पावन परिणय की वेला। तिलकोत्सव, विवाहोत्सव की इंद्रधनुषी छटा। घुड़दौड़, नाच और बैंड-बाजों की धूम। फुलझड़ी, पटाखे और आतिशबाजी का धूम-धड़ाका। नारियों के मधुर स्वर में गूँजते मनभावन मंगलगीत। कौन पत्थर दिल होगा, जो इन मंगलगीतों को सुनकर भाव-विह्वल न हो उठे।
अलग-अलग क्षेत्रों तथा अलग-अलग जातियों में विवाह की प्रथा की विभिन्नता की भाँति ही विवाह में गाए जाने वाले मंगलगीतों में भी विभिन्नता पाई जाती है। वर और कन्या पक्ष के मंगलगीत अलग-अलग होते हैं। कन्यापक्ष के गीतों में कहीं माधुर्य की प्रधानता रहती है, तो कहीं करुणा की। ये करुण रस में सने गीत कठोर-से-कठोर इनसान को भी मोम सा पिघलाने में सक्षम होते हैं। दूसरी ओर, वरपक्ष के गीत उमंग, हँसी-खुशी तथा धूमधाम से ओतप्रोत होते हैं। महिलाएँ इन गीतों को बड़ी तन्मयता और लयबद्धता के साथ सामूहिक रूप से गाती हैं। अलग-अलग रस्म-रिवाजों में अलग-अलग गीत गाए जाते हैं। वरपक्ष की ओर से तिलक चढ़ाने के दिन से ही इनकी शुरुआत होती है। फिर शगुन, भतवान, माँटी कोड़ाई, लावा भँुजाई, इमली घोंटाई, हलदी, मातृपूजा, वस्त्रधारण, मौरधारण, परछावन, डोमकच, गोड़ भराई, कोहबर, कंकन छुड़ाई तक अलग-अलग गीत गाए जाते हैं। इसी प्रकार कन्या की तरफ से तिलक, संझा, मांडो, माटी कोड़ाई, कलश स्थापना, हलदी, लावा भुँजाई, मातृपूजा, द्वारपूजा, गुरहत्थी, विवाह, भाँवर, चुमावन, कोहबर, भात, माँड़ो खोलाई, बारात बिदाई, कंकल छुड़ाई, चौथारी तथा गौना के गीत गाने की प्रथा प्रचलित है।
विवाह के गीतों में कहीं कन्या की माँ के द्वारा पिता से कन्या के लिए योग्य वर ढूँढ़़ने का आग्रह होता है, तो कहीं पिता का दर-दर का भटकाव तथा व्याकुलता का मार्मिक वर्णन मिलता है। कोहबर के गीतों में शृंगार का वर्णन होता है तो द्वारपूजा तथा भोजन करते वक्त बारातियों के लिए गाली गाने की प्रथा प्रचलित है। श्रोता बड़े चाव से उन गीतों का रस लेते हुए दिखते हैं। मैथिली में विवाह के गीत ‘लग्नगीत’ के रूप में जाने जाते हैं, जिनका आधुनिक रूप ‘सम्मरि गीत’ है। दरअसल ‘सम्मरि’ स्वयंवर का अपभ्रंश है। राजस्थानी विवाह गीत ‘बेनड़े’ कहे जाते हैं। बेनड़े का अर्थ है—दूल्हा।
शगुन में गाए जाने वाले मंगलगीत में भगवान शिव को संबोधित किया जाता है, जिसमें परिवार के हर सदस्य के द्वारा कुछ-न-कुछ दहेज में दिए जाने का जिक्र भी आता है—
‘गाई के गोबरे महादेव!
आँगन लिपाई
गज-मोतिया हे महादेव!
चउक पुराई
सुनी हे शिव!
बाबा दीहें हाथी से घोड़ा
अम्मा धेनु गाई,
भैया दीहें पीयरि धोती
भउजिया हाथे अँगूठी
सुनी हे शिव!’
‘माटी कोड़ाई’ के एक गीत में कोयल को माध्यम बनाकर दुलहन के मन-ही-मन उल्लसित होने, मायके से ससुराल जाने का वर्णन मिलता है—
‘कौन वने रहलू ए कोइलरि,
कौन वने जालू?
केकरा दुअरवा ए कोइलरि,
उछहलि जालू?’
