21 January, 2014

वैतरणी--विद्या विंदु सिं

मुरगे की पहली बाँग सुनते ही हरिमती की आँख खुली। यह उसका नित्य का नियम था। ४ बजे उठकर प्रातः कर्म से निवृत्त होकर घर की सफाई करके, फिर गोशाला से गोबर बटोरकर कंडे (उपले) पाथकर पंक्तिबद्ध सजाकर रखना।
पहले वह दीवार पर चिपरी पाथती थी, हाथ में गोबर का गोला लेकर दीवाल पर छपाक् से मारती, गोल चिपरी (कंडा) पर उसकी पाँचों अंगुलियाँ छप जातीं।
पर जब से भैया का घर पक्का हो गया, दीवाल पर चिपरी पाथना बंद हो गया। अब तो उपले पाथने के लिए खलिहान में जाना पड़ता है। वहाँ सूख जाने पर भिटहुर (कड़उर, कंडे का ढेर) बनेगा।
उतनी दूर गोबर खाँची (डलिया) में भरकर ले जाना, सानकर पाथना, फिर लौटना—वह थक जाती है।
उम्र भी तो साठ पार कर चुकी है। जन्म से लेकर यहीं तो खपी जिंदगी। केवल उम्र के पंद्रहवें से लेकर बीसवें वर्ष तक की पाँच साल की जिंदगी ससुराल में कटी थी।
उन पाँच सालों की यादें उसके मन में मधुर और कटु दोनों रूपों में सपना बनकर बस गई हैं। पंद्रहवाँ लगते ही जब देह में अँगराई की गंध भरने लगी थी, गालों पर गुलाब का रंग उतरने लगा था, आँखों में जाने कैसे-कैसे रंग तिरने लगे थे, तभी तो बाबू हँसते हुए आए, थे—‘हरिमती! कहाँ हो?’ (बाबू हरिमती की माँ को बेटी के नाम से पुकारते थे।)
हरिमती कभी अपना नाम सुनकर दौड़ आती तो बाबू कहते, ‘तुझे नहीं, तेरी माई को बुलाया है।’ तो वह तुनककर कहती, ‘तो फिर माई का नाम लेकर क्यों नहीं बुलाते?’
वे हँसते—‘तेरी माई का नाम नहीं ले सकते। न तेरी माई मेरा नाम लेती है, न मैं उसका।’ यह अनुबंध हरिमती की समझ में नहीं आता था।
माई के आते ही बाबू बोले, ‘आजु हरिमतिया क ब्याह तय करके आया हूँ।’
माई खुशी से भर उठी—‘कहाँ? कैसन है लरिका?’
‘लरिका तो जैसे केवल का फूल है। हमरी हरिमतिया कै जोड़ी बहुत सुन्नर लागे।’
‘अरे! घर-दुआर कैसन है?’
‘अरे! पक्का मकान है। पाँच एकर की खेती है। दुआरे पै मुर्रा भैंस बन्ही है। लरिका तीन भाई हैं। ई सबसे बड़ा है। हरिमती पहिली भूख पियास बहू बनी, राज करी राज।’
फिर एक महीने के अंदर ही तिलक, ब्याह हो गया।
साल भीतर में ही गौना भी हो गया।
सास-ससुर की आँखि के पुतरी रही हरिमती।
अपने स्वभाव, सेवा से सबकी लाडली बनी हरिमती। चार दिन के लिए नैहर आई तो देवर साथे लगि जाएँ—‘हमहूँ जाब भौजी के साथ।’ दोनों देवरों में होड़ लगती थी—भौजी के पास हम रहेंगे, उनके साथ हम खाएँगे।
सास आती, डाँटकर भगा देती—‘भइया आय रहे हैं, अब जाओ तुम लोग ‘पढ़ौ-लिखौ।’
वह लाज से गड़ जाती। किशनू उसको लजाता देख मुसकरा देता।
पूरा परिवार ऐसन खुश था जैस होली, दिवाली क त्योहार रोज हो।
अगले वर्ष बड़े देवर की शादी हुई। बहू आई तो स्वागत करने वालों में हुलास भरी हरिमती सबसे आगे थी।
एक छोटी बहू, मुँह बोलारौ आ गई थी। दोनों मिल के काम करेंगे, गाएँगे, साथ झूला झूलेंगे। अब तो आनंद-ही-आनंद होगा। लेकिन छोटकी को जिठानी का खिलंदड़ी स्वभाव नहीं भाया—‘देवरों के साथ हरदम हँसती-बतियाती रहती हैं। जिधर देखो उधर से बड़की दुलहिन, बड़की दुलहिन की पुकार लगी रहती है।’ काँटा ऐसी करक गई हरिमती देवरानी के मन में।
लेकिन देवरों की दुलारी भौजी इस कसक से अनजान अब निश्चिंत हो गईं। अब तो साल-छह महीने के लिए नैहर जा सकती है। दोनों देवरानियों की जिठानी जो है।
एक और खुशी से परिवार चहक उठा, बड़की दुलहिन के बच्चे की आमद है। उसके प्रति परिवार की चिंता-फिकिर और ध्यान बढ़ गया। मझली के मन जलन और बढ़ गई। उसका कोई वश नहीं चल रहा था, अब उसने छोटी को अपनी ओर करने के लिए उसके मन में भी काँटा बोना शुरू कर दिया। लेकिन वह भोली-भाली थी। उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि बड़ी दीदी का विरोध क्यों करूँ?
