अजय जोर जोर से चिल्ला रहा था - "मम्मी बाबा को बड़ा तेज़ बुख़ार है. वह रात से ही बड़बड़ा रहे हैं.. मैंने पापा को सुबह ही बता दिया तब भी वह अपने ऑफिस चले गये..."
"तू जा अपनी पढ़ाई कर. पढ़ाई के लिये ही यह तेरा समय है. बेकार की बातों से तेरा क्या मतलब.. जा, जाकर पढ़ बैठकर" शान्ता ने अजय को डाँट दिया था और वह चुपचाप अपने कमरे में अपनी पढ़ाई के लिये बढ़ तो गया, परन्तु उसके बाबा की बुख़ार के मारे कराहना अभी भी उसके कानों में पड़कर उसकी मनोदशा को पिघला-सा रहा था.
शाम ढलते ढलते संजय घर आया. उसने अपनी पत्नी शान्ता से आते ही पूछा: "अजय कह रहा था बाबूजी की तबीयत ज़्यादा खराब है, उसका एक फ़ोन भी मेरे ऑफिस में आया था. मेरा सहायक मुझसे कह रहा था, कि फ़ोन आपके बेटे का था और वह कह रहा था कि उसके बाबा की तबीयत ज़्यादा ही खराब है..." मैं किसी काम से दफ़्तर से बाहर गया हुआ था. सहायक की बात सुनकर भी मैं घर नहीं आ सका, क्योंकि मुझे और भी ज़रूरी काम निपटाने थे."
"अच्छा तो तुम्हारे सुपुत्र ने तुम्हें दफ़्तर में भी यह सूचना दे डाली", "लेकिन बाबूजी हैं कहाँ?" संजय बोल उठा -
शान्ता - "अस्पताल में"
संजय - "अस्पताल में? लेकिन क्यों?"
शान्ता - "उन्हें तेज़ बुख़ार चढ़ गया था तो मैं विमलेश के साथ अस्पताल में उन्हें एडमिट कर आई."
संजय - "यफ़ तो कोई बात समझ में आई नहीं क्या वह इतने सीरियस थे?" तभी अजय आ गया और बोला -
"पापा बाबा को बुख़ार था बस और कोई खास बात नहीं थी, मम्मी ने कहा कि वह उनको देखें या अपना कम करे"
शान्ता - "उनको बुख़ार... के कारण अस्पताल क्यों एडमिट कर आई फिर बेकार का खर्चा बढ़ा दिया तुमने...." शान्ता तुरन्त भड़कती सी बोली -
"मैंने खर्चा कम किया है, उन्हें सरकारी अस्पताल में और वह भी जनरल वार्ड में एडमिट कर आई हूँ."
संजय चुप हो गया और अपने कपड़े बढ़ा कर मुँह हाथ धोकर चाय पीने बैठ गया. अजय सोच रहा था - पापा अस्पताल चलेंगे, बाबा ओ देखने, परन्तु उन्हें इत्मीनान के साथ घर के कपड़े पहन कर बैठते देखकर बोल पड़ा, "पापा, बाबाजी को देखने "अस्पताल चलें..."
परन्तु संजय ने अलसाए शब्दों में कहा - "नहीं बेटे! मैं थक गया हूँ. तुम्हारी मम्मी आज ही उन्हें अस्पताल में एडमिट करा आई हैं. मैं फिर चला जाऊँगा, अस्पताल वाले तो हैं ही उन्हें देखने के लिये."
"पापा, मैं बाबा के खाने के लिये चार चपातियाँ और परवल की सब्जी ढाबे से लेकर दे आया हूँ."
अबकी संजय व शान्ता दोनों चौंक उठे "लेकिन अजय यह तुमने क्या किया? उन्हें तो सख्त बुख़ार था आख़िर परहेज भी तो कोई चीज होती है, बीमार आदमी के लिए" शान्ता मानो एक साँस में और भी बहुत कुछ कहना चाह रही थी, अजय बीच में ही बोल उठा -
"लेकिन बाबा ने मुझसे कहा था कि उन्हें जोरों की भूख लग रही है, कुछ खाने को ला दे... सो मैं चपाती सब्जी उन्हें दे आया और उन्होंने खा भी लिया, फिर वह सो गए थे."
संजय अब भी चुपचाप रहा. अजय बाहर चला गया तो शान्ता से उसने कहा -
"आख़िर जरा सी बात पर बाबू जी को अस्पताल में क्यों भर्ती करा आई तुम."
"मैंने ठीक ही किया. उन्हें टाईफाइड, डायरिया जाने क्या-क्या हो गया था. छूत की बीमारी है, कहीं हमारे बच्चों को व हमें लग जाये बीमारी, सो मैंने यही ठीक समझा. फिर वह यहाँ ही क्या करते पड़े-पड़े, वहाँ जनरल वार्ड में और भी बहुत से मरीज पड़े रहते हैं उनका मन लग जायेगा... सो हमने ठीक किया है. उनके भले के लिये किया है. डॉक्टर तो कह रहा था कि बीमारी के हिसाब से उन्हें खाना पीना भी दिया जाएगा, साथ-साथ दवाई भी दी जाएगी, जैसे रात को पाउडर का दूध भी दिया जाएगा, दिन में चाय साबूदाना आदि--- और क्या चाहिए बीमार आदमी को... तुम्हें तो जाने कब अकल आएगी, दूर की बात अब भी नहीं सोच पाते हो... दफ़्तर में जाने अपनी जिम्मेदारी कैसे निभाते होंगे...?"
