19 January, 2014

उमेश अग्निहोत्री की कहानी— 'क्या हम दोस्त नहीं रह सकते?

हर बार जय भास्कर के साथ वही हुआ था। जब-जब उसने किसी लड़की के आगे शादी का प्रस्ताव रखा था, लड़की ने उसे साफ़-साफ़ मना नही किया था, शालीनता बरतते हुए इतना कहा था, "क्या हम दोस्त नहीं रह सकते?"
"दोस्त! क्या मतलब है आपका? "  जय का हँसमुख चमकदार चेहरा फ़ौरन अपनी चमक खो देता, आँखों की पुतलियाँ ऊपर-नीचे दायें-बाये घूमने लगतीं, एक हाथ की उंगलियों के पोर मेज़ पर बेआवाज़ उल्टी-सीधी थाप देने लगते, और दूसरे हाथ की उंगलियों से वह अपने माथे पर गिर आये बालों को पीछे हटाने लगता।
पहली बार जब उसके साथ ऐसा वाकया घटा था उसने चेहरे पर किसी तरह बनावटी-सी हसी बनाए रखी थी, और कहा था, "धन्यवाद, जो आपने यह नहीं कहा, क्या हम भाई-बहन नहीं बन सकते? अगर आप यह कह देतीं, तो फिर अपने भाई से यह भी आग्रह करतीं कि बहन के लिए कोई अच्छा लड़का भी सजेस्ट कीजिए।"

वह अट्ठाइस साल का था, विवाह के लिए उपयुक्त आयु। जहाँ तक उसकी पढ़ाई-लिखाई और पारिवार का प्रश्न था, उसमें भी ऐसा कुछ नहीं था कि कोई लड़की उससे शादी करने से इंकार करती। वह पढ़ा-लिखा था। उसने हावर्ड से एम.एससी. की डिग्री ली थी, वह भी एरोनॉटिक्स में। अभी वह स्कूल में ही था कि उसका एक प्रोजेक्ट प्रयोग के लिए अंतरिक्ष-यान कोलंबिया में भेजा गया था।
कॉलेज की पढ़ाई अभी पूरी भी नहीं हुई थी कि एक दिन नासा वाले उसे गोडार्ड स्पेस सेंटर में वैज्ञानिक के रूप में काम करने का ऑफ़र दे गए थे, जहाँ वह अब भी, जबकि उसके कई सहपाठी नौकरियाँ बदल-बदल के आज भी कोई स्थायी ठौर ढूँढ़ रहे थे, नासा में ही तरक्की कर रहा था, छह अंकों में वेतन पा रहा था और अपने माँ-बाप के घर के निकट अपने अलग फ़्लैट में रह रहा था।
उसके माँ-बाप मुंबई के एक कुलीन परिवार से थे और अमेरिका के मेरीलैंड राज्य की एक उच्च मध्यवर्गीय आबादी में रहते थे। ऐसा भी नहीं था कि लड़कियों ने जय को पसंद न किया हो। उसमें ग़ज़ब की विनोदप्रियता थी और जिस किसी को भी उसने 'डेट' किया, चाहे वह शालिनी थी या सुशीला, वह उसकी वाकपटुता की कायल भी हुई, उसकी बातें सुन बेसाख्ता हँसती रही। हर बार जय को लगता कि जो लड़की उसकी बातों पर नारी-सुलभ शील-संकोच भुला कर खुल कर हँस रही है वह उसके साथ विवाह करने से इंकार क्यों करने लगी? लेकिन अंत उसी एक वाक्य पर होता. . .क्या हम दोस्त बने नहीं रह सकते?
कभी-कभी जय को लगता कि जिस कमी की वजह से वह ठुकराया जाता रहा है, शायद वह है उसका नाटा क़द और उसका लड़का-लड़का-सा दिखना। उसका कद मुश्किल से पाँच फुट था। 16 -17 साल की उम्र तक उसे लगता रहा था कि उसका क़द एकाएक बढ़ेगा। वह एक दिन सुबह सो कर उठेगा और पाएगा कि वह पाँच फ़ुट पाँच-छह इंच तक पहुँच गया है। कइयों का क़द अचानक 16- 17 वर्ष में बढ़ने की बातें उन्होने सुनी थीं। दीवार के साथ सिर सटा कर, सिर का कभी अगला और कभी पिछला भाग ऊपर कर के उसने दीवार पर पेंसिल का निशान लगा कर अपना कद कई बार मापा था लेकिन वह दो-तीन मिलिमीटर ही अधिक हो पाता। हार कर उसने यह हक़ीक़त स्वीकार कर ली थी कि वह पाँच फ़ुट है और इतना ही रहेगा। उसे अपने नाप के वस्त्र दूकानों के 'मैन्स सैक्शन' की बजाए 'बॉयेज़ सैक्शन' में मिलते थे। चेहरे पर उसने किनारों से ऊपर ऊठी लंबी मूँछ रख रखी थी ताकि वह अपने सहयोगियों को बच्चा-बच्चा-सा न दिखे, जिस कोशिश में वह काफ़ी हद तक सफल था। वह सोचता कि वह इतना ठिगना भी नहीं था कि कोई लड़की उससे विवाह करने से मना कर दे, और यह तथाकथित कमी उसके अन्य गुणों पर भारी पड़े। लेकिन कामाक्षी कृष्णन से, जो भरतनाट्यम नृत्यांगना थी, मुलाक़ात करने के बाद उसे यकीन-सा होने लगा था कि वह कद से मार खा रहा है। उसने विनम्रतापूर्वक कामाक्षी कृष्णन से पूछा था, "तुम कहती हो तुम मुझे पसंद भी करती हो, तुम्हें हमारा परिवार, मेरे माँ-बाप, भाई-बहन, मेरी नौकरी, मेरी बातचीत, सब पसंद है, तो फिर वह कौन-सी बात है जो तुम्हें मेरे साथ शादी करने से रोक रही है?"
कामाक्षी, अपनी बड़ी-बड़ी आँखों से उसे देखती रही थी, पर उत्तर देना टाल गई।
उसने पूछ ही लिया, "क्या तुम मेरे नाटे कद के कारण मना कर रही हो?"
कामाक्षी ने भरतनाट्यम की शंकिता भंगिमा अपनायी, मुँह से निकला, "नो ओ..आ आं।" जिस तेज़ी से कामाक्षी ने प्रतिवाद किया था, उसमें कहीं 'हाँ' की ध्वनि भी थी।