हरिमती तो अपने सरल स्वभाव के साथ सबसे उसी तरह निभा रही थी, जैसे जब ससुराल में आई थी।
पर इधर उसके शरीर में आलस भरने लगा। काम-धाम समेटने में थोड़ा अपने शरीर की जरूरत के हिसाब से और कुछ सासजी के कहने पर उसने ढिलाई दे दी। ‘दो-दो देवरानियाँ हैं करने वाली, तुम आराम कर लो’ सासजी ने कहा था। बस यहीं से शुरू हो गया परिवार का चटकना। पति के आते ही मझली रोना लेकर बैठ जाती—‘हम तो इस घर की नौकरानी हैं बस, जो कुछ भी हैं तुम्हारी भौजी हैं। उनकी सेवा ऊपर से करूँ, हमारी तो चाहे तबीयत ठीक हो या खराब, किसी को कोई मतलब नहीं, आपको भी नहीं। अपने बड़े भाई को देखकर उनसे तो कुछ सीखो। और अब तो अम्माजी ताला-कुंजी सब बड़ी जनी के हाथ में सौंप दी हैं। तेल-साबुन, क्रीम के लिए भी पैसा माँगना पड़े। और फिर उनको हिसाब भी दो, जैसे वही एक ईमानदार हैं बाकी सब बेईमान।’
देवर ने आकर हरिमती से यह बात हँसते हुए बता दी, पत्नी के सामने नहीं—‘भौजी! हमरी दुलहिन कै तनिक ज्यादा खयाल किया करिए। उसको पैसा दें तो हिसाब न माँगें।’
हरिमती ने भी हँसकर उत्तर दिया—‘जो हुक्म देवर राजा।’
पर मझली का तो पारा चढ़ गया। रात को बोली, ‘हमको कैसे प्यार करते हो, यह भी अपनी भौजी को बता देना और कभी यहीं बुलाकर उनको दिखा भी देना।’ बेचारा देवर हक्का-बक्का रह गया।
दूसरे दिन से भाभी के साथ की चुहुलबाजी, हँसी-मजाक खत्म।
मझली का मुँह भी चढ़ा देखा तो हरिमती समझ गई।
उसने सास के पास जाकर चाभी लौटाते हुए कहा, ‘अम्माजी! अब हमसे ई सब ना सँभारत बने। आप मझली को चाभी दै देंय।’
सास की अनुभवी आँखें समझ गईं। यद्यपि हरिमती ने कुछ बताया नहीं था। वह महसूस कर रही थीं कि जो सहजता बड़ी में है, वह मझली में नहीं। बात और बिगड़े न, इसलिए उन्होंने चाभी अपने पास ही रख ली और सबको सुना दिया—‘हरिमती की तबीयत ठीक नहीं है इन दिनों। अब ताला-कुंजी हमारे पास है, जेकाँ जिस चीज क जरूरत होय हम्मैं बतावै।’
अब तो मझली और जलकर खाक हो गई। ई त उल्टा पासा परिगै। उनसे तो जोरी बरजोरी हँसि-खेलिके माँगब आसान रहा, अब अम्माजी से तो बाप-रे-बाप!
