21 January, 2014

प्रेम- -वीरेंद्र कुमार

‘‘कुछ प्रेम नहीं बचा है अब। विकास और समृद्धि जरूर हुई, लेकिन भौतिक रूप से ही, मनुष्य की रागात्मकता और भावात्मकता का किंचित् भी विकास नहीं हुआ है। गरीबी और अभाव थे, लेकिन भावात्मक रूप से आदमी के पास दारिद्र्य नहीं था। अपने राष्ट्र के लिए, अपने शहर अथवा गाँव के लिए आदमी के भीतर कुछ जज्बा था, वह लगाव महसूस करता था, लेकिन अब क्या प्रेम बचा है, शीला!’’
सुरेंद्र सुबह की सैर से लौटकर घर में चाय की चुस्की लेते हुए शीला से कह रहा है। शीला ने केटली से थोड़ी और गरम चाय सुरेंद्र के कप में उँड़ेलते हुए हामी भरी—
‘‘बिलकुल ठीक सुरेंद्र, पर इसके साथ ही बहन-भाई, माता-पिता, पुत्र-पुत्री यानी इन तमाम रिश्तों के बीच भी रागात्मकता कहाँ दिखाई पड़ रही है? बस पति-पत्नी के बीच प्रेम दिखाई दे रहा है। न भाई के लिए अब बहन का मतलब है और न बहन ही कहीं भाई को पूछ रही है, न किसी को माँ की चिंता है और न पिता की।’’ शीला कुछ जल्दी-जल्दी बोली। 
‘‘पति-पत्नी में भी कहीं-कहीं प्रेम है, शीला। अगर परत-दर-परत हटाती जाओ तो सच्चाई की तसवीर सामने आ जाएगी।’’ सुरेंद्र गंभीरता से बोला। शीला अपने कप की चाय पीने के बाद कप रखते हुए उत्सुक भाव से सुरेंद्र की ओर देखने लगी और सुरेंद्र कहता गया—
‘‘शीला! याद है, जब मैं साइकिल पर वरुण को आगे बिठाकर (और साइकिल के पीछे तुम नेहा को लेकर गोदी में लेकर बैठ जाती थीं) साइकिल चलाता था तो कैसे घर-गृहस्थी के दिन बीतते थे। तुम अँगीठी लगाती थीं मैं बोरी में कोयले भरकर साइकिल से तुम्हारे लिए लाता था। हम कैसे दो चारपाइयों पर रात गुजार लेते थे। गरमियों की रात में कभी बिजली चली जाती थी तो कैसे आँगन में चारपाई डालकर सो जाते थे और सर्दियों में तुम जो स्वेटर बुनती थीं, उसी से सर्दियाँ कट जाती थीं, लेकिन कभी हमारे बीच तनाव और मतभेद नहीं आया...और कभी कड़वाहट नहीं आई एक-दूसरे के लिए। कुछ पता नहीं चला, इतना लंबा समय कैसे बीत गया, शीला।’’
‘‘सुरेंद्र, तुम्हारे अपरिमित प्यार के बल पर अभाव और गरीबी के पहाड़ से दिखाई देनेवाले दिन कैसे मधुरता से बीत गए, सचमुच पता ही नहीं चला। आखिरी दिनों में वेतन के थोड़े से रुपयों को देखकर कभी-कभी मैं चिंतित हो जाती थी। कैसे चलेगा काम, अभी तो काफी दिन बचे हैं महीने में, परंतु सुरेंद्र, हमारा वह अभाववाला समय कभी हमें यंत्रणादायी नहीं लगा। बड़े मजे से हम दोनों ने उसे जिया।’’ शीला ने सुरेंद्र की बात-में-बात जोड़ते हुए कहा। 
‘‘और इसके साथ बड़े-बुजुर्ग भी घर में थे, यानी मेरे माता-पिता, जिनसे तुम्हें कोई तकलीफ नहीं हुई। सच शीला, मैंने कभी जिंदगी में नहीं पाया कि तुमने मेरे माता-पिता की किसी बात पर मुझसे कोई शिकायत की हो। उलटे कभी मेरी किसी बात पर पिताजी से असहमति हो जाती थी तो तुम हमेशा अपने ससुर की तरफ से ही बोलती थीं।’’ सुरेंद्र के भीतर का दर्द जुबान पर आ रहा था। शीला सुनती गई। 