अगर उसका क़द कुछ उन्नीस रह गया था तो उसमें उसका क्या दोष? वह जो है जैसा है उसकी जीन्स की बदौलत है। जय का कद उसके पिता पर गया था। उसके पिता छोटे कद के थे, माँ उनसे लंबी थीं। दोनों को देखकर उसे कभी ऐसा नहीं लगा था कि पिता जी के छोटे क़द को लेकर उसकी माँ के मन में कोई गाँठ है, उसके उलट दोनों में बहुत प्यार नज़र आता।
उस दिन वह अपने फ्लैट में अपने पलंग पर लेटा टेलीविजन देखता हुआ सोच रहा था कि वे लोग कितने खुशकिस्मत थे जिनके माँ-बाप बच्चों की शादी पालने में ही तय कर दिया करते थे, बाद में कौन लंबा निकलता है कौन ठिगना, यह कोई मुद्दा ही नहीं था। फिर उसे ख़याल आया कॉलेज की उसकी सहपाठिनी लिंडा जैकसन से उसकी शादी हो सकती थी। वह उससे लंबी थी, लेकिन जय का कद उसके लिए कोई मुद्दा नहीं था। पर जय की माँ अड़ गई कि जय को विवाह भारतीयमूल की लड़की से ही करना होगा। अगर लड़की अमेरिका में न मिली तो वह भारत से लाई जाएगी। इसलिए लिंडा से शादी होना रह गया।
तभी टेलीफ़ोन की घंटी बजी। माँ थीं। और इस बार भी इधर-उधर की दो चार बातें करने के बाद उनकी वही टेक, "बेटा, एक लड़की है. . ."
इससे पहले की वह बात पूरी करतीं, उसने बीच में ही टोक दिया, "मां!" जिसका मतलब था फिर वही राग। माँ जब उस पर भी बोलती गईं तो उसने खीज कर कहा, "मैं आपको इतनी बार समझा चुका हूँ कि कोई दूसरी बात करो, आप हैं कि समझती ही नहीं!"
माँ बोली, "मैं अभी हारी थोड़े ही हूँ। और देख उसका नाम तेरे नाम से मिलता-जुलता है. . .विजया।"
उसके बाद वह इतनी पीछे पड़ गईं कि उसे कहना ही पड़ा, "अच्छा-अच्छा, ठीक है।" साथ ही माँ को अल्टीमेटम दे दिया, "यह आख़िरी बार है। इसके बाद यह अध्याय बंद।"
यह लड़की, नाम विजया। नाम मिलता-जुलता है, क्या इसीलए जय ने विजया से मिलने के लिए हाँ तो नहीं कर दी ? नाम मिलता-जुलता हो, तो हमनाम व्यक्ति के साथ कुछ अमूर्त किस्म का रिश्ता महसूस होता ही है। विजया माध्यमिक स्कूल में टीचर थी, उसकी विशेषज्ञता विकलांग बच्चों को पढ़ाने में थी। चेहरे पर नाम-मात्र का मेकअप, प्रकृति से शांत-सौम्य, स्वल्पभाषी, उम्र में वह उससे दो वर्ष छोटी और ऊँचाई में उससे एकाध इंच कम थी। हीलवाले सैंडलों में वह उसके जितनी ही लग सकती थी, लेकिन वह मामूली हीलवाले सैंडल पहनती थी, जिससे यह स्पष्ट था कि उसमें अपने क़द को लेकर कोई हीनभावना नहीं थी। उसे देख जय के ज़हन में उड़ता-सा ख़याल आया कि उन दोनों के कद छोटे होने के कारण उनकी संताने भी नाटी निकलीं तो? लेकिन इस ख़याल को उसने दो चार मुलाक़ातों के बाद यह सोच झटक दिया कि उसके अपने और विजया दोनों के परिवारों में लंबे कद-काठीवाले भी तो हैं, और जीव विज्ञान बताता है कि संताने दादा-परदादा की पीढ़ी की शारीरिक बनावट, लक्षण, क़द कामत लेती आई हैं। उनके अपने बच्चे भी दादा-दादी, नाना-नानी पर जा सकते हैं। फिर यह भी था कि वह खुद मानता आया था कि नाटे क़द के कारण किसी को नापसंद नहीं किया जाना चाहिए। वह किसी दूसरे को इसी बिना पर अस्वीकार कैसे कर सकता था? साथ ही, क्योंकि किसी लड़की को प्रभावित करने की यह उसकी आख़िरी कोशिश थी, वह अपने को अपने उत्तमोत्तम रूप में पेश कर रहा था। अधिक उदार, धैर्यवान, संवेदनशील, विनोदप्रिय। यहाँ तक की जब विजया ने कहा कि शादी के बाद वह अपना उपनाम अग्रवाल नहीं बदलेगी, उसने कहा, "नो प्रौब्लम।'' विजया ने कहा,  ''तुम्हें अपना अपार्टमेंट छोड़ कर नया मकान मेरे माँ-बाप के घर के निकट लेना होगा, उसने कहा, ''नो प्रौब्लम।'' विजया ने यह भी माँग की कि वह फेरों के बाद अपने ससुराल न जा कर, नवविवाहित अमेरिकी दंपतियों की तरह सीधे हनिमून पर जाएगी। वह समझ गया कि विजया हाँ करने से पूर्व विवाहित जीवन के सारे ठीये-ठिकाने सुरक्षित कर लेना चाहती है ताकि बाद में परेशानी न हो। वह बोला,  ''नो प्रौब्लम। यह तो होना ही चाहिए। लड़का-लड़की दोनों बराबर हैं। अगर दोनों में कोई फ़र्क नहीं है तो यह दान. . .कन्यादान का क्या मतलब? लड़की क्या कोई गाय-भैंस है जो दान की जाए? लड़की का अपने माँ-बाप का घर छोड़ कर ससुराल जाना, सब पुरानी रस्में हैं। यह नए युग के साथ मेल नहीं खातीं, इन्हें छोड़ा जाना चाहिए।''

इसके अलावा उसका ह्यूमर विजया को इतना हँसा रहा था कि उसे लगा कि विजया उसके काफ़ी नज़दीक आ चुकी है और कि अब वह किसी आधार पर उसे मना नहीं कर सकती। एक शाम जब वह विजया को अपनी कार में उसके घर के आगे उतार रहा था, उसने उस से आश्वस्ति भरे अंदाज़ में कहा, "तो. . .इस दोस्ती को कोई ठोस शक्ल कब दी जाए?"
विजया कुछ देर चुप रही, फिर संजीदा हो गई। बोली, "सुनो, क्या हम दोस्त नहीं रह सकते?"
फिर वही वाक्य ! इस बार उसे इस वाक्य की बिलकुल उम्मीद नहीं थी। वह अपना धीरज खो बैठा। उसे समझ नहीं आया कि क्या जवाब दे। उसने यह तक पूछना ज़रूरी नहीं समझा कि तुम मेरा प्रस्ताव क्यों ठुकरा रही हो। कार के स्टीयरिंग पर उसकी उँगलियाँ द्रुत लय में चलने लगीं। वह आवेश में बोला, "ओके, ओके। लैट अस बी फ़्रेंड्स। हम दोस्त बने रहेंगे। अब खुश?"
जय ने यह बात भले ही खीज कर कही थी, लेकिन बाद में उसने ऐसी दोस्ती निभाई कि वह विजया का सच्चा दोस्त, हमदर्द, आत्मीय, शुभाकांक्षी तक कहा जाने लगा। विजया को अपने काम पर सहकर्मियों के साथ या अपने घर पर माँ-बाप, भाई-बहनों के साथ, उनके अलावा अपनी सहेलियों के साथ अगर किसी प्रकार की कोई भी दिक्कत पेश आती तो वह उसी का ही नंबर घुमाती। लोग यह तक कहने लगे कि वह विजया का 'सोल-मेट' यानी अनुपूरक है, और अगर किसी को विजया से बात करनी है तो उस समीकरण में जय को भी रखा जाना होगा। यहाँ तक कि जय के अपने मित्र, जिन्हें लगता था कि विजया अच्छी जीवन संगिनी बन सकती है, पहले उसी से संपर्क करने लगे। इसे जीवन की विडंबना कहिए या दोस्ती का तकाज़ा कि जय अपने कई एक मित्रों के पैग़ाम तक विजया तक पहुँचाने लगा और भावी उम्मीदवारों के साथ उसकी मुलाक़ातें तय कराने लगा।

इस तरह की तीन चार मुलाक़ातों के बाद भी जब किसी मुलाक़ात का कोई अनुकूल परिणाम न निकला, तो जय को क्रोध आ गया कि यह लड़की अपने को समझती क्या है?
एक से एक होशियार, सुंदर नैन-नक्शवाले, ऊँचे-लंबे डील-डौल, सुदर्शन व्यक्तित्व वाले लड़कों से मिलवा चुका हूँ और यह सभी को इंकार करती जा रही है। उसने विजया को फ़ोन किया और कहा, "शाम को काम के बाद 'स्टार बक' में मिलो।"
विजया आई। दोनों कॉफ़ी लेकर एक अलग मेज़ पर बैठ गए। उसने पूछा, "यह क्या है? हर किसी को ठुकराती जा रही हो। जान सकता हूँ क्यों?"
विजया ने दायें देखा फिर बायें। फिर उसे निहारती-सी नज़रे कॉफ़ी के गिलास पर गड़ा दीं।
वह अधिकारभरे स्वर में बोला, "मैं कुछ पूछ रहा हूँ?"
विजया ने नज़र भर कर उसकी ओर देखा।
"मुझॆ वह ठीक नहीं लगे" कह कर विजया ने फिर नज़रें झुका लीं। किसी लड़की के चेहरे पर उस तरह के भाव उससे पहले उसने फ़िल्मों मे ही देखे थे। ज़िंदा लड़की के चेहरे पर उन्हें पहचानने में उसे देर न लगी। उसके मुँह से निकला, "ओह!. . .तो. . ."