अपना वार खाली जाने का यह क्रोध भी पति पर ही उतरा। और पति लगातार और बेचारा होता गया। घर की कलह बचाने के लिए चुपचाप पत्नी के सामने हथियार डालता गया।
गर्भ बढ़ने के साथ ही हरिमती का स्वास्थ्य गिरता जा रहा था। और फिर एक दिन वज्रपात हो गया हरिमती के परिवार पर। पति माता-पिता की वर्षों की इच्छा पूरी करने के लिए उन्हें अमरनाथजी तीर्थयात्रा में लेकर गए थे। वहाँ जबरदस्त हिमपात हुआ। रास्ते बंद हो गए। लोग वापस लौटने लगे। किशनू ने माँ को पीठ पर लादा, थोड़ी दूर चला, फिर उसका पाँव जवाब दे गया। थोड़ी दूरी पर पिता भी गिर पड़े थे। कोई किसी की मदद नहीं कर पा रहा था। जाने कितनी देर लोग पड़े रहे। फिर लौट नहीं सके।
हफ्तों बाद अखबारों में खबरें थीं दिल दहलाने वाली। उन यात्रियों के नामों की सूची निकली, जो उस हादसे के शिकार हुए थे। उस जत्थे के लगभग सारे लोग अमरनाथजी की यात्रा में हिम-समाधि ले चुके थे। यह दुर्घटना सुनकर हरिमती संज्ञा-शून्य होकर ऐसी गिरी कि अस्पताल ले जाते-जाते हालत बिगड़ गई। बड़ा देवर बैलगाड़ी से लेकर अस्पताल भागा था। फिर वहाँ पहुँचकर गोद में लेकर बदहवाश सा डॉक्टर के पास पहुँचा। भरती किया गया। बच्चे को नहीं बचाया जा सका।
हरिमती की किसी तरह जान बच गई। पर उसे आज तक अफसोस है कि जान क्यों बची?
दोनों देवरों और छोटी देवरानी ने बहुत सेवा की इस दुख की मारी की। पर मन में जीने की इच्छा ही नहीं रह गई थी।
देवरों ने पुकारा—‘भौजी! अब तुम्हीं तो हो हम सबको सँभालने वाली। तुम न धोखा देना।’ वह भाभी के कलेजे से लगकर फूट-फूटकर रो पड़ा था।
हरिमती थोड़ी ठीक होने लगी थी। सास-ससुर और पति की जिम्मेदारी निभाने के लिए जीने की कोशिश करने लगी।
सबकुछ सँभल रहा था। हरिमती सबको जोड़े थी, पर मझली ने उसका जीना हराम कर दिया था।
कभी कहती कि यह राँड़ जब तक घर में रहेगी, घर में सुख नहीं रहेगा। पति को भी जली-कटी सुनाती। एक दिन माता-पिता और भाई की याद में बिसूर रहे देवर को सांत्वना देने के लिए भौजाई ने अपनी गोद में उसका सिर रख लिया। इसी बात पर मझली ने ऐसी-ऐसी बातें कहीं कि सहना मुश्किल हो गया और हरिमती को लगा कि यह सब सुनना भी महापाप है।
देवर-भाभी के पवित्र रिश्ते पर लांछन लगाती हुई वह विष उगल रही थी—‘मुझे मेरे मायके पहुँचा दो, इस राँड़ को लेकर घर बसा लो। मैं इसकी तरह सुंदर नहीं हूँ न?’
यह सुनकर उसके पति ने इतना कसकर चाँटा मारा कि वह तिलमिला उठी। उसके दाँत से खून निकलने लगा था। वह बकने लगी। पूरा गाँव जुट आया।
वह कह रही थी—‘मैं तो थाने जा रही हूँ, रपट लिखा दूँगी। मेरे पति को इस राँड़ ने फँसा रखा है। इसी के कहने पर मेरे पति ने मुझे मारा है।’
हरिमती हाथ जोड़कर उसके सामने खड़ी हो गई थी—‘दुलहिन! मैं यह घर छोड़ दूँगी। तुम थाने मत जाओ। जो स्वर्ग चले गए हैं, उनकी इज्जत बची रहने दो।’
और हरिमती आ गई थी वापस अपने पिता-माता के पास। जिस घर में डोली आई थी, वहाँ से अरथी भी निकले—उसकी यह चाह पूरी नहीं हो सकेगी, ऐसा उसने सोच लिया।