संजय क्या बोलता? एक तरफ़ अतीत था, दूसरी ओर वर्तमान और भविष्य था. अतीत से क्या मिलता है? वह तो बीत चुका है. भविष्य से बाकी का जीवन जुड़ा होता है. उसे याद आया - जब कभी वह बचपन में बीमार पड़ता था तो सब से अधिक उसकी चिंता बाबूजी ही किया करते थे. वह उसे गोदी में टाँगे फिरते थे. अपने काम तक कि उन्हें परवाह नहीं रहती थी. किसी तरह से कैसे भी उनका संजय बस ठीक हो जाए. फल-दूध-दवाई, सभी चीज़ों का ध्यान बाबूजी ही विधिवत तथा नियमित रूप से रखते थे. मजाल नहीं कि उनके प्रिय बेटे संजय को कोई कुछ कह भी दे. उसके आराम का पूरा ख़याल रखते थे बाबू जी. जब उसकी तबीयत ठीक हो जाती तो वह चैन की साँस ले पाते थे. अपनी सारी संतानों में संजय उनकी सर्वप्रिय संतान थी. उन्होंने ही तो बड़े चाव से उसे पढ़ाया लिखाया था... एडमीशन, हॉस्टल का खर्चा, कॉपी किताबों का खर्चा. उसकी मनमाफ़िक कपड़े लत्ते का खर्च. उन्हें कहीं से कर्ज़ क्यों न लेना पड़े, उसकी मन पसंद इच्छा तो ज़रूर ही पूरी करनी थी.
"अच्छा तो तुम्हारे सुपुत्र ने तुम्हें दफ़्तर में भी यह सूचना दे डाली", "लेकिन बाबूजी हैं कहाँ?" संजय बोल उठा -
शान्ता - "अस्पताल में"
संजय - "अस्पताल में? लेकिन क्यों?"
शान्ता - "उन्हें तेज़ बुख़ार चढ़ गया था तो मैं विमलेश के साथ अस्पताल में उन्हें एडमिट कर आई."
संजय - "यफ़ तो कोई बात समझ में आई नहीं क्या वह इतने सीरियस थे?" तभी अजय आ गया और बोला -
"पापा बाबा को बुख़ार था बस और कोई खास बात नहीं थी, मम्मी ने कहा कि वह उनको देखें या अपना कम करे"
शान्ता - "उनको बुख़ार... के कारण अस्पताल क्यों एडमिट कर आई फिर बेकार का खर्चा बढ़ा दिया तुमने...." शान्ता तुरन्त भड़कती सी बोली -
"मैंने खर्चा कम किया है, उन्हें सरकारी अस्पताल में और वह भी जनरल वार्ड में एडमिट कर आई हूँ."
संजय चुप हो गया और अपने कपड़े बढ़ा कर मुँह हाथ धोकर चाय पीने बैठ गया. अजय सोच रहा था - पापा अस्पताल चलेंगे, बाबा ओ देखने, परन्तु उन्हें इत्मीनान के साथ घर के कपड़े पहन कर बैठते देखकर बोल पड़ा, "पापा, बाबाजी को देखने "अस्पताल चलें..."
परन्तु संजय ने अलसाए शब्दों में कहा - "नहीं बेटे! मैं थक गया हूँ. तुम्हारी मम्मी आज ही उन्हें अस्पताल में एडमिट करा आई हैं. मैं फिर चला जाऊँगा, अस्पताल वाले तो हैं ही उन्हें देखने के लिये."
"पापा, मैं बाबा के खाने के लिये चार चपातियाँ और परवल की सब्जी ढाबे से लेकर दे आया हूँ."
अबकी संजय व शान्ता दोनों चौंक उठे "लेकिन अजय यह तुमने क्या किया? उन्हें तो सख्त बुख़ार था आख़िर परहेज भी तो कोई चीज होती है, बीमार आदमी के लिए" शान्ता मानो एक साँस में और भी बहुत कुछ कहना चाह रही थी, अजय बीच में ही बोल उठा -
"लेकिन बाबा ने मुझसे कहा था कि उन्हें जोरों की भूख लग रही है, कुछ खाने को ला दे... सो मैं चपाती सब्जी उन्हें दे आया और उन्होंने खा भी लिया, फिर वह सो गए थे."
संजय अब भी चुपचाप रहा. अजय बाहर चला गया तो शान्ता से उसने कहा -
"आख़िर जरा सी बात पर बाबू जी को अस्पताल में क्यों भर्ती करा आई तुम."
"मैंने ठीक ही किया. उन्हें टाईफाइड, डायरिया जाने क्या-क्या हो गया था. छूत की बीमारी है, कहीं हमारे बच्चों को व हमें लग जाये बीमारी, सो मैंने यही ठीक समझा. फिर वह यहाँ ही क्या करते पड़े-पड़े, वहाँ जनरल वार्ड में और भी बहुत से मरीज पड़े रहते हैं उनका मन लग जायेगा... सो हमने ठीक किया है. उनके भले के लिये किया है. डॉक्टर तो कह रहा था कि बीमारी के हिसाब से उन्हें खाना पीना भी दिया जाएगा, साथ-साथ दवाई भी दी जाएगी, जैसे रात को पाउडर का दूध भी दिया जाएगा, दिन में चाय साबूदाना आदि--- और क्या चाहिए बीमार आदमी को... तुम्हें तो जाने कब अकल आएगी, दूर की बात अब भी नहीं सोच पाते हो... दफ़्तर में जाने अपनी जिम्मेदारी कैसे निभाते होंगे...?"
संजय क्या बोलता? एक तरफ़ अतीत था, दूसरी ओर वर्तमान और भविष्य था. अतीत से क्या मिलता है? वह तो बीत चुका है. भविष्य से बाकी का जीवन जुड़ा होता है. उसे याद आया - जब कभी वह बचपन में बीमार पड़ता था तो सब से अधिक उसकी चिंता बाबूजी ही किया करते थे. वह उसे गोदी में टाँगे फिरते थे. अपने काम तक कि उन्हें परवाह नहीं रहती थी. किसी तरह से कैसे भी उनका संजय बस ठीक हो जाए. फल-दूध-दवाई, सभी चीज़ों का ध्यान बाबूजी ही विधिवत तथा नियमित रूप से रखते थे. मजाल नहीं कि उनके प्रिय बेटे संजय को कोई कुछ कह भी दे. उसके आराम का पूरा ख़याल रखते थे बाबू जी. जब उसकी तबीयत ठीक हो जाती तो वह चैन की साँस ले पाते थे. अपनी सारी संतानों में संजय उनकी सर्वप्रिय संतान थी. उन्होंने ही तो बड़े चाव से उसे पढ़ाया लिखाया था... एडमीशन, हॉस्टल का खर्चा, कॉपी किताबों का खर्चा. उसकी मनमाफ़िक कपड़े लत्ते का खर्च. उन्हें कहीं से कर्ज़ क्यों न लेना पड़े, उसकी मन पसंद इच्छा तो ज़रूर ही पूरी करनी थी.