दो दिन मानों जय किसी नशे में घूमता फिरा। कभी अपने फ्लैट की बालकनी में आकर खड़ा हो जाता, कभी लिविंग रूम से सोफ़े पर आकर बैठ जाता, कभी फ्रीज का दरवाज़ा खोलता, कुछ देखता, फिर बंद कर देता। प्यार का वैसा अहसास उसे इससे पहले कभी नहीं हुआ था। कभी कार उठाता और किसी मॉल में जाकर दूकानों में सजा सामान देखने लगता। किसी सोफे, अलमारी के दाम पूछता, फिर यह सोच कर आगे बढ़ जाता कि विजया की सलाह से ख़रीदेगा। एक ही चीज़ थी जो वह विजया से पूछे बग़ैर ख़रीद सकता था। वह थी अंगूठी। वह एक ज्वेलर-शॉप में घुस गया। तरह-तरह की अंगूठियाँ देखने के बाद उसने हीरे की एक अंगूठी ख़रीदी और अगले ही दिन विजया को पहना दी। उसी सप्ताह शादी की तारीख़ तय कर ली। शादी कब, कहाँ हो, खाना किस से केटर करवाया जाए आदि सब छोटे-बड़े मामले दोनों ने मिलकर तय किए। उसके माँ-बाप ने अगर किसी बात को लेकर आपत्ति की तो उसने विजया की तरफ़ से मोर्चा लिया। एक महीने के बाद शादी के दिन वंदनवार और जगमगाती बत्तियों के बीच जय तास्कर और विजया अग्रवाल दोनों के माँ-बाप, भाई-बहन, सगे-संबंधी, दोस्त- अहबाब, सभी ने मिलकर नवविवाहित जोड़ी को विदा किया क्योंकि लड़की ही नहीं लड़का भी विदा किया जा रहा था। वो दोनों लिमोज़ीन में सीधे अपने नए बड़े मकान तक गए, वहीं एक रात बिताने के बाद अगली सुबह हनीमून के लिए रवाना हो गए. . .हवा-ई।
यों तो हवा-ई समुद्र क्षेत्र में मणि-मनकों से हज़ारों द्वीप बिखरे हुए हैं, लेकिन उन में केवल छह द्वीप ऐसे हैं जहाँ पर्यटक सैर-सपाटे के लिए जाते हैं। जय की दिलचस्पी 'बिग आइलैंड' नामक मुख्य द्वीप में जाने की अधिक थी, क्योंकि वहाँ खगोल-विज्ञान की बहुत बड़ी प्रयोगशाला है। वह खगोल-विज्ञानी होने के कारण उसे देखना चाहता था। पर विजया ने कहा, "हम हनीमून के लिए जा रहे हैं, उसके लिए सबसे बेस्ट है मओवी।" मओवी के बारे में उन दोनों ने सुन रखा था कि वह सारे द्वीपों में सबसे बढ़िया है, प्रेमियों के लिए तो आदर्श, मानों प्रकृति ने वह द्वीप बनाया ही प्रेमियों के लिए हो। जय ने कहा, ''एग्रीड, रहेंगे मओवी में, एक प्रयोगशाला वहाँ भी तो है।''
मीलों तक फैले समुद्री-तट में उन्हें एक किनारे रहने के लिए 'रिज़ोर्ट' भी मिल गया था। वे सुबह-सवेरे ही अपने-अपने स्विमिंग-सूट पहन कर रिज़ोर्ट से निकल आते, और समुद्र के किनारे बैठ कर समुद्री-क्रीड़ाएँ करनेवालों का नज़ारा लेते।
जय बोला, "कहते हैं इन लहरों पर जब दो जन साथ-साथ 'विंड-सर्फिंग' करते हैं, तो फिर उन दोनों को कोई अलग नहीं कर सकता।"
विजया बोली, "तो आओ, चलो करें।"

दोनों ने विंड-सर्फ़िग सिखानेवालों से संपर्क किया, दो पाल-बोर्ड लिए, विंड-सर्फिंग करने के लिए अन्य पहनावे से सज्जित, हवा में अपने-अपने पालों को नियंत्रित करते हुए, समुद्री लहरों पर सैर करने लगे। कभी-कभी वे एक-दूसरे से दूर भी भटक जाते, लेकिन फिर पास भी आ जाते। विजया की रुचि 'सर्फिंग' में भी होने लगी। सर्फिंग' में बिना पाल के बोर्ड पर पैरों को बाँध कर समुद्री-तरंगों की ताक़त और प्रवाह का अंदाज़ा लगाते हुए उन पर चढ़ा और कूदा जाता है। जय ने कहा, "अगली बार विजया- ऐसा न हो कि जोश-जोश में हाथ-पाँव तुड़ा बैठें, और अगली बार ही न आए। ऐक्साइटमेंट उतनी ही अच्छी जिसमें हाथ-पैर सुरक्षित रहें।"
अगले दिन पर्यटकों की एक टोली के साथ वे दोनों भी बस में हालियाकाला राष्ट्रीय उद्यान से होते हुए ज्वालामुखी पर्वत देखने निकल पड़े। दस हज़ार फुट ऊपर पहाड़ की चोटी पर ज्वालामुखी का मुख, उसका बीस मील का घेरा, जिसमें पूरा मेंनहैटन समा जाए। कहीं-कहीं तो उसका रिम ढाई हज़ार फुट ऊँचा उठ आया था। ज्वालामुखी के ऊपर तिरते बादलों के झुंड। एक छोर पर तो बादल इतने नीचे थे कि लगता जैसे ज्वालामुखी को सहला रहे हों।
मंद ब्यार का आनंद लेते हुए जय-विजया ने दूसरे छोर पर नीचे बादलों में अपनी विशाल हो आई परछाइयाँ देखीं, उसके बाद जो क्रेटर के चंद्रमा-सरीखे तल को देखा तो देखते ही रह गए। अन्य पर्यटक आगे निकल गए, तो वो सहसा चौंके, फिर क्रेटर की घुमावदार पगडंडियों और जले कोयले के पहाड़ों के बीच से बचते-बचाते, क्रेटर की ऊँची उठती दीवारों की तरफ़ देखते हुए नीचे उतर गए। क्रेटर के तल में जंगल, रेगिस्तान, चरागाह, झील, सभी कुछ। विजया बोली, "यहाँ एक कॉटेज है, सुना है लॉट्री पड़ती है, जिसकी निकलती है वह फिर शायद एकाध दिन वहाँ रह सकता है।" जय बोला, "ज्वालामुखी ऊँघ रहा है।"
मओवी द्वीप रोज़-रोज़ उन्हें नए से नए अनुभव दे रहा था। तट पर लहरों का धड़ाम से सिर टकराना, लौट जाना। विशाल काय व्हेल का. . .मानो एक पहाड़ का समुद्र से अचानक उछलना, फिर उसी में लुप्त हो जाना। स्वच्छ पारदर्शी नीले जल में समुद्री कछुओं के साथ-साथ मछली की तरह तैरते तैराकों को देखना। कहीं खिली धूप, कहीं रिमझिम, कहीं मूसलाधार वर्षा। कहीं बादलों का सड़क पर उतर आना। कहीं ज्वालामुखियों से बिना विस्फोट के गैसों और अन्य द्रव्यों का निकलना, और कहीं लावा का निकलते रहना। जमें लावा के तट। कहीं पहाड़ों के बाज़ुओं में गहरी सब्ज़ घाटियाँ, उनमें सूर्योदय और सूर्यास्त देखना। वाहन में पहाड़ की चोटी तक के नयनाभिराम सफ़र, और फिर तीन-चार मील की ऊँचाई से पहाड़ की ढलान से साइकलों पर नीचे उतरना। चट्टानों पर बने हाई-वे। हाई-वे के एक ओर झरनों का गर्जन और दूसरी ओर रेगिस्तानी सन्नाटा। कहीं आम और अमरूद के पेड़। कहीं ऊँचे-ऊँचे घने वृक्षों की ओट में अचानक किसी झरने का प्रकट हो जाना। कहीं किसी निर्जन स्थल पर सिर्फ़ चिड़ियों की चहचहाहट। सभी कुछ उन्हें मओवीमय किए दे रहा था। वे बार-बार एक दूसरे से प्यार करने लगते।
दो-तीन दिन वे अन्य द्वीप देखने के लिए भी निकल गए। अंतिम दिन बिग आइलैंड से वापसी की उड़ान लेने से पूर्व जय ने एकाएक विजया को बाहों में लेते हुए कहा, "एक बात बताओ, तुमने मुझ में क्या देखा था जो आख़िर में शादी करने के लिए राज़ी हो गई?"
विजया बोली, "ऐसा कुछ ख़ास नहीं।"
"तो भी. . .?"
विजया कुछ देर चुप रही, फिर शरारती अंदाज़ में बोली, "तुम्हारा कद।"
वह बोला, "मज़ाक नहीं, सच-सच बताओ।"
" मोटी-मोटी दो तीन बातें देखी थीं। कि तुम ठीक-ठीक कमाते हो, सेहत भी ठीक है, चरित्र भी ठीक है, ज़िंदगी ठीक-ठाक कट जाएगी।"
"बस।"
" हाँ एक बात और। तुम्हारा कद।"
फिर वह हँस पड़ी। जय ने कहा, " बी सीरियस।"
विजय ने पूरी संजीदगी से कहा, "हाँ, तुम्हारा कद। मेरे लिए आदर्श।" उसने विजय को चूम लिया।