पर माता-पिता बेटी के दुःख से इतना टूट गए थे कि पहले पिता, फिर तीन महीने बाद माँ, दोनों ही संसार से विदा हो गए।
अब हरिमती भाई-भाभी के आश्रय में थी। भाई तो दुखी बहन के प्रति आदर-सम्मान का भाव रखता था। एक तरह से उसकी कच्ची गृहस्थी को बहन ने ही सँवार दिया था। माता-पिता गुजरे तो भाई नाबालिग था। उसे पढ़ाया-लिखाया। प्राइमरी स्कूल में टीचर हो गया। उसका विवाह किया। भौजाई आई तो सोचा कि अब बाहर की जिम्मेदारी ही रहेगी। भीतर रसोई-पानी भौजाई कर लेगी। लेकिन उसे फुरसत नहीं मिली। घर से बाहर रात-दिन खटती रहती थी हरिमती। भौजाई की तीन-तीन बार सौरी में भाभी व बच्चे का लालन-पालन किया। उन्ही में अपना गम भूलने की कोशिश करती रही।
किंतु भाभी को लगता कि मेरा पति अपनी बहन को पाल रहा है। क्यों नहीं वह जाकर अपने देवरों से अपना हिस्सा लेती। यहीं रहे मगर खेत, बाग-बगीचा, घर बेचकर पैसा ही ले आए। यह सब मैं अपने लिए नहीं, उन्हीं के भले के लिए कह रही हूँ।
आज गोबर पाथते और हाँफते हुए घर लौटते समय हरिमती सोचने लगी थी। सच ही तो कहती है ननकउ की बहुरिया।
जब माँ-बाप नहीं रहे तो मायका कैसा? भाई का मोह बाँधे था। भाई को, बच्चों को कोख जायों सी ममता दी। उस ममता के मोह-बंधन में फँसी थी हरिमती, वरना अब तो दुनिया के मोह से मुक्ति पाकर परमात्मा की शरण में ही शांति थी।
आज वह सोचती जा रही थी—लोग कहते हैं, अब माता-पिता की संपत्ति में बेटी-बेटा दोनों का बराबर का हक है, तो यहाँ भी मैं अपना ही हक तो खा रही हूँ। पर नहीं, अगर इज्जत के साथ जीना है तो सचमुच अपनी ससुराल की संपत्ति का हिस्सा भी लेना चाहिए। मुट्ठी में कुछ दौलत होनी चाहिए। अब हारी-बीमारी में, अस्वस्थ होने पर क्या होगा। मुझे वहाँ से इस तरह नहीं आना चाहिए था। सुना है, मझली ने छोटे देवर का भी काफी हिस्सा मार लिया है। अपने पति को भी वह पाँव की जूती ही समझती है। नहीं-नहीं, मुझे न्याय करना ही होगा। वह चल पड़ी।
शाम को नन्हकू के आने पर हरिमती ने कहा, ‘मुझे अपने घर जाना है।’ नन्हकू उसका मुख देखने लगा—‘दीदी! कौन सा घर? यह घर तुम्हारा नहीं है क्या? जहाँ सारी जिंदगी काट दी।’
‘हाँ भाई! जिंदगी आगे जो बची है उसके लिए अपने घर जाना ही पड़ेगा। अब मैं बूढ़ी हो गई हूँ।’ नन्हकू ने कहा, ‘दीदी! मैं साथ चलूँ।’ उसने मना कर दिया।
इतने लंबे अंतराल के बाद वह फिर वापस वहाँ जाएगी, उसने सोचा भी नहीं था।
अपनी सगी देवरानी ने ही, जिसको उसने बड़ी बहन की ममता दी थी, उसके घर छोड़ने का कारण बनी थी।
वह घर जहाँ उसके आलता, मेहँदी रचे पाँवों के चिह्न पड़े थे, वह घर जहाँ की देहरी ने उनका स्वागत किया था और वापस आते समय उसे सदा के लिए प्रणाम करके वह आ गई थी।
बस हरिमती को लेकर तेजी से चली जा रही थी। उसका मन बस से भी तेज गति से कभी पीछे भाग रहा था कभी आगे।
कैसा लगेगा वहाँ पहुँचना? अब तो सब लोग भूल ही गए होंगे कि इस घर का एक हिस्सा कटकर कहीं दूर जा पड़ा है। ‘घर’ हाँ, स्त्री को घर भी कहा गया है, महल कहा गया है, क्योंकि घर को वही जोड़ती है। स्कूल में मास्टरजी यही बताते थे।