आज वह एक प्रतिष्ठित प्रतिष्ठान में एक बड़ा अधिकारी बन गया था. शायद बाबू जी के आशीर्वाद व कर्मठता के कारण ही तो परन्तु यह सब अतीत है, बीत चुका है... उसके सामने अब उसकी फैमिली है, बीबी है, बच्चे हैं. वह सोचता "दैट इज द थिंग ऑफ़ पास्ट ओनली, एण्ड नथिंग एल्स. यदि बीबी की न सुनूँ तो घर में कलह, अशांति. बाबू जी की करो तो आख़िर उनका तो टूटा फूटा कुछ चल ही रहा है, उम्र ही वकील है, व खुद ही अपराधी भी है, इसलिए अतीत व वर्तमान के बीच तटस्थ रहना ही ठीक है. शायद बाबू जी ने अपनी परम्परा ही निभाई होगी, पिता के कर्त्तव्य के तहत. परन्तु मेरा अजय तो समझदार है. वह वही करेगा जो उसके माता-पिता चाहेंगे. समय बदल गया है तो परम्पराएँ भी बदली हैं. समय ही परम्परा को शायद अब जन्म देता है. परम्परा समय के अधीन नहीं रह गई है है. परिस्थितियों के अनुसार परम्पराओं का कर्त्तव्यों का, निर्धारण किया जा सकता है, आज के समय में..." संजय को नींद आने लगी थी. वह अपने सुखद डबल बेड पर धीमी रोशनी में आराम से सो गया. थोड़ी ही देर में शान्ता भी उसी बेड में आकर सो जाएगी... बस इससे अधिक सुखमय वर्तमान और क्या हो सकता है?
दूसरे दिन अस्पताल से संजय के पास ख़बर आई कि "उनके द्वारा एडमिट किया गया मरीज अपना बिस्तर छोड़कर जाने कहाँ भाग गया है. मरीज अगर पहुँच गया हो तो सूचित करें वरना पुलिस में गुम होने की रिपोर्ट देनी पड़ेगी." इस ख़बर से संजय व शान्ता तो घबरा ही उठी, "कहाँ गए बाबूजी? अब क्या होगा? इस ख़बर को सुनते ही अजय तुरन्त अस्पताल भागा और फिर रेलवे स्टेशन. फिर उसके बाबा जी कहाँ-कहाँ जाते रहते हैं, उन्हीं स्थानों की सूची बनाई और एक-एक कर अपने स्कूटर से उन स्थानों में ढूँढ़ने लगा - आख़िर में उसने पा ही लिया कि उसके बाबा अपने प्रिय मित्र संतोष के यहाँ उनकी कोठी के गार्डन में संतोष के साथ ही घास पर बैठे हुक्का गुड़गुड़ा रहे थे. अजय कि जान में जान आई के चलो उसके बाबा सही सलामत तो हैं. फिर भी वह दोनों बुज़ुर्गों की बातचीत सुनने के लिए जरा सी ओट लेकर खड़ा हो गया. बाबा की आवाज़ आ रही थी "मैंने क्या नहीं किया संतोष इस अपने पुत्र संजय के लिए, अपना पेट काट-काटकर इसे पढ़ाया लिखाया, इसकी माँ के जेवर तक बेच दिए, क्योंकि तू तो जानता है मेरी आमदनी कहाँ ज्यादा थी. फिर तीन-तीन बेटियों का ब्याह, उनका भी खर्चा. आख़िर बेचारी संजय की माँ भी चल बसी. उसका इलाज बड़ी जगह अगर हो पाता तो शायद वह बच भी जाती, पर अपने बच्चों के भविष्य व उनकी तरक्की की कामना के लिए वह मुझसे तब उलझ जाती जब मैं उसे बड़े शहर में उचित इलाज के लिए चलने पर जोर देता... आज अगर संजय की माँ जीवित होती तो क्या मुझे अपने ही घर से बेघर होना पड़ता संतोष?"
अजय ने देखा इतना कहते हुए बाबाजी का गला रूँध गया था, आँखों से बेबसी कि अश्रुधारा प्रवाहित हो चली थी. उनके मित्र उन्हें सांत्वना दे रहे थे. वह कर रहे थे - इस दुनिया में ऐसा ही होता है पुरुषोत्तम, जब तक इंसान के हाथों में शक्ति होती है है, तभी तक रिश्ते-नाते पुत्र-पुत्रियों सभी अपने होते हैं. असमर्थता का नाम ही वृद्धावस्था है. तू रो मत पुरुषोत्तम! मैं हूँ न, अब शांत हो जाओ." पुरुषोत्तम बाबा सिसकते हुए कह रहे थे - संतोष मैंने अपने कानों से शान्ता को संजय से कहते सुना था "अब तो भगवान तुम्हारे पिता को शान्ति दें... अस्सी साल के तो हो ही लिए. सारे दिन खाँसते रहते हैं. पूरा इतना बड़ा कमरा घेर रखा है, ये न रहें तो अपने सोफ़े, डबल बेड, टी. वी. सेट टेपरिकॉर्डर सब करीने से इसी कमरे में ऐसा सजा दूँ कि बस तुम देखते ही रह जाओगे. बहुत दिन जी लिए तुम्हारे पिता श्री, मेरे पास कहाँ इतना समय है कि उनकी तीमारदारी करती रहूँ, ऐसा करो इन्हें किसी आश्रम में"... तभी मेरे चलने की आहट से वह चुप हो गई. संजय चुपचाप तटस्थ बना निर्प्राय बना सा सुनता रहा. मानो मैं उसका पिता नहीं उसकी ड्राइंग रूम में रखी कोई अशोभनीय वस्तु हूँ, जिसको हटा देने पर उसका वह रूम खिल उठेगा. उसने शान्ता का कोई प्रतिवाद नहीं किया. बस इतना कहरकर वह उठकर बाहर चला गया "बाबूजी कर क्या रहे है. इतना दिन चढ़ गया अभी पड़े सो ही रहे होंगे. मुझे तो बस यही बात अखरती है कि जब भी मैं उनसे कहता हूँ कि वह अपनी पेंशन अमाऊंट को मेरे बैंक अकाउंट में ही डलवा दें तो सुनी अनसुनी कर देते है. अपनी ब्याही बेटियों पर वह कुछ न कुछ राशि खर्चे करते ही रहते हैं यह नहीं कि वह सब जोड़कर रखें आख़िर उनकी हारी-बीमारी भी तो है." संजय बाहर जा चुका था. शान्ता मेरी चलने की आवाज़ सुनकर खुद तो चुप हो गई और संजय को इतनी देर बोलने दिया ताकि मैं सुनूँ और संजय मेरी निगाहों में और भी ज्यादा गिर जाए. संतोष नें कहा "परन्तु पुरुषोत्तम, तुम्हारा पोता तो तुम बताते थे कि बड़ा लायक है, अपने बाबा के प्रति उसे बडी शृद्धा है."