लेकिन जैसा कि अधिकतर शादियों में देखा गया है उन का हनीमून-पीरियड बहुत दिन तक नहीं चला। मओवी का असर कुछ महीने तो रहा, फिर हल्का पड़ने लगा। जय को लगा कि उन दोनों के प्यार में जवानी के उबाल-उछाल की जगह परिपक्वता ने ले ली है, उसमें बचपना कम, गांभीर्य अधिक आ गया है, शांत समुद्र में विंड-सर्फ़िग करने की तरह। दोनों हवा के बहाव में कुछ देर के लिए एक दूसरे से दूर भले ही चले जाते हैं, लेकिन फिर पास भी आ जाते हैं। उनमें से कोई भी अगर बहुत दूर निकल जाए तो दूसरा ज़ोर से आवाज़ देकर बुला लेता है कि इतनी दूर मत जाओ।
एक दिन जब वह काम से लौटा तो उसने पाया कि विजया रसोई की दीवार से लगे टेलीफ़ोन की तार खींच कर लिविंगरूम तक ले गई है और रिसीवर मुँह से लगाए किसी से बातें कर रही हैं। अपनी माँ से बात कर रही होगी, उसने सोचा, और उनसे मिलने जाने का प्रोग्राम बना रही होगी। उसे यह बात कभी समझ नहीं आई कि ऐसा क्यों होता है कि लड़कियाँ शादी से पहले तो अपने माँ-बाप के घर से बाहर निकलना चाहती है, शादी हो जाने के बाद मायके जाने की रट लगाने लगती हैं। वह अपना हैंड बैग लेकर बैसमेंट में गया जहाँ उसने अपना अध्ययन कक्ष बना रखा था। हैंड बैग रख कर जब चार-पाँच मिनट बाद वह ऊपर आया तब भी विजया टेलीफ़ोन पर व्यस्त थी और टेलीफ़ोन की उलझी तार के गुंजल सुलझा रही थी। विजया ने उसे देखा और रिसीवर टेलीफ़ोन पर टाँग कर चाय बनाते हुए उससे मुख़ातिब हुई, ''हाय।''
जय बोला, "मम्मी से बात हो रही थी?"
"नहीं, मैं कॉन्फ्रेंस कॉल पर थी।"
"कॉन्फ्रेंस कॉल?"
"हाँ, रीटा, आशा, लिज़ और हम कुछ महिलायें कल 'गर्ल्ज़ नाइट' पर जा रहे हैं।"

उसका माथा ठनका। यानी 'गर्ल्ज़ नाइट आउट'। मतलब अपने-अपने बच्चों को अपने पतियों के सुपुर्द कर महिलाओं द्वारा किसी रेस्त्रां में आयोजित गप्प-गोष्ठी। जय को लगता था कि अमेरिका में पारिवारिक जीवन की यदि कोई चीज़ सबसे बड़ी दुश्मन है तो वह है 'गर्ल्ज़ नाइट आउट'। इन गोष्ठियों में, कहने को तो महिलायें चूल्हे-चौके और घर-गृहस्थी के बंद माहौल से निकल कर कुछ देर के लिए ताज़ा हवा खाने के लिए मिलती हैं, लेकिन उसे लगता, वे बैठ कर अपने-अपने पतियों और सास-ननदों के दुखड़े अधिक रोती हैं। और रीटा, आशा, इज़ाबेल के साथ महिला-गोष्ठी! बाप रे। रीटा अपने पति और छोटे-छोटे बच्चों को छोड़ कर एक बार घर से भाग गई थी, आशा के दो बेटे थे, उसका गोरा अमेरीकी पति उसे तलाक़ दे गया था, वह किसी पुरुष को डेट कर रही थी और लिज़ ने विवाह नहीं किया था। लोगों का ख़याल था कि वह समलिंगकामी है। जय को लगा कि विजया विंड-सर्फिंग करते हुए कुछ दूर निकल गई है।
विजया ने उसके सामने चाय का प्याला ला कर रखा।
जय बोला, "मेरे ख़याल से तुम्हें गर्ल्ज़ नाइट पर नहीं जाना चाहिए।"
"क्यों?"
"तुम्हारे लिए यह ठीक नहीं है।"
"क्यों?"
"तुम जानती हो वे सब किस तरह की महिलाएँ हैं।"
"लेकिन वे मेरी सहेलियाँ हैं।"
"यही तो समस्या है।"
"क्या ख़राबी है उनमें?"
तुम्हें नज़र नहीं आती क्या?"
जय आगे बोला, "हम शादी-शुदा हैं। हमें ऐसे लोगों को दोस्त बनाना चाहिए जो घर-गृहस्थी की अहमियत समझते हों, शालीन-सुसंस्कृत हों।"
कुछ देर खामोशी रही।
जय बोला, "हमने 'फ़ैमिली प्लैन' करनी है। हमें अपने आचरण के बारे में सावधान रहना चाहिए। अगर ऐसे लोगों के बीच उठे-बैठेंगे तो हम अपने बच्चों को क्या वेल्यूज़ देंगे।"
विजया उसे देखती रही। फिर उठी और चली गई। चाय के प्यालों में पड़ी चाय बिन पिये ठंडी हो गई।

उस रात और अगले दिन सुबह भी दोनों के बीच कोई बात नहीं हुई। हाँ, विजया ने सुबह उसे चाय का प्याला ज़रूर ला कर दिया और स्कूल जाने से पहले उस का नाश्ता भी तैयार कर के मेज़ पर रख दिया। जाते-जाते कह गई, ''मैं शाम को देर से आऊँगी।''
जय उस वक्त पहली मंज़िल पर अपने बेडरूम से तैयार होकर नीचे उतर रहा था। "मैं शाम को देर से आऊँगी।" जय को यकीन नहीं आया कि उसने यही वाक्य सुना है।
- तो वह शाम को गर्लज़ नाइट पर जा रही है। वह नहीं चाहता फिर भी। गर्लज़ नाइट आउट ! यह गर्लज़, यानी लड़कियाँ, कैसे हो गईं! इज़ाबल, आशा, रीटा और बाकी दूसरी भी. . .दो-दो बच्चों की माएँ. . .तलाकशुदा. . .हट्टी-कट्टी औरतें. . .यह लड़कियाँ कैसे हो गईं? अमेरिकी समाज की एक तो ये ही मुश्किल है औरतों को गर्लज़ कहेंगे, और बच्चियों को 'यंग लेडी'। शब्दों के अर्थ ही बदल दिए हैं।
दिनभर वह ऑफ़िस में कंप्यूटर काम करते हुए भी इसी विषय पर सोचता रहा। उसे ग्लानि हुई कि वह महिलाओं के लिए उसे 'हट्टी-कट्टी औरतें' जैसे कड़वाहटभरे अपशब्द इस्तेमाल नहीं करने चाहिए। तब वह सारी बात को विजया की नज़र से सोचने लगा।