योग्य वर की खोज में कन्या के पिता की दिन की भूख-प्यास मिट जाती है, राम की आँखों की नींद लुट जाती है। तभी तो कन्या पिता से पूछती है कि कौन सा ग्रहण रात में, कौन सा ग्रहण दिन और कौन सा बेवक्त लगता है। पिता का जबाव होता है कि चंद्रग्रहण रात में लगता है, सूर्यग्रहण दिन में, मगर कन्या-ग्रहण का कोई ठिकाना नहीं कि कब लगे और कब छूटे। पिता गंगा में खड़े होकर सूर्यदेव से प्रार्थना करते हैं कि कन्या का जन्म तभी हो, जब घर में अथाह संपत्ति हो—
‘कौन गरहनवाँ बाबा, साँझे जे लागे
कौन गरहनवाँ भिनुसार?
कौन गरहनवाँ बाबा, औघट लागे
कब धौं गउरह होय?
चंद्र गरहनवाँ बेटी, साँझे जे लागे
सूर्यगरहनवाँ भिनुसार,
धिया गरहनवाँ बेटी, औघट लागे
कब धौं उगरह होय!
गंगा पैठि बाबा सुरूज से विनवत
मोरा बूते धिया जनि देहु,
धियवा जनम तब दीह विधाता
जब घर संपत्ति हो।’
क्वाँरी कन्याएँ शिव मंदिर में पूजा करते हुए अकसर देखी जाती हैं। सीता की पूजा-अर्चना से प्रसन्न होकर शंकर भगवान ने उन्हें मनचाहा वरदान देना चाहा था। सीताजी ने प्रार्थना की थी—
हे शिव! अन्न-धन चाहे जितना दीजिए, आपकी मरजी, मगर स्वामी श्रीराम ही देना, जिन्हें देखते ही हृदय जुड़ा जाए—
‘घुमरि-घुमरि सीता फूलवा चढ़ावे
शिव बाबा देलल असीस,
जवन माँगन तुहूँ माँग शीतल देई
ऊहें माँगन हम देब।
अन्न-धन चाहे जे दीह शिव बाबा!
स्वामी दीह श्रीराम,
पार लगावे जे मोरी नवरिया
जेहि देखि जियरा जुड़ाई।’
विवाह के गीतों में प्रश्नोत्तर की भरमार है। कन्या पिता से पूछती है कि किसके बिना आँगन, किसके बिना लखराँव (लाखों पेड़ वाले आम का बगीचा), किसके बिना द्वार और किसके बिना तालाब सूना हो जाता है?
‘काहे बिनु सून अँगनवा ए बाबा!
काहे बिनु सून लखराँव
काहे बिनु सून दुअरावा ए बाबा!
काहे बिनु पोखरा तोहार?’
पिता उत्तर देते हैं—
‘धिया बिनु सून अँगवान ऐ बेटी!
कोइलरि बिनु सून लखराँव,
पूत बिनु सून दुअरवा ऐ बेटी!
हंस बिनु पोखर हमार।’
अर्थात् हे बेटी! कन्या के बिना आँगन, कोयल के बिना लखराँव, पुत्र के बगैर द्वार और हंस के बगैर तालाब सूना है।
बेटी की विदाई के वक्त पूरे घर में आसुओं की गंगा बह उठती है। पिता के आँसू बाढ़ ला देते हैं, माँ की आँखों के आगे अँधेरा छा जाता है। भाई की धोती तक भीग जाती है, मगर भाभी की आँखें गीली तक नहीं होतीं—
‘बाबा के रोवले गंगा बढि़ अइली
अम्मा के रोवले अनोर,
भैया के रोवले चरण धोती भीजे
भऊजी नयनवाँ ना लोर।’
एक गीत में दुलहन दूल्हे को घर से बाहर कहीं जाने ही नहीं देना चाहती। वह चाहती है कि दूल्हा बराबर उसके सामने रहे—
‘बन्ने! तेरे सेज की चँदा हौंगी
चंदा होके छिटकि रहौंगी,
मैं तेरे दिल में बसौंगी,
जाने न देऊँ वर, पकडि़ रखौंगी!’
इसी प्रकार शादी के बाद रात बहुत लंबी होने और सूर्योदय न होने की कामना करती हुई दुलहन कह उठती है—
‘आज सुहाग की रात, चंदा तुम अइहो!
चंदा तुम अइहो, सुरुज मत अइहा
मोर हिरदा मत बोलेउ,
मोर छतिया विहरि जानि जाइ
तू