बाबा पुरुषोत्तम स्वीकार करते हुये बोले - हाँ भई, संतोष, मेरा पोता जैसे-जैसे बड़ा हो रहा है, वैसे-वैसे अपने हर क्षेत्र में बहुत समझदार होता जा रहा है. वह अब युवा हो चला है. उसके बचपन से ही मैंने उसे संभाला है. जब संजय शान्ता कई दिनों के लिए कहीं बाहर चले जाते तब मैं ही उसकी पूरी देखभाल करता था. उसे खेल खिलाता खूब खिलाता, पिलाता रहता. जब वह दो तीन साल का था तो मेरी गोद से उतरता कहाँ था. अपनी लीलाओं से मुझे इतना वह रिझा देता कि मैं अपने सारे गम तनाव भूल जाता. बड़ा शैतान था. मेरी चीज़ों को तो वह बस फेंकता ही रहता था. जब कभी मैं टी. वी. देखने बैठता, तो अजय जी मेरे पास आकर तुरन्त मेरा देखने वाला चैनल ही अपनी उंगुलियों से बटन दबा कर गायब कर देते और फिर उसकी अनोखी बाल खिलखिलाहट से मुझे टी. वी. से ज्यादा उससे आनन्द आता. भई संतोष, यदि मेरा पोता अजय उस घर में न होता तो अब तक तो मैं खुद ही किसी वृद्ध आश्रम में जीवन से दिन बिताने पहुँच गया होता. उसको तो मेरे प्रति बहुत ही श्रद्धा है." इतना कहने पर उसे लगा बाबाजी की मुखाकृति बदल सी चुकी थी. अभी कुछ क्षण पहले का अवसाद मय चेहरा किसी आन्तरिक संवेदना के कारण कुछ चमक सा उठा था. युवावस्था में कदम रख चुके अजय को अब आगे अपने बाबा की व्यथाओं को सुनना बड़ा भारी पड़ रहा था. सो वह उस समय चुपचाप वहाँ से चल पड़ा और अपना स्कूटर दौड़ाते हुए अपने घर पहुँच गया. उसने देखा घर पर कुछ पड़ोसी खड़े थे. उसकी माँ शान्ता दु:खी होने का मानो अभिनय सा कर रही थी. अजय को देखते ही खड़े हुए लोगों के अंदर जिज्ञासा उभर आई थी.
शान्ता जोर से बोल पड़ी "कहाँ हैं? अजय तेरे बाबा जी? कहीं पता चला उनका?" अजय पर कोई प्रतिक्रिया तो नहीं हुई पर वह बोला "मम्मी, पापा कहाँ हैं?" शान्ता ने कहा - "अरे वह तो परेशान हो रहे हैं अभी-अभी तो थाने से वे अस्पताल से लौटे हैं थक गए हैं, तेरे पापा अन्दर सो रहे हैं..."
अजय अपना स्कूटर खड़ा करके तुरन्त अन्दर चला गया... शान्ता भी अन्दर-अन्दर भागी. अजय ने यह नहीं बताया कि बाबा कहाँ हैं. वह चुपचाप एक कुर्सी लेकर बैठ गया. चिंता व वित्रिष्णा के मिश्रित भाव उसके चेहरे पर साफ़ दिखाई पड़ रहे थे. वह बोलना चाहकर भी नहीं कुछ बोल पा रहा था. फिर भी बड़ी कठिनाई से उसने शान्ता से कहा "मम्मी जरा पापा को जगा देना उनसे कुछ बातें करनी हैं."
शान्ता ने समझा "उसके ससुर ने कहीं आत्महत्या तो नहीं कर ली है और किसी नदी एवं कुएँ में या रेल की पटरी में उनकी डेडबॉडी को देखकर अजय दु:खी होकर आया है और अपने पिता कि ही बताना चाह रहा है. कहीं कोई पुलिस केस न हो गया हो, " सो उसने तुरन्त संजय के बेड के पास पहुँचकर उसे जगा कर कहा 'सुनो अजय आ गया है, बड़ा सीरियस हो रहा है. मुझे तो कुछ बता नहीं रहा है, शायद तुम्हें कुछ बताना चाह रहा है." इतना सुनते ही संजय की नींद गायब सी हो गई और वह हड़बड़ा कर उठ गया और बोला "कहाँ है अजय, उसको यहीं बुला लो न..." शान्ता के बुलाने पर अजय अपनी मम्मी व पापा के बीच वहीं पर आकर चुपचाप बैठ गया.
संजय कुछ संयत सा होता हुआ बोला "बेटा क्या बात है? सब ठीक है न"
तभी शान्ता एकाएक बोल उठी,
"तुम्हारे बाबा तो ठीक हैं कहीं..."