शायद विजया को सहेलियों की ज़रूरत महसूस होती है। विजया भी अन्य औरतों की तरह किसी से बात करना चाहती है। यह स्वाभाविक है। भले ही वह उसका पति है, इसका मतलब यह तो नहीं कि वह उसे दूसरों से बात न करने दे। अभी कल ही की बात है माँ बता रही थी कि उनके ज़माने में मोहल्ले की औरतें अपने-अपने पतियों को काम के लिए विदा कर घरों के सामने के खुले मैदान में चारपाइयाँ डाल सर्दियों में धूप सेका करतीं थीं, शाम ढलने तक दुनिया-जहान की बातें होतीं थीं। जब कोई अपने पति को लौटे देखती, तभी कहती, "अच्छा बहन मैं चलूँ, मेरे 'वह' आ गए।"
वक्त बदल गया है। वैसे आस-पड़ोस नहीं रहे। औरतें दिनभर काम पर जाती हैं, शाम को घर-गृहस्थी। उन्हें गर्लज़ नाइट आउट की ज़रूरत है। प्रश्न यह है कि 'गर्लज़ नाइट आउट' वह किन के साथ कर रही है।

शाम को जब जय लौटा, विजया घर पर नहीं थी। उसने दिन में उसे फ़ोन किया था। वह मिली नहीं थी। उसने उसके मोबाइल पर संदेश छोड़ा था कि शाम को घर पर वह उसकी प्रतीक्षा करेगा। विजया इसके बावजूद चली गई थी इसका उसे दुख था। वह रीटा के बारे में सोचने लगा पति से उसे शिकायतें हो सकती हैं, कि उसने उसकी बेक़द्री की, लेकिन छोटे-छोटे बच्चों को छोड़ कर किसी दूसरे के साथ भाग जाना, यह बात समझ नहीं आती और आशा! जैसा खुले गले का ब्लाउज़ वह पहनती है, आप नहीं चाहते कि आपको कोई उसके साथ बैठा देख लें और लिज़, लैस्बियन। साफ़ मतलब है कि वह मर्दों से नफ़रत करती है। क्या समागम है। नहीं, यह विजया के लिए ठीक नहीं है।
वह विजया का शुभचिंतक था। वह विजया को किस तरह समझाए उसे समझ नहीं आ रहा था। कभी लगता उसे अल्टीमेटम दे दे, एक तरफ़ मैं हूँ, दूसरी तरफ़ तुम्हारी सहेलियाँ। या मुझे चुन लो या उन्हें। वह सोचता अगर विजया ने उन्हें चुन लिया तो? क्या वह विजया को बुरी सोहबत में जाने दें? नहीं, वह ऐसा नहीं कर सकता। बिल आख़िर उसकी पत्नी है। वह विजया से प्यार करता था और उसे किसी भी सूरत से खोना नहीं चाहता था।
रात को विजया लौटी तो उसने उसे कुछ नहीं कहा। इस तरह पेश आया जैसे कुछ हुआ ही नहीं था। हँस-हँस के बातें करता रहा। जैसी उसकी आदत थी पुराने वक्तों की याद ताज़ा करते हुए उसने दो-चार पुराने मज़ाक तक सुना दिए। मोवी में बिताए हनीमून के दिनों की बात छेड़ी। वह हनीमून के दिनों की एलबम उठा लाया। दो ज्वालामुखियों के टकराव से बना मोवी द्वीप। अब प्रसुप्त। कितना सुंदर। कितने-कितने मौसम। हनीमून के दो सप्ताह में जैसी-जैसी चढ़ाइयाँ-उतराइयाँ महसूस कीं, उसके आगे विजया के साथ यह छोटा-सा तनाव क्या है।
रात को सोने के लिए जब बिस्तर पर लेटा तो बोला, ''माँ कह रहीं थीं, अब घर में - पोता या पोती - किसी को आना चाहिए।'' विजया बोली, "समझ गई, तुम मुझे घर में बाँधने की तरक़ीबें सोच रहे हो।"
यह बात किसी हद तक सच भी थी। उसका ख़याल था कि घर में अगर आज बच्चे होते तो विजया का दिमाग़ 'गर्ल्ज़ नाइट' जैसी खुराफ़ात की तरफ़ न जाता। लेकिन घर में बच्चों का होना क्या औरत को घर से बाँधने की मर्दों की कोई चतुर युक्ति है? कैसी ऊल-जलूल सोच। यह हो न हो, 'गर्ल्ज़ नाइट' में रीटा या आशा या लिज़ की संगत का ही नतीजा है। उसने उस रात पत्नी से प्रेम करने का विचार दिमाग़ से निकाल दिया।

अगले दिन विजया ने उसे बताया कि 'गर्ल्ज़ नाइट' महिलाओं का अपनी समस्याएँ एक दूसरे से बाँटने, मन हल्का करने का मौका देती है, और कि सभी सहेलियों ने मिलकर योजना बनाई है कि हमें सप्ताह में एक बार, हो सके तो हर शुक्रवार को, 'गर्ल्ज़ नाइट' ज़रूर करनी चाहिए।
जय विजया को देखता रह गया। आँखें फटी की फटी। बोला, "क्या? नो वे।"
"मैं उन्हें नहीं छोड़ सकती।"
"एक तरफ़ मैं हूँ, दूसरी तरफ़ वे, तो भी नहीं।"
"नहीं, तो भी नहीं। वह हमारा सपोर्ट-सिस्टम है।"
"तुम जानती हो, क्या कह रही हो?"
"हाँ, उन औरतों को हमदर्दी चाहिए, नफ़रत नहीं।"
"हमदर्दी! रीटा घर से भाग गई थी।"
"हाँ, क्या करती, सुनील उसे पैर की जूती समझता था।"
" बच्चों को छोड़ गई।"
" वह इतना आसान नहीं होता।"
"आशा! पैंतालीस की होगी, डेट कर रही है।"
"वह महीनों इंतज़ार करती रही कि पति लौट आएगा।. . .उसने बच्चों को किस तरह अकेले पाला, वह तुम्हें नज़र नहीं आया ! अब वह बड़े हो गए हैं, उनकी अपनी दुनिया बन रही है. . .। उसे साथी चाहिए. . .।"
"कैसा ब्लाउज़ पहनती है. . .इतना लो-कट, इतने खुले गले का कि. . ."
"गले के नीचे नहीं. . .ऊपर देखा करो. . .इतना उदास चेहरा। ठुकराये जाने का भाव जैसे चेहरे पर जम कर रह गया है। मन से इतनी भोली है. . ."
"और वह लिज़!"
"हाँ, हाँ लेसबियन है, पर है तो इंसान। दर्दमंद साथी. . .वह होना ज़्यादा बड़ी बात है।"
कुछ देर दोनों खामोश रहे। फिर विजया बोली, "वहाँ और औरतें भी तो होंगी।"
"पर यह तीन क्यों. . .? जो भी है यह ग़लत है। मैं इस तरह की वैल्यूज़ का सहभागी नहीं हो सकता।"
"तुम मर्दों की यह बात समझ नहीं आती। किसी औरत से जीवन में अगर कोई ग़लती हो जाए तो तुम उसे बहिष्कृत ही कर देना चाहते हो।"
"चाँद पर पहुँचना है तो अंतरिक्ष यान के सब कलपुर्जे परफ़ैक्ट होने चाहिए।"
" मुझे कमज़ोर और पिछड़े लोगो को पीछे छोड़ना इंसानियत नहीं लगती।"
"यह सब बड़ी-बड़ी बातें हैं, इनका ज़िंदगी से कोई ताल्लुक नहीं है।"
"मैं ज़मीन पर रहती हूँ।''