‘‘और अब देख रही हो, आज घर में कार है, टेलीविजन है, फ्रिज है, टेलीफोन है, मोबाइल फोन है, और गरमियों के लिए एयर कंडीशन लगा है, रसोई में गैस आ गई है, सुंदर-सुंदर फर्नीचर है, अर्थात् क्या नहीं है, घर का काम करनेवाली आती हैं, फिर भी वरुण और उसकी पत्नी की रोज-रोज की चक-चक खत्म नहीं होती है। दोनों कमाते हैं।...चीजें बहुत आ गई हैं, लेकिन सुख घर का साथ छोड़कर कहीं बाहर चला गया, और अब हमें इस सामान की रखवाली के लिए छोड़ दिया गया है।’’ सुरेंद्र अपनी बात कहकर शांत हो गया। कुछ चुप्पी छा गई, फिर कुछ देर के बाद शीला बोली, ‘‘एक बात तो सुरेंद्र, मुझे बहुत खलती है कि चलो सब ठीक है, पर इनमें रोज-रोज क्यों कुछ खटक जाता है। अरे, हमें तो यह ध्यान ही नहीं कि मेरी और तुम्हारी कभी कोई ऐसी बक-बक या झक-झक, तू-तड़ाक हुई हो। दांपत्य की अपनी कुछ गहरी रागात्मकता होती है और उस दृढ़ रागात्मकता के बल पर सभी कष्ट स्वतः ही हट जाते हैं। स्नेह के तार इन दोनों को क्यों नहीं बाँध पाते। वरुण के बेटे को तुम स्कूल छोड़कर आते हो और छुट्टी के समय ले भी आते हो। जब तक वरुण की पत्नी नहीं आती, मैं बहू के दायित्वों को बखूबी सँभाल ही लेती हूँ और तुम उसका सारा होमवर्क करा देते हो। मुझे तो ध्यान नहीं कि मैंने सास-ससुर को कभी कोई जिम्मेदारी सौंपी थी। उन्होंने कुछ अपनी इच्छा से कर लिया तो ठीक, नहीं तो मैं हमेशा ही अपने काम को स्वयं निबटाती थी। पर नका अपना ही झगड़ा रोज-रोज बना रहता है। और मुझे आश्चर्य होता है कि ये किस बात के लिए एक-दूसरे से रूठते हैं।’’
‘‘यह रस्साकसी हो रही है शीला, अपने-अपने सुख के लिए। इन्हें दूसरे से कोई मतलब नहीं। अपना सुख खत्म नहीं होना चाहिए। तुम्हें अभाव में भी तकलीफ नहीं थी, क्योंकि तुम्हारे भीतर मेरे सुख को बनाने की चाह बनी रहती थी और मेरे भीतर तुम्हारे कष्ट दूर करने की चिंता बनी रहती थी। ये चीजें ही अनुराग को और अधिक गहरा बनाती हैं तथा दांपत्य को एक दृढ़ता प्रदान करती हैं। तुम मुझे प्यार करती थीं और करती हो और मैं तुम्हें प्यार करता हूँ और करता रहूँगा। जीवन-उपायों का संघर्ष चलता रहा, लेकिन हमारे बीच का प्रेम कम नहीं हुआ। वरुण और बहू वस्तुओें अर्थात् समान से प्रेम करते हैं। उनके बीच भौतिक समृद्धि दीवार बनकर खड़ी हो गई है। तुम्हें ध्यान नहीं, सप्ताह भर पहले की बात है, जब वरुण नई कार लाया तो दोनों में कैसी स्पर्धा हो रही थी कि नई गाड़ी लेकर मैं ऑफिस जाऊँगा और बहू अड़ी हुई थी कि मेरी गाड़ी तुमने पुरानी कर दी, इसलिए मैं नई गाड़ी लेकर ऑफिस जाऊँगी। और दोनों ऐसे लड़ रहे थे जैसे दो बच्चे गेंद को लेकर लड़ते हैं। जीवन में प्यार की डोर तो समर्पण, त्याग और गहरे स्नेह से जुड़ी होती है, जो तुम्हारे भीतर हमेशा रहा है, जो दूसरों को कुछ देकर प्रसन्न होता है, प्यार वही बढ़ाता है, ये क्या जानें प्यार।’’
बातें होते-होते दोपहर हो गई। लंच का समय निकट आ गया। सुरेंद्र की बातें शीला के अंतस् को आत्मीयता के गहरे समुद्र में हिलोरें पैदा कर रही थीं। सहसा उसे याद आया कि आज मुरारी बापू के सत्संग में भी जाना है, इसलिए सुरेंद्र से कहा, ‘‘चलो, लंच कर लो, फिर जाना भी तो है। तुम्हारी रुचि की कथा आज मुरारी बापू कहने वाले हैं।’’
सुरेंद्र ने घड़ी देखी, ‘‘अरे, दो बज गए, शीला। सत्संग तो बाद में देखा जाएगा, पहले सोनू (पोते) को स्कूल से ले आऊँ, कहीं देर हो गई तो...।’’

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