'नहीं कुछ नहीं है..." धीरे से अजय बोला
"फिर तुम इतने उदास क्यों हो रहे हो?" फिर संजय ने प्रश्न किया.
"अभी तक कहाँ थे?"
"बाबाजी के मित्र संतोष जी के घर पर था"
"लेकिन क्यों?" अजय चुप हो गया था.
संजय फिर जोर से बोल उठा -
"आख़िर तुम चुप क्यों हो? क्या सोच रहे हो?"
अजय गम्भीरता के साथ बोला -
"मैं सोच रहा था - काश बाबा के मित्र संतोष जी जैसे व्यक्ति कोई आप लोगों के भी मित्र व मिलने वाले होते?"
"क्यों? क्यों??" संजय आश्चर्य के साथ अजय से मानो इस वाक्य के रहस्य को जानना ही चाह रहा था.
अजय बोला "वह इसलिए कि जब आप लोग बूढ़े हो जाएँगे, लाचार हो उठेंगे, और मैं आपको किसी रूग्ण अवस्था के नाम पर आपको घर से निकालकर किसी वृद्ध आश्रम या सरकारी अस्पताल में दाख़िल करा दूँगा, तब आप लोग अपने किस परम मित्र के घर जाकर आश्रय लेंगे, बाबा जी की भाँति...?"
इस बार तो शान्ता और संजय आश्चर्य व जिज्ञासा की अवस्था में डूबते हुए से घबरा गए. बड़े ही मार्मान्तक आवाज़ में संजय बोल पड़ा -
"पर बेटा, हमने तो तुम्हें पढ़ाया लिखाया है. तुम्हारी शादी ब्याह भी हमीं करेंगे. तुम्हें बड़े दुलार से पालकर इस युवावस्था तक ले आए हैं, फिर भी ऐसा नीच ख़्याल... यह क्या कह रहे हो? होश में तो तुम हो?"
शान्ता बीच में ही बोल पड़ी, "बेटा हमारे इतने प्यार-दुलार के बदले व तुम्हारे सुखद भविष्य के लिए सदा तत्पर रहने पर भी तुम्हें कहीं किसी ने उल्टा-सीधा बहका तो नहीं दिया है...?"
अजय अभी तक गम्भीर ही था, बोला - "यही सब मेरे बाबा जी ने भी तो आपके लिए किया था. बल्कि आपसे भी अधिक प्रबल भावना से आपको प्यार से दुलार से पाला-पोसा था और आज आप अपने पिता यानी मेरे बाबा के ही प्रयासों के कारण जीवन की सुखद स्थिति में हैं. फिर आप लोगों के द्वारा बाबाजी की इस उम्र में आख़िर उपेक्षा क्यों? उनकी देख-रेख करने वाली दादी जी भी तो नहीं रही... वह कितने अकेले व असहाय रह गए हैं? आप लोगों से कहीं अच्छे इंसान तो उनके मित्र संतोष जी ही हैं. जिन्होंने बड़े ही सम्मान व प्यार से उनको अपने घर में आश्रय दे रखा है."
संजय हतप्रभ हो उठा. भविष्य की दहशत उभर सी पड़ी. अचानक संजय को अपने पुत्र अजय के अन्दर महान मानव दिखाई दिया. उसे म्स बड़ा धक्का सा लगा और वह तुरन्त अपने पिता के मित्र संतोष के घर भागा. पीछे-पीछे शान्ता भी चल पड़ी. दोनों के चेहरों पर भविष्य के प्रति एक दहशत की साफ़-साफ़ भाषा पढ़ी जा सकती थी.
संजय ने देखा उसके पिता, संतोष के घर पर एक सजे-सजाए कमरे मैं बैठे अपने मित्र के साथ ताश खेल रहे थे और संतोष के बेटे की बहू उनके द्वारा किए गए अल्पाहार के बर्तन उठाकर बाहर ला रही थी. आत्मग्लानि की गहरी भावना से संजय ओतप्रोत हो उठा था. वह तुरन्त अपने पिता के चरणों पर गिर पड़ा और फ़फ़क-फ़फ़क कर रोने लगा. शान्ता भी विक्षोफित व संवेदनशील हो उठी थी. परन्तु उनके पिता को बड़ा ही आश्चर्य हो रहा था आख़िर यह परिवर्तन कैसे? क्यों? तभी दौड़कर आए अपने पोते अजय को देखा जिसकी मुखाकृति उल्लास, विजय व संतोष की मिली जुली प्रतिक्रियाओं से आच्छादित हो रही थी. उसके अनुभवी बाबाजी बहुत कुछ समझ गए थे. तभी संजय बोल पड़ा.
"पिताजी मुझे माफ़ कर दीजिये.." शान्ता भी बोल रही थी "पिताजी, मेरे कारण ही आप को इतना कष्ट पहुँचा है. सब प्रकार से समर्थ होते हुए भी मैंने आपको घर से बाहर केवल बुख़ार के कारण अस्पताल ले जाकर दाख़िल कर आई और आपके पुत्र से भी झूठ बोली, उन्हें बहका दिया. आप मुझे क्षमा करें, आप बहुत बड़े हैं महान हैं. मैं तो बस बड़ी नासमझ हूँ पिताजी."
अपने बच्चों की इस परिवर्तनशील भावनाओं से प्रभावित पुरुषोत्तम स्वयं भावुक हो उठे. धीरे से वह बोले - "नहीं मेरे बच्चों! मैं नाराज़ नहीं हूँ. फिर मेरे "मूलधन" से अधिक मेरा "ब्याजधन" प्रबल है. बड़ा है, बहुत अधिक बड़ा है, यानि जिसका पौत्र इतना बड़ा लायक हो, अपने बाबा के प्रति जिसे इतनी श्रद्धा हो, वह वृद्ध अपने को दीनहीन कैसे समझ सकता है? मेरा अजय तो लाखों में एक है."
संजय ने कहा - "चलिये पिताजी अब अधिक देर मत कीजिए अपने घर पर चलिए."