जय अभी भी नहीं हारा। वह सोचने लगा कि अगर विजया शुक्रवार के शुक्रवार 'गर्ल्ज़ नाइट' में जाती रही तो उसका कुप्रभाव पड़ कर रहेगा। मुमकिन है कि एक दिन वह उसे भी छोड़ दे। उसने देखा था कि समाज में तलाक़ काफ़ी आम हो रहे हैं। उसे लगा कि विजया को इस राह पर भटकने से रोका ही जाना होगा। वह सोचने लगा कि उसने पिछले दो साल में कब, कहाँ, क्या ग़लती कर दी कि विजया उससे दूर भटकती चली गई? एक समय था जब विजया को कोई परेशानी होती थी तो उसी से आकर बात करती थी। वह उसका सोल-मेट कहलाता था। कितनों को ठुकरा कर विजया ने उसे अपने लिए चुना था। ज़रूर मित्रता निभाने में उससे कहीं कोई लापरवाही हो गई जो कि आज उसे यह दिन देखना पड़ रहा है। उसे उस मित्र-भाव को फिर से जिलाना होगा।
वह एक दिन उसके लिए एक उपहार ले आया। हीरों जड़ा हार। दूसरे दिन घर के पीछे के डेक के लिए पैटिओ फ़र्नीचर ले आया। बोला, "हर वीकएंड मेज़ के छाते के नीचे कुर्सियाँ डाल कर बैठा जाए, क्या ख़याल है। घर में बैठे-बैठे ही घर के पीछे कुछ दूर ऊँचे झूमते घने पेड़ों के साथ झूमा जाए। और अक्तूबर-नवंबर के महीने! शरद ऋतु के दिन! न सर्दी न गर्मी। सुहावनी हवा। पेड़ों का क्या नज़ारा होगा जब उनके पत्ते लाल, नारंगी, संतरी, पीले, भूरे, रंग बदल रहे होंगे। क्यों?"
उस दिन शुक्रवार था। उस दिन राधा को 'गर्ल्ज़ नाइट आउट' के लिए जाना था। सुबह का समय था। दोनों अपने-अपने काम पर जाने के लिए तैयार हो रहे थे। ड्रेसिंग टेबल के शीशे में दोनों की नज़रें मिलीं। जय ने कहा, ''मैं तुम्हारे साथ अधिक समय बिताना चाहता हूँ।'' विजया चुप रही। वह आगे बोला, "क्या हम पहले की तरह दोस्त नहीं बन सकते?"
विजया ने शीशे में ही देखते हुए कहा, ''तुम्हें मालूम है कि जब तुम दोस्त थे तुम्हारी किस बात ने मुझे तुम्हारी तरफ़ सबसे अधिक आकर्षित किया था? तुम इतने पोज़ैसिव नहीं थे जितने अब हो रहे हो। तुमने जितने भी लड़कों से मिलवाया था, वे अधिक हैंडसम तो थे, देखने मे बलिष्ठ और ऊँचे-लंबे भी। लेकिन वे मेरी ज़िंदगी का रिमोट अपने हाथ में रखना चाहते थे। मेरी 'मूवमेंट्स' को 'मैनेज' करना चाहते थे। कोई भी मुझे मेरी आज़ादी देने के लिए तैयार न था। तुम मुझे अधिक संवेदनशील और उदार जान पड़े थे। उनकी तुलना में कहीं अधिक कद्दावर इंसान। मुझे मेरी आज़ादी देते थे। सोचने की वह आज़ादी अब भी दे पाओगे?''

जय बालों में कंघा कर चुका था। फिर भी शीशे में देखते हुए अपने बालों को कंघे से सँवारता जा रहा था, और शीशे में ही विजया को कमरे से बाहर जाते देखता रहा. . .कहीं बाँस के जंगल।उनमें सूर्योदय और सूर्यास्त देखना। वाहन में पहाड़ की चोटी तक के नयनाभिराम सफ़र, और फिर तीन-चार मील की ऊँचाई से पहाड़ की ढलान से साइकलों पर नीचे उतरना। चट्टानों पर बने हाई-वे। हाई-वे के एक ओर झरनों का गर्जन और दूसरी ओर रेगिस्तानी सन्नाटा। कहीं आम और अमरूद के पेड़। कहीं ऊँचे-ऊँचे घने वृक्षों की ओट में अचानक किसी झरने का प्रकट हो जाना। कहीं किसी निर्जन स्थल पर सिर्फ़ चिड़ियों की चहचहाहट। सभी कुछ उन्हें मओवीमय किए दे रहा था। वे बार-बार एक दूसरे से प्यार करने लगते।
दो-तीन दिन वे अन्य द्वीप देखने के लिए भी निकल गए। अंतिम दिन बिग आइलैंड से वापसी की उड़ान लेने से पूर्व जय ने एकाएक विजया को बाहों में लेते हुए कहा, "एक बात बताओ, तुमने मुझ में क्या देखा था जो आख़िर में शादी करने के लिए राज़ी हो गई?"
विजया बोली, "ऐसा कुछ ख़ास नहीं।"
"तो भी. . .?"
विजया कुछ देर चुप रही, फिर शरारती अंदाज़ में बोली, "तुम्हारा कद।"
वह बोला, "मज़ाक नहीं, सच-सच बताओ।"
" मोटी-मोटी दो तीन बातें देखी थीं। कि तुम ठीक-ठीक कमाते हो, सेहत भी ठीक है, चरित्र भी ठीक है, ज़िंदगी ठीक-ठाक कट जाएगी।"
"बस।"
" हाँ एक बात और। तुम्हारा कद।"
फिर वह हँस पड़ी। जय ने कहा, " बी सीरियस।"
विजय ने पूरी संजीदगी से कहा, "हाँ, तुम्हारा कद। मेरे लिए आदर्श।" उसने विजय को चूम लिया।

लेकिन जैसा कि अधिकतर शादियों में देखा गया है उन का हनीमून-पीरियड बहुत दिन तक नहीं चला। मओवी का असर कुछ महीने तो रहा, फिर हल्का पड़ने लगा। जय को लगा कि उन दोनों के प्यार में जवानी के उबाल-उछाल की जगह परिपक्वता ने ले ली है, उसमें बचपना कम, गांभीर्य अधिक आ गया है, शांत समुद्र में विंड-सर्फ़िग करने की तरह। दोनों हवा के बहाव में कुछ देर के लिए एक दूसरे से दूर भले ही चले जाते हैं, लेकिन फिर पास भी आ जाते हैं। उनमें से कोई भी अगर बहुत दूर निकल जाए तो दूसरा ज़ोर से आवाज़ देकर बुला लेता है कि इतनी दूर मत जाओ।
एक दिन जब वह काम से लौटा तो उसने पाया कि विजया रसोई की दीवार से लगे टेलीफ़ोन की तार खींच कर लिविंगरूम तक ले गई है और रिसीवर मुँह से लगाए किसी से बातें कर रही हैं। अपनी माँ से बात कर रही होगी, उसने सोचा, और उनसे मिलने जाने का प्रोग्राम बना रही होगी। उसे यह बात कभी समझ नहीं आई कि ऐसा क्यों होता है कि लड़कियाँ शादी से पहले तो अपने माँ-बाप के घर से बाहर निकलना चाहती है, शादी हो जाने के बाद मायके जाने की रट लगाने लगती हैं। वह अपना हैंड बैग लेकर बैसमेंट में गया जहाँ उसने अपना अध्ययन कक्ष बना रखा था। हैंड बैग रख कर जब चार-पाँच मिनट बाद वह ऊपर आया तब भी विजया टेलीफ़ोन पर व्यस्त थी और टेलीफ़ोन की उलझी तार के गुंजल सुलझा रही थी। विजया ने उसे देखा और रिसीवर टेलीफ़ोन पर टाँग कर चाय बनाते हुए उससे मुख़ातिब हुई, ''हाय।''
जय बोला, "मम्मी से बात हो रही थी?"
"नहीं, मैं कॉन्फ्रेंस कॉल पर थी।"
"कॉन्फ्रेंस कॉल?"
"हाँ, रीटा, आशा, लिज़ और हम कुछ महिलायें कल 'गर्ल्ज़ नाइट' पर जा रहे हैं।"