हरिमती सोच रही थी—मैंने अपना घर बचाने के लिए ही तो स्वयं को उससे काट लिया था। उस घर को लेकर जितने सपने थे, वे सब आँखों में उभरकर उसे और टीस दे रहे थे।
इतने दिनों तक हरिमती को अपना घर कितना याद आता रहा, उस परिवार का विछोह कितना सालता रहा, सबकुछ आज आक्रामक रूप में उसकी यादों में आ रहा था।
उसने सुना था कि गाँव तक अब बस जाने लगी है। कई बार मन उमड़ा था कि जाकर द्वार, आँगन, कोठरी देखूँ, जहाँ सुख के थोड़े ही सही, पर अमरत्व वाले पल गुजरे थे। बसंत शुरू होते ही पतझड़ शुरू हो गया उसके जीवन में और ऐसा निहंग किया कि नई कोंपल निकले ही नहीं।
सबकी भरी पूरी गृहस्थी देखकर उसे अपने सपने याद आते, पर किसी से कहती नहीं थी। कहीं मेरी नजर न लग जाए किसी के सुखी जीवन को। यह सोचकर वह सहम जाती थी।
पर इधर कई वर्षों से मन सपाट हो चला था। बस सबके सुख के लिए, आराम के लिए अपने बूते से अधिक मेहनत करके जीवन बिता रही थी। रूखा-सूखा जो मिल गया, जीवन जीने भर को खा लिया। एक जोड़ा धोती-अँगरखा इसलिए जरूरी था कि रोज नहाना-धोना था। धुले कपड़े में पूजा-पाठ करती थी, रसोई बनाती थी।
माँ-पिता की याद आती। रसोई बनाते समय उनके स्वर कानों में गूँजते—‘हरिमती! तू पढ़ाई कर बिटिया। चूल्हा-चौका में समय न खराब कर। ससुराल जाते समय तेरी माई तुझे सब सिखा देगी। थोड़ा-बहुत कमी होगी तो सास से सीख लेना।’
सास की प्रसंशा भरी आवाज कानों में गूँजती—‘हमरी बहुरिया के हाथ की रसोई जो खाए, अंगुली चाटता रह जाए। पूरी अन्नपूर्णा है हमारी दुल्हनिया। इसके बनाने से रसोई में बरक्कत हो जाती है, चाहे जेतना जने आकर खा जाएँ।’
वही हाथ हैं, वही तरीका है, पर भौजाई कभी भी बिना मुँह सिकोड़े नहीं खाती।
कभी तबीयत खराब होती, काँखती-कूँखती उठकर उसे ही बनाना पड़ता है, भले ही खुद न खाए।
महीने में जाने कितने तो उसके व्रत-उपवास होते, जिसमें सबकी रसोई बनाते, साफ-सफाई करते वह इतना थक जाती कि अपने लिए कुछ फल-फरहार बनाने की हिम्मत ही चुक जाती। शरीर शिथिल होता जा रहा था, पर काम करने में कहीं भी शिथिलता नहीं आने दे रही है।
यह जीवन तप के लिए ही ईश्वर ने दिया है, ऐसा विश्वास उसके मन में बैठ गया है, वरना इस तरह सबकुछ न छीन लेते।
बस रुक गई थी। सारे यात्री उतर गए, वह अपने सोच में डूबी बैठी ही रही।
कंडक्टर ने कहा, ‘माँजी! यह आखिरी स्टॉप है। आप को उतरना नहीं है?’
वह हड़बड़ाकर उठी—‘हाँ बेटा! क्या अर्जुनगंज आ गया?’
‘हाँ माँजी! आपको किस गाँव जाना है?’
‘मुझे ‘पुरवा’ जाना है बेटा।’
‘पुरवा? किसके यहाँ माँजी? मैं भी उसी गाँव का हूँ।’ हरिमती ने ध्यान से देखा, उस लड़के में छोटे देवर की छवि दिखी।
‘तुम किसके बेटे हो?’
प्रश्न का उत्तर जो मिला, वह उनकी कल्पना के अनुसार ही था। वह उनके छोटे देवर का ही बेटा था।
‘तुम कंडक्टर की नौकरी कर रहे हो बेटा। पढ़ाई कहाँ तक की?’
‘पढ़ाई छूट गई। मझली माँ ने आगे पढ़ने नहीं दिया। आप कौन हैं माँजी?’