तभी संतोष बोल उठे "देख भई संजय! और बहू शान्ता!! मेरे मित्र को अब कोई दुख न होणा चाहिए. जो हुआ, सो हुआ. पुरुषोत्तम मेरा गहरा दोस्त रहा है. मेरे बेटे बहू इसकी सेवा से कभी पीछे नहीं हटेंगे..." और संजय अपने पिता के इस आदर्श मित्र के चरणों में झुक गया था. शान्ता घर चलने के लिए अपने श्वसुर को सहारा देकर उठा रही थी और उसके श्वसुर पुरुषोत्तम उठकर खड़े हो गए और अपने परम मित्र संतोष को गले लगाकर स्नेह प्रदान करने लगे थे. तभी अजय को संतोष ने बुला लिया और बोले "बेटा तू सदा सुखी रह." अजय सिर झुकाकर अपने बाबा व उनके मित्र संतोष को प्रणाम कर रहा था और दोनों वृद्धों के वर्दहस्त उसे आशीर्वाद प्रदान करने की मुद्रा में हवा में लहरा रहे थे.
दूसरे दिन अस्पताल से संजय के पास ख़बर आई कि "उनके द्वारा एडमिट किया गया मरीज अपना बिस्तर छोड़कर जाने कहाँ भाग गया है. मरीज अगर पहुँच गया हो तो सूचित करें वरना पुलिस में गुम होने की रिपोर्ट देनी पड़ेगी." इस ख़बर से संजय व शान्ता तो घबरा ही उठी, "कहाँ गए बाबूजी? अब क्या होगा? इस ख़बर को सुनते ही अजय तुरन्त अस्पताल भागा और फिर रेलवे स्टेशन. फिर उसके बाबा जी कहाँ-कहाँ जाते रहते हैं, उन्हीं स्थानों की सूची बनाई और एक-एक कर अपने स्कूटर से उन स्थानों में ढूँढ़ने लगा - आख़िर में उसने पा ही लिया कि उसके बाबा अपने प्रिय मित्र संतोष के यहाँ उनकी कोठी के गार्डन में संतोष के साथ ही घास पर बैठे हुक्का गुड़गुड़ा रहे थे. अजय कि जान में जान आई के चलो उसके बाबा सही सलामत तो हैं. फिर भी वह दोनों बुज़ुर्गों की बातचीत सुनने के लिए जरा सी ओट लेकर खड़ा हो गया. बाबा की आवाज़ आ रही थी "मैंने क्या नहीं किया संतोष इस अपने पुत्र संजय के लिए, अपना पेट काट-काटकर इसे पढ़ाया लिखाया, इसकी माँ के जेवर तक बेच दिए, क्योंकि तू तो जानता है मेरी आमदनी कहाँ ज्यादा थी. फिर तीन-तीन बेटियों का ब्याह, उनका भी खर्चा. आख़िर बेचारी संजय की माँ भी चल बसी. उसका इलाज बड़ी जगह अगर हो पाता तो शायद वह बच भी जाती, पर अपने बच्चों के भविष्य व उनकी तरक्की की कामना के लिए वह मुझसे तब उलझ जाती जब मैं उसे बड़े शहर में उचित इलाज के लिए चलने पर जोर देता... आज अगर संजय की माँ जीवित होती तो क्या मुझे अपने ही घर से बेघर होना पड़ता संतोष?"
अजय ने देखा इतना कहते हुए बाबाजी का गला रूँध गया था, आँखों से बेबसी कि अश्रुधारा प्रवाहित हो चली थी. उनके मित्र उन्हें सांत्वना दे रहे थे. वह कर रहे थे - इस दुनिया में ऐसा ही होता है पुरुषोत्तम, जब तक इंसान के हाथों में शक्ति होती है है, तभी तक रिश्ते-नाते पुत्र-पुत्रियों सभी अपने होते हैं. असमर्थता का नाम ही वृद्धावस्था है. तू रो मत पुरुषोत्तम! मैं हूँ न, अब शांत हो जाओ." पुरुषोत्तम बाबा सिसकते हुए कह रहे थे - संतोष मैंने अपने कानों से शान्ता को संजय से कहते सुना था "अब तो भगवान तुम्हारे पिता को शान्ति दें... अस्सी साल के तो हो ही लिए. सारे दिन खाँसते रहते हैं. पूरा इतना बड़ा कमरा घेर रखा है, ये न रहें तो अपने सोफ़े, डबल बेड, टी. वी. सेट टेपरिकॉर्डर सब करीने से इसी कमरे में ऐसा सजा दूँ कि बस तुम देखते ही रह जाओगे. बहुत दिन जी लिए तुम्हारे पिता श्री, मेरे पास कहाँ इतना समय है कि उनकी तीमारदारी करती रहूँ, ऐसा करो इन्हें किसी आश्रम में"... तभी मेरे चलने की आहट से वह चुप हो गई. संजय चुपचाप तटस्थ बना निर्प्राय बना सा सुनता रहा. मानो मैं उसका पिता नहीं उसकी ड्राइंग रूम में रखी कोई अशोभनीय वस्तु हूँ, जिसको हटा देने पर उसका वह रूम खिल उठेगा. उसने शान्ता का कोई प्रतिवाद नहीं किया. बस इतना कहरकर वह उठकर बाहर चला गया "बाबूजी कर क्या रहे है. इतना दिन चढ़ गया अभी पड़े सो ही रहे होंगे. मुझे तो बस यही बात अखरती है कि जब भी मैं उनसे कहता हूँ कि वह अपनी पेंशन अमाऊंट को मेरे बैंक अकाउंट में ही डलवा दें तो सुनी अनसुनी कर देते है. अपनी ब्याही बेटियों पर वह कुछ न कुछ राशि खर्चे करते ही रहते हैं यह नहीं कि वह सब जोड़कर रखें आख़िर उनकी हारी-बीमारी भी तो है." संजय बाहर जा चुका था. शान्ता मेरी चलने की आवाज़ सुनकर खुद तो चुप हो गई और संजय को इतनी देर बोलने दिया ताकि मैं सुनूँ और संजय मेरी निगाहों में और भी ज्यादा गिर जाए. संतोष नें कहा "परन्तु पुरुषोत्तम, तुम्हारा पोता तो तुम बताते थे कि बड़ा लायक है, अपने बाबा के प्रति उसे बडी शृद्धा है."