उसका माथा ठनका। यानी 'गर्ल्ज़ नाइट आउट'। मतलब अपने-अपने बच्चों को अपने पतियों के सुपुर्द कर महिलाओं द्वारा किसी रेस्त्रां में आयोजित गप्प-गोष्ठी। जय को लगता था कि अमेरिका में पारिवारिक जीवन की यदि कोई चीज़ सबसे बड़ी दुश्मन है तो वह है 'गर्ल्ज़ नाइट आउट'। इन गोष्ठियों में, कहने को तो महिलायें चूल्हे-चौके और घर-गृहस्थी के बंद माहौल से निकल कर कुछ देर के लिए ताज़ा हवा खाने के लिए मिलती हैं, लेकिन उसे लगता, वे बैठ कर अपने-अपने पतियों और सास-ननदों के दुखड़े अधिक रोती हैं। और रीटा, आशा, इज़ाबेल के साथ महिला-गोष्ठी! बाप रे। रीटा अपने पति और छोटे-छोटे बच्चों को छोड़ कर एक बार घर से भाग गई थी, आशा के दो बेटे थे, उसका गोरा अमेरीकी पति उसे तलाक़ दे गया था, वह किसी पुरुष को डेट कर रही थी और लिज़ ने विवाह नहीं किया था। लोगों का ख़याल था कि वह समलिंगकामी है। जय को लगा कि विजया विंड-सर्फिंग करते हुए कुछ दूर निकल गई है।
विजया ने उसके सामने चाय का प्याला ला कर रखा।
जय बोला, "मेरे ख़याल से तुम्हें गर्ल्ज़ नाइट पर नहीं जाना चाहिए।"
"क्यों?"
"तुम्हारे लिए यह ठीक नहीं है।"
"क्यों?"
"तुम जानती हो वे सब किस तरह की महिलाएँ हैं।"
"लेकिन वे मेरी सहेलियाँ हैं।"
"यही तो समस्या है।"
"क्या ख़राबी है उनमें?"
तुम्हें नज़र नहीं आती क्या?"
जय आगे बोला, "हम शादी-शुदा हैं। हमें ऐसे लोगों को दोस्त बनाना चाहिए जो घर-गृहस्थी की अहमियत समझते हों, शालीन-सुसंस्कृत हों।"
कुछ देर खामोशी रही।
जय बोला, "हमने 'फ़ैमिली प्लैन' करनी है। हमें अपने आचरण के बारे में सावधान रहना चाहिए। अगर ऐसे लोगों के बीच उठे-बैठेंगे तो हम अपने बच्चों को क्या वेल्यूज़ देंगे।"
विजया उसे देखती रही। फिर उठी और चली गई। चाय के प्यालों में पड़ी चाय बिन पिये ठंडी हो गई।

उस रात और अगले दिन सुबह भी दोनों के बीच कोई बात नहीं हुई। हाँ, विजया ने सुबह उसे चाय का प्याला ज़रूर ला कर दिया और स्कूल जाने से पहले उस का नाश्ता भी तैयार कर के मेज़ पर रख दिया। जाते-जाते कह गई, ''मैं शाम को देर से आऊँगी।''
जय उस वक्त पहली मंज़िल पर अपने बेडरूम से तैयार होकर नीचे उतर रहा था। "मैं शाम को देर से आऊँगी।" जय को यकीन नहीं आया कि उसने यही वाक्य सुना है।
- तो वह शाम को गर्लज़ नाइट पर जा रही है। वह नहीं चाहता फिर भी। गर्लज़ नाइट आउट ! यह गर्लज़, यानी लड़कियाँ, कैसे हो गईं! इज़ाबल, आशा, रीटा और बाकी दूसरी भी. . .दो-दो बच्चों की माएँ. . .तलाकशुदा. . .हट्टी-कट्टी औरतें. . .यह लड़कियाँ कैसे हो गईं? अमेरिकी समाज की एक तो ये ही मुश्किल है औरतों को गर्लज़ कहेंगे, और बच्चियों को 'यंग लेडी'। शब्दों के अर्थ ही बदल दिए हैं।
दिनभर वह ऑफ़िस में कंप्यूटर काम करते हुए भी इसी विषय पर सोचता रहा। उसे ग्लानि हुई कि वह महिलाओं के लिए उसे 'हट्टी-कट्टी औरतें' जैसे कड़वाहटभरे अपशब्द इस्तेमाल नहीं करने चाहिए। तब वह सारी बात को विजया की नज़र से सोचने लगा।

शायद विजया को सहेलियों की ज़रूरत महसूस होती है। विजया भी अन्य औरतों की तरह किसी से बात करना चाहती है। यह स्वाभाविक है। भले ही वह उसका पति है, इसका मतलब यह तो नहीं कि वह उसे दूसरों से बात न करने दे। अभी कल ही की बात है माँ बता रही थी कि उनके ज़माने में मोहल्ले की औरतें अपने-अपने पतियों को काम के लिए विदा कर घरों के सामने के खुले मैदान में चारपाइयाँ डाल सर्दियों में धूप सेका करतीं थीं, शाम ढलने तक दुनिया-जहान की बातें होतीं थीं। जब कोई अपने पति को लौटे देखती, तभी कहती, "अच्छा बहन मैं चलूँ, मेरे 'वह' आ गए।"
वक्त बदल गया है। वैसे आस-पड़ोस नहीं रहे। औरतें दिनभर काम पर जाती हैं, शाम को घर-गृहस्थी। उन्हें गर्लज़ नाइट आउट की ज़रूरत है। प्रश्न यह है कि 'गर्लज़ नाइट आउट' वह किन के साथ कर रही है।

शाम को जब जय लौटा, विजया घर पर नहीं थी। उसने दिन में उसे फ़ोन किया था। वह मिली नहीं थी। उसने उसके मोबाइल पर संदेश छोड़ा था कि शाम को घर पर वह उसकी प्रतीक्षा करेगा। विजया इसके बावजूद चली गई थी इसका उसे दुख था। वह रीटा के बारे में सोचने लगा पति से उसे शिकायतें हो सकती हैं, कि उसने उसकी बेक़द्री की, लेकिन छोटे-छोटे बच्चों को छोड़ कर किसी दूसरे के साथ भाग जाना, यह बात समझ नहीं आती और आशा! जैसा खुले गले का ब्लाउज़ वह पहनती है, आप नहीं चाहते कि आपको कोई उसके साथ बैठा देख लें और लिज़, लैस्बियन। साफ़ मतलब है कि वह मर्दों से नफ़रत करती है। क्या समागम है। नहीं, यह विजया के लिए ठीक नहीं है।
वह विजया का शुभचिंतक था। वह विजया को किस तरह समझाए उसे समझ नहीं आ रहा था। कभी लगता उसे अल्टीमेटम दे दे, एक तरफ़ मैं हूँ, दूसरी तरफ़ तुम्हारी सहेलियाँ। या मुझे चुन लो या उन्हें। वह सोचता अगर विजया ने उन्हें चुन लिया तो? क्या वह विजया को बुरी सोहबत में जाने दें? नहीं, वह ऐसा नहीं कर सकता। बिल आख़िर उसकी पत्नी है। वह विजया से प्यार करता था और उसे किसी भी सूरत से खोना नहीं चाहता था।
रात को विजया लौटी तो उसने उसे कुछ नहीं कहा। इस तरह पेश आया जैसे कुछ हुआ ही नहीं था। हँस-हँस के बातें करता रहा। जैसी उसकी आदत थी पुराने वक्तों की याद ताज़ा करते हुए उसने दो-चार पुराने मज़ाक तक सुना दिए। मोवी में बिताए हनीमून के दिनों की बात छेड़ी। वह हनीमून के दिनों की एलबम उठा लाया। दो ज्वालामुखियों के टकराव से बना मोवी द्वीप। अब प्रसुप्त। कितना सुंदर। कितने-कितने मौसम। हनीमून के दो सप्ताह में जैसी-जैसी चढ़ाइयाँ-उतराइयाँ महसूस कीं, उसके आगे विजया के साथ यह छोटा-सा तनाव क्या है।
रात को सोने के लिए जब बिस्तर पर लेटा तो बोला, ''माँ कह रहीं थीं, अब घर में - पोता या पोती - किसी को आना चाहिए।'' विजया बोली, "समझ गई, तुम मुझे घर में बाँधने की तरक़ीबें सोच रहे हो।"
यह बात किसी हद तक सच भी थी। उसका ख़याल था कि घर में अगर आज बच्चे होते तो विजया का दिमाग़ 'गर्ल्ज़ नाइट' जैसी खुराफ़ात की तरफ़ न जाता। लेकिन घर में बच्चों का होना क्या औरत को घर से बाँधने की मर्दों की कोई चतुर युक्ति है? कैसी ऊल-जलूल सोच। यह हो न हो, 'गर्ल्ज़ नाइट' में रीटा या आशा या लिज़ की संगत का ही नतीजा है। उसने उस रात पत्नी से प्रेम करने का विचार दिमाग़ से निकाल दिया।

