीं के साथ खेलते थे तुमकुक्कू भी तो है। रीता संगीता क्या हो गया है तुम्हें?'' दीदी ने डांट लगाई।
अब हम क्या बतायेंहमारी गुडिया उनके पास है। क्या ये जानते नहीं!
''चलो उस ओर घूम आते हैं। क्या पता शीलू मुन्ना कहीं खेल रहे हों। हम भी बाहर जाते हैं।उधर ही जाकर खेलेंगे।'' नीलू ने कहा।
शीलू और मुन्ना सडक़ पर ही मिल गयेबुढिया की दूकान से जाने क्या खरीद कर लौट रहे थे दोनोंहमने उन्हें रास्ते में ही जा पकडा
''कहां जा रहे हो?''
आलू ले जा रहे हैं। माँ से आलू पराठे बनवायेंगे''
हमारी गुडिया कैसी है?''
''अच्छी है।मजे में है अपने गुड्डे के साथ। '' मुन्ना बोला।
''लेकिन उसे हमारे पास भी आना चाहिए।''
''अभी कैसे आ सकती है! अभी तो बहू भात होना है।''
'' कब करोगे बहू भात?'' हमने बडी आशा से पूछा।
''बतायेंगे न। रूको तो। जब करेंगे तो बुलायेंगे। तब आना।'' मुन्ना सयानेपन से बोला।
'' कब तक रूके रहें हम तुम्हारे बुलावे के लिए। कब से तो रूके हुए हैं हम। खेलने भी नहीं आते।बुलाते भी नहीं।''
''बुलायेंगे।'' दोनों ने एक साथ कहा और चले गए।

हम वापस
''लूडो खेलो।'' भइया ने कहा।
रविवार को आधे घंटे का बाल सभा आता रेडियो पर। उसे सुन लेते। पूरा सप्ताह बीत गया। हम खेलने जाते । कभी शीलू और मुन्ना की शकल नजर न आती मैदान में। घर लौटते। दीदी अपनी टेबल पर पढती मिलतीं। हमें देखकर कभी प्यार से मुस्करा देतीं। फिर पढने लगतीं। हमारे धैर्य की हद हो गई। यह क्या हैहमारी गुडिया लेकर हमीं से ऐंठहमने आपस में सलाह की और किसी को कुछ बताए बिना एक दिन हमदोनों शीलू के घर जा पहुंचे।दरवाजा शीलू की माँ ने खोला
''चाचीजीशीलू कहां है?'' मैंने सादगी से पूछा।
'' आओ आओघर पर ही है।अन्दर जाओ।'' चाचीजी ने रास्ता दिखा दिया।
हमदोनों शीलू और मुन्ना के कमरे में
हमारी ही तरह उन्होंने भी अपनी किताबों की आलमारी के निचले खाने में गुडिया घर बनाया हुआ थाउतने ही आराम सेसुखपूर्वकहमारी गुडिया वहां गुड्डे के साथ बैठी थी जैसी वह हमारे यहांहोती
''देख लिया नहम भी अच्छे से रखते हैं गुडिया को।'' शीलू बोली।
''उससे क्या! इतने दिन हो गये।तुमलोग आते ही नहीं।बहू भात भी नहीं करते । इसलिए तो हमेंउसे लिवाने आना पडा।'' नीलू तुनक कर बोली।
''ऐसे कोई ले जाता है क्याऐसे लडक़ी नहीं जाती है शादी के बाद।'' शीलू की माँ जो पीछे से हमारा र्वात्तालाप सुन रही थींहंसकर बोलीं।
'' लेकिन ये लोग कुछ करते ही नहीं।'' मैं रूआंसी हो आई।
लेकिन वे तबतक अपनी बात कहकर जा चुकी थींबच्चों की बातों में कौन पडे!
''हम तो आज इन्हें ले जायेगें।'' मैं और नीलू जिद पर उतर आये।
''हम नहीं देंगे। अरे वाह! शादी की है तो गुडिया गुड्डे के घर में रहेगी या तुम्हारे घर मैंपहले सोचना था। हम कहने आए थे कि हमारे घर में शादी करो।''
उससे क्या। हमने थोडे दिन के लिए दिया था। हमेशा के लिए थोडे ही। गुडिया हमारी है। गुड्डा भी
हम दोनों को ले जायेंगे''
'' कोई शादीशुदा लडक़ी को वापस ले जाता है क्या?''
''हम ले जायेंगे।''
''गुड्डे को अकेला छोडक़र?''
''उसे भी ले जायेंगे।''
''घर जमाई बनाओगे?''
''बनायेंगे।''
अच्छी खासी बहस और लडाई के बाद गुड्डा और गुडिया दोनों को हथियाकर  उन्हें बगल में दबाये हुए सांझ ढले ,हमदोनों विजयी भाव से घर में दाखिल हुए
''जरा देखो इन्हें। फिर से वापस ले आईं अपनी मरियल सी गुडिया और गुड्डा।  मंझली दीदी ने मुंह बिचकाया।
'' यह क्या है? '' दीदी और भइया चौंके।
फिर हम कुछ समझ पाते इससे पहले ही भइया ने आगे बढक़र गुड्डा और गुडिया दोनों ही थाम लिये और हंसते हुए उन्हें बालकनी से हाथ बढाकर नीचे नाले में फेंक दिया
आपको नहीं लगता कि यही कहानी आपकी भी हैरोज ही एक न एक गुडिया आपको मिलती और आपसे छिन जाती है। अपने बराबरवालों से लडक़र आप जीत भी जाते हैं लेकिनअपने खैरख्वाहों की शकल में मौजूद इनलोगों से लडने के लिए आप क्या करने जा रहे हैंमुझे जानना है


No comments:

Post a Comment