बाबा पुरुषोत्तम स्वीकार करते हुये बोले - हाँ भई, संतोष, मेरा पोता जैसे-जैसे बड़ा हो रहा है, वैसे-वैसे अपने हर क्षेत्र में बहुत समझदार होता जा रहा है. वह अब युवा हो चला है. उसके बचपन से ही मैंने उसे संभाला है. जब संजय शान्ता कई दिनों के लिए कहीं बाहर चले जाते तब मैं ही उसकी पूरी देखभाल करता था. उसे खेल खिलाता खूब खिलाता, पिलाता रहता. जब वह दो तीन साल का था तो मेरी गोद से उतरता कहाँ था. अपनी लीलाओं से मुझे इतना वह रिझा देता कि मैं अपने सारे गम तनाव भूल जाता. बड़ा शैतान था. मेरी चीज़ों को तो वह बस फेंकता ही रहता था. जब कभी मैं टी. वी. देखने बैठता, तो अजय जी मेरे पास आकर तुरन्त मेरा देखने वाला चैनल ही अपनी उंगुलियों से बटन दबा कर गायब कर देते और फिर उसकी अनोखी बाल खिलखिलाहट से मुझे टी. वी. से ज्यादा उससे आनन्द आता. भई संतोष, यदि मेरा पोता अजय उस घर में न होता तो अब तक तो मैं खुद ही किसी वृद्ध आश्रम में जीवन से दिन बिताने पहुँच गया होता. उसको तो मेरे प्रति बहुत ही श्रद्धा है." इतना कहने पर उसे लगा बाबाजी की मुखाकृति बदल सी चुकी थी. अभी कुछ क्षण पहले का अवसाद मय चेहरा किसी आन्तरिक संवेदना के कारण कुछ चमक सा उठा था. युवावस्था में कदम रख चुके अजय को अब आगे अपने बाबा की व्यथाओं को सुनना बड़ा भारी पड़ रहा था. सो वह उस समय चुपचाप वहाँ से चल पड़ा और अपना स्कूटर दौड़ाते हुए अपने घर पहुँच गया. उसने देखा घर पर कुछ पड़ोसी खड़े थे. उसकी माँ शान्ता दु:खी होने का मानो अभिनय सा कर रही थी. अजय को देखते ही खड़े हुए लोगों के अंदर जिज्ञासा उभर आई थी.
शान्ता जोर से बोल पड़ी "कहाँ हैं? अजय तेरे बाबा जी? कहीं पता चला उनका?" अजय पर कोई प्रतिक्रिया तो नहीं हुई पर वह बोला "मम्मी, पापा कहाँ हैं?" शान्ता ने कहा - "अरे वह तो परेशान हो रहे हैं अभी-अभी तो थाने से वे अस्पताल से लौटे हैं थक गए हैं, तेरे पापा अन्दर सो रहे हैं..."
अजय अपना स्कूटर खड़ा करके तुरन्त अन्दर चला गया... शान्ता भी अन्दर-अन्दर भागी. अजय ने यह नहीं बताया कि बाबा कहाँ हैं. वह चुपचाप एक कुर्सी लेकर बैठ गया. चिंता व वित्रिष्णा के मिश्रित भाव उसके चेहरे पर साफ़ दिखाई पड़ रहे थे. वह बोलना चाहकर भी नहीं कुछ बोल पा रहा था. फिर भी बड़ी कठिनाई से उसने शान्ता से कहा "मम्मी जरा पापा को जगा देना उनसे कुछ बातें करनी हैं."
शान्ता ने समझा "उसके ससुर ने कहीं आत्महत्या तो नहीं कर ली है और किसी नदी एवं कुएँ में या रेल की पटरी में उनकी डेडबॉडी को देखकर अजय दु:खी होकर आया है और अपने पिता कि ही बताना चाह रहा है. कहीं कोई पुलिस केस न हो गया हो, " सो उसने तुरन्त संजय के बेड के पास पहुँचकर उसे जगा कर कहा 'सुनो अजय आ गया है, बड़ा सीरियस हो रहा है. मुझे तो कुछ बता नहीं रहा है, शायद तुम्हें कुछ बताना चाह रहा है." इतना सुनते ही संजय की नींद गायब सी हो गई और वह हड़बड़ा कर उठ गया और बोला "कहाँ है अजय, उसको यहीं बुला लो न..." शान्ता के बुलाने पर अजय अपनी मम्मी व पापा के बीच वहीं पर आकर चुपचाप बैठ गया.
संजय कुछ संयत सा होता हुआ बोला "बेटा क्या बात है? सब ठीक है न"
तभी शान्ता एकाएक बोल उठी,
"तुम्हारे बाबा तो ठीक हैं कहीं..."
'नहीं कुछ नहीं है..." धीरे से अजय बोला
"फिर तुम इतने उदास क्यों हो रहे हो?" फिर संजय ने प्रश्न किया.
"अभी तक कहाँ थे?"
"बाबाजी के मित्र संतोष जी के घर पर था"
"लेकिन क्यों?" अजय चुप हो गया था.
संजय फिर जोर से बोल उठा -
"आख़िर तुम चुप क्यों हो? क्या सोच रहे हो?"
अजय गम्भीरता के साथ बोला -
"मैं सोच रहा था - काश बाबा के मित्र संतोष जी जैसे व्यक्ति कोई आप लोगों के भी मित्र व मिलने वाले होते?"
"क्यों? क्यों??" संजय आश्चर्य के साथ अजय से मानो इस वाक्य के रहस्य को जानना ही चाह रहा था.