अगले दिन विजया ने उसे बताया कि 'गर्ल्ज़ नाइट' महिलाओं का अपनी समस्याएँ एक दूसरे से बाँटने, मन हल्का करने का मौका देती है, और कि सभी सहेलियों ने मिलकर योजना बनाई है कि हमें सप्ताह में एक बार, हो सके तो हर शुक्रवार को, 'गर्ल्ज़ नाइट' ज़रूर करनी चाहिए।
जय विजया को देखता रह गया। आँखें फटी की फटी। बोला, "क्या? नो वे।"
"मैं उन्हें नहीं छोड़ सकती।"
"एक तरफ़ मैं हूँ, दूसरी तरफ़ वे, तो भी नहीं।"
"नहीं, तो भी नहीं। वह हमारा सपोर्ट-सिस्टम है।"
"तुम जानती हो, क्या कह रही हो?"
"हाँ, उन औरतों को हमदर्दी चाहिए, नफ़रत नहीं।"
"हमदर्दी! रीटा घर से भाग गई थी।"
"हाँ, क्या करती, सुनील उसे पैर की जूती समझता था।"
" बच्चों को छोड़ गई।"
" वह इतना आसान नहीं होता।"
"आशा! पैंतालीस की होगी, डेट कर रही है।"
"वह महीनों इंतज़ार करती रही कि पति लौट आएगा।. . .उसने बच्चों को किस तरह अकेले पाला, वह तुम्हें नज़र नहीं आया ! अब वह बड़े हो गए हैं, उनकी अपनी दुनिया बन रही है. . .। उसे साथी चाहिए. . .।"
"कैसा ब्लाउज़ पहनती है. . .इतना लो-कट, इतने खुले गले का कि. . ."
"गले के नीचे नहीं. . .ऊपर देखा करो. . .इतना उदास चेहरा। ठुकराये जाने का भाव जैसे चेहरे पर जम कर रह गया है। मन से इतनी भोली है. . ."
"और वह लिज़!"
"हाँ, हाँ लेसबियन है, पर है तो इंसान। दर्दमंद साथी. . .वह होना ज़्यादा बड़ी बात है।"
कुछ देर दोनों खामोश रहे। फिर विजया बोली, "वहाँ और औरतें भी तो होंगी।"
"पर यह तीन क्यों. . .? जो भी है यह ग़लत है। मैं इस तरह की वैल्यूज़ का सहभागी नहीं हो सकता।"
"तुम मर्दों की यह बात समझ नहीं आती। किसी औरत से जीवन में अगर कोई ग़लती हो जाए तो तुम उसे बहिष्कृत ही कर देना चाहते हो।"
"चाँद पर पहुँचना है तो अंतरिक्ष यान के सब कलपुर्जे परफ़ैक्ट होने चाहिए।"
" मुझे कमज़ोर और पिछड़े लोगो को पीछे छोड़ना इंसानियत नहीं लगती।"
"यह सब बड़ी-बड़ी बातें हैं, इनका ज़िंदगी से कोई ताल्लुक नहीं है।"
"मैं ज़मीन पर रहती हूँ।''

जय अभी भी नहीं हारा। वह सोचने लगा कि अगर विजया शुक्रवार के शुक्रवार 'गर्ल्ज़ नाइट' में जाती रही तो उसका कुप्रभाव पड़ कर रहेगा। मुमकिन है कि एक दिन वह उसे भी छोड़ दे। उसने देखा था कि समाज में तलाक़ काफ़ी आम हो रहे हैं। उसे लगा कि विजया को इस राह पर भटकने से रोका ही जाना होगा। वह सोचने लगा कि उसने पिछले दो साल में कब, कहाँ, क्या ग़लती कर दी कि विजया उससे दूर भटकती चली गई? एक समय था जब विजया को कोई परेशानी होती थी तो उसी से आकर बात करती थी। वह उसका सोल-मेट कहलाता था। कितनों को ठुकरा कर विजया ने उसे अपने लिए चुना था। ज़रूर मित्रता निभाने में उससे कहीं कोई लापरवाही हो गई जो कि आज उसे यह दिन देखना पड़ रहा है। उसे उस मित्र-भाव को फिर से जिलाना होगा।
वह एक दिन उसके लिए एक उपहार ले आया। हीरों जड़ा हार। दूसरे दिन घर के पीछे के डेक के लिए पैटिओ फ़र्नीचर ले आया। बोला, "हर वीकएंड मेज़ के छाते के नीचे कुर्सियाँ डाल कर बैठा जाए, क्या ख़याल है। घर में बैठे-बैठे ही घर के पीछे कुछ दूर ऊँचे झूमते घने पेड़ों के साथ झूमा जाए। और अक्तूबर-नवंबर के महीने! शरद ऋतु के दिन! न सर्दी न गर्मी। सुहावनी हवा। पेड़ों का क्या नज़ारा होगा जब उनके पत्ते लाल, नारंगी, संतरी, पीले, भूरे, रंग बदल रहे होंगे। क्यों?"
उस दिन शुक्रवार था। उस दिन राधा को 'गर्ल्ज़ नाइट आउट' के लिए जाना था। सुबह का समय था। दोनों अपने-अपने काम पर जाने के लिए तैयार हो रहे थे। ड्रेसिंग टेबल के शीशे में दोनों की नज़रें मिलीं। जय ने कहा, ''मैं तुम्हारे साथ अधिक समय बिताना चाहता हूँ।'' विजया चुप रही। वह आगे बोला, "क्या हम पहले की तरह दोस्त नहीं बन सकते?"
विजया ने शीशे में ही देखते हुए कहा, ''तुम्हें मालूम है कि जब तुम दोस्त थे तुम्हारी किस बात ने मुझे तुम्हारी तरफ़ सबसे अधिक आकर्षित किया था? तुम इतने पोज़ैसिव नहीं थे जितने अब हो रहे हो। तुमने जितने भी लड़कों से मिलवाया था, वे अधिक हैंडसम तो थे, देखने मे बलिष्ठ और ऊँचे-लंबे भी। लेकिन वे मेरी ज़िंदगी का रिमोट अपने हाथ में रखना चाहते थे। मेरी 'मूवमेंट्स' को 'मैनेज' करना चाहते थे। कोई भी मुझे मेरी आज़ादी देने के लिए तैयार न था। तुम मुझे अधिक संवेदनशील और उदार जान पड़े थे। उनकी तुलना में कहीं अधिक कद्दावर इंसान। मुझे मेरी आज़ादी देते थे। सोचने की वह आज़ादी अब भी दे पाओगे?''

जय बालों में कंघा कर चुका था। फिर भी शीशे में देखते हुए अपने बालों को कंघे से सँवारता जा रहा था, और शीशे में ही विजया को कमरे से बाहर जाते देखता रहा. . .

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