‘मैं तुम्हारी बड़ी माँ हूँ बेटा!’ कहकर उसे गले से ऐसे लिपटा लिया, जैसे अपने बछड़े से बिछुड़ी गाय हो। उसका मन हुआ, उसे इसी तरह छाती से लगाए बैठी रहे। आज उसे अहसास हो रहा था कि अपना घर छोड़कर उसने कितनी बड़ी भूल की। उसने अपने दायित्व से पलायन किया था किसी एक की स्वार्थ भरी खुशी के लिए। अपने स्वर्गीय सास-ससुर के द्वारा छोड़ी जिम्मेदारी से मुख मोड़ा था।
और उसके छोड़ने पर कंडक्टर हक्का-बक्का सा उसे ताकता हुआ खड़ा था। फिर उसका झोला उठाकर उसका हाथ पकड़कर घर की ओर चल पड़ा। उसके कदमों में आज थकान नहीं थी। उसका मन हो रहा था कि बड़ी माँ को गोद में लेकर दौड़ता हुआ घर पहुँच जाए। अपने माता-पिता और मझले ताऊजी से सुना था बड़ी माँ के बारे में कि बड़ी माँ उसके सपनों में आने लगी थीं। आज उसे विश्वास नहीं हो रहा था कि बड़ी माँ वापस आ गई हैं।
कई बार उसने माँ को पिता से कहते सुना था—बड़ी दीदी लक्ष्मी थीं, वे घर छोड़कर चली गईं तो लक्ष्मी रूठ गई। इतनी जर-जमीन, बाग-बगीचा होते हुए भी अब घर में दरिद्दर वास करता है।
उसने रिक्शा किया। आज ही उसे पगार मिली थी। बड़ी माँ के आने की खुशी में वह गाँव भर में बताशे बाँटना चाहता था।
रिक्शा रुकवाकर उसने बतासे खरीदा। हरिमती को चलते समय बस में बैठाकर भाई ने दो सौ रुपए थमा दिए थे और बोला था—‘दीदी! लौट आना। तुम्हारे बिना मैं और बच्चे नहीं रह पाएँगे। मैं जानता हूँ कि तुम्हारी भौजाई का स्वभाव बहुत ही खराब है, पर दीदी, जैसे मैं सहन कर रहा हूँ, बच्चे सह रहे हैं, तुमने अब तक सहन किया, आगे भी कर लेना मेरे लिए।’
हरिमती ने बताशे का दाम बेटे के हाथ मेें थमा दिया, उसने मना किया तो अधिकार भरे स्वर में उसे डाँट दिया—‘माँ हूँ तेरी, मेरी बात तो माननी ही होगी।’
वह घर पहुँची। पूरे गाँव में तुरंत खबर फैल गई। दरवाजे पर भीड़ जुट गई।
ससुराल पहुँची तो छोटी आकर लिपट गई। दीदी! अब हम लोगों को छोड़कर मत जाना। अपने छोटे बेटे को उनके आँचल में डालते हुए बोली, ‘इसकी खातिर यहाँ रुक जाओ। हमारी गृहस्थी सँवार दो।’
मझली ने सुना तो धमक के साथ आई और बोली, ‘बड़ी ठसक के यहाँ से गई थीं। सुना है कि भौजाई के यहाँ नौकरानी ऐसी खटती हैं। फिर भी चार बात सुना के रोटी देती है।’
हरिमती आज सचमुच आक्रोश से भर उठी। बोली, ‘हाँ मझली! सही कहा तुमने। मैं क्यों किसी की चाकरी करूँ, किसी की चार बात सुनकर क्यों रोटी तोड़ूँ? मैं आज अपना हक लेने आई हूँ। अब जाँगर नहीं है खटने का। अब तो आराम करने का समय आ गया है।’
मझली की सारी हेकड़ी भूल गई। पर अब तो तीर हाथ से निकल चुका था।
पंचायत बुलाई गई। बँटवारा हुआ।
मझली के लेखपाल भाई ने बेईमानी की थी, उसका खुलासा हुआ। पूरी संपत्ति के तीन हिस्से हुए। दो भाई और एक भाई की बेवा के नाम।
हरिमती ने अपने हिस्से में चार भाग किए। एक-एक भाग दोनों देवरों को दिया यह कहकर कि इससे जो आमदनी होगी, उसका आधा भाग मुझे देंगे। उसी से स्कूल और वृद्धाश्रम का खर्चा चलेगा। और एक में ग्राम सभा को इस शर्त के साथ कि यहाँ स्कूल और वृद्ध जनों का बसेरा बनेगा। मैं भी उसी में आकर रहूँगी। कुछ संपत्ति उसने बेचकर पैसा लेना चाहा, क्योंकि अब वह तीर्थयात्रा पर जाना चाह रही थी। तीर्थ में भी तो पैसा चाहिए और आगे की महायात्रा के लिए भी। आखिर वैतरणी पार करने के लिए भी तो धन की जरूरत पड़ेगी।

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