अजय बोला "वह इसलिए कि जब आप लोग बूढ़े हो जाएँगे, लाचार हो उठेंगे, और मैं आपको किसी रूग्ण अवस्था के नाम पर आपको घर से निकालकर किसी वृद्ध आश्रम या सरकारी अस्पताल में दाख़िल करा दूँगा, तब आप लोग अपने किस परम मित्र के घर जाकर आश्रय लेंगे, बाबा जी की भाँति...?"
इस बार तो शान्ता और संजय आश्चर्य व जिज्ञासा की अवस्था में डूबते हुए से घबरा गए. बड़े ही मार्मान्तक आवाज़ में संजय बोल पड़ा -
"पर बेटा, हमने तो तुम्हें पढ़ाया लिखाया है. तुम्हारी शादी ब्याह भी हमीं करेंगे. तुम्हें बड़े दुलार से पालकर इस युवावस्था तक ले आए हैं, फिर भी ऐसा नीच ख़्याल... यह क्या कह रहे हो? होश में तो तुम हो?"
शान्ता बीच में ही बोल पड़ी, "बेटा हमारे इतने प्यार-दुलार के बदले व तुम्हारे सुखद भविष्य के लिए सदा तत्पर रहने पर भी तुम्हें कहीं किसी ने उल्टा-सीधा बहका तो नहीं दिया है...?"
अजय अभी तक गम्भीर ही था, बोला - "यही सब मेरे बाबा जी ने भी तो आपके लिए किया था. बल्कि आपसे भी अधिक प्रबल भावना से आपको प्यार से दुलार से पाला-पोसा था और आज आप अपने पिता यानी मेरे बाबा के ही प्रयासों के कारण जीवन की सुखद स्थिति में हैं. फिर आप लोगों के द्वारा बाबाजी की इस उम्र में आख़िर उपेक्षा क्यों? उनकी देख-रेख करने वाली दादी जी भी तो नहीं रही... वह कितने अकेले व असहाय रह गए हैं? आप लोगों से कहीं अच्छे इंसान तो उनके मित्र संतोष जी ही हैं. जिन्होंने बड़े ही सम्मान व प्यार से उनको अपने घर में आश्रय दे रखा है."
संजय हतप्रभ हो उठा. भविष्य की दहशत उभर सी पड़ी. अचानक संजय को अपने पुत्र अजय के अन्दर महान मानव दिखाई दिया. उसे म्स बड़ा धक्का सा लगा और वह तुरन्त अपने पिता के मित्र संतोष के घर भागा. पीछे-पीछे शान्ता भी चल पड़ी. दोनों के चेहरों पर भविष्य के प्रति एक दहशत की साफ़-साफ़ भाषा पढ़ी जा सकती थी.
संजय ने देखा उसके पिता, संतोष के घर पर एक सजे-सजाए कमरे मैं बैठे अपने मित्र के साथ ताश खेल रहे थे और संतोष के बेटे की बहू उनके द्वारा किए गए अल्पाहार के बर्तन उठाकर बाहर ला रही थी. आत्मग्लानि की गहरी भावना से संजय ओतप्रोत हो उठा था. वह तुरन्त अपने पिता के चरणों पर गिर पड़ा और फ़फ़क-फ़फ़क कर रोने लगा. शान्ता भी विक्षोफित व संवेदनशील हो उठी थी. परन्तु उनके पिता को बड़ा ही आश्चर्य हो रहा था आख़िर यह परिवर्तन कैसे? क्यों? तभी दौड़कर आए अपने पोते अजय को देखा जिसकी मुखाकृति उल्लास, विजय व संतोष की मिली जुली प्रतिक्रियाओं से आच्छादित हो रही थी. उसके अनुभवी बाबाजी बहुत कुछ समझ गए थे. तभी संजय बोल पड़ा.
"पिताजी मुझे माफ़ कर दीजिये.." शान्ता भी बोल रही थी "पिताजी, मेरे कारण ही आप को इतना कष्ट पहुँचा है. सब प्रकार से समर्थ होते हुए भी मैंने आपको घर से बाहर केवल बुख़ार के कारण अस्पताल ले जाकर दाख़िल कर आई और आपके पुत्र से भी झूठ बोली, उन्हें बहका दिया. आप मुझे क्षमा करें, आप बहुत बड़े हैं महान हैं. मैं तो बस बड़ी नासमझ हूँ पिताजी."
अपने बच्चों की इस परिवर्तनशील भावनाओं से प्रभावित पुरुषोत्तम स्वयं भावुक हो उठे. धीरे से वह बोले - "नहीं मेरे बच्चों! मैं नाराज़ नहीं हूँ. फिर मेरे "मूलधन" से अधिक मेरा "ब्याजधन" प्रबल है. बड़ा है, बहुत अधिक बड़ा है, यानि जिसका पौत्र इतना बड़ा लायक हो, अपने बाबा के प्रति जिसे इतनी श्रद्धा हो, वह वृद्ध अपने को दीनहीन कैसे समझ सकता है? मेरा अजय तो लाखों में एक है."
संजय ने कहा - "चलिये पिताजी अब अधिक देर मत कीजिए अपने घर पर चलिए."
तभी संतोष बोल उठे "देख भई संजय! और बहू शान्ता!! मेरे मित्र को अब कोई दुख न होणा चाहिए. जो हुआ, सो हुआ. पुरुषोत्तम मेरा गहरा दोस्त रहा है. मेरे बेटे बहू इसकी सेवा से कभी पीछे नहीं हटेंगे..." और संजय अपने पिता के इस आदर्श मित्र के चरणों में झुक गया था. शान्ता घर चलने के लिए अपने श्वसुर को सहारा देकर उठा रही थी और उसके श्वसुर पुरुषोत्तम उठकर खड़े हो गए और अपने परम मित्र संतोष को गले लगाकर स्नेह प्रदान करने लगे थे. तभी अजय को संतोष ने बुला लिया और बोले "बेटा तू सदा सुखी रह." अजय सिर झुकाकर अपने बाबा व उनके मित्र संतोष को प्रणाम कर रहा था और दोनों वृद्धों के वर्दहस्त उसे आशीर्वाद प्रदान करने की मुद्रा में हवा में लहरा रहे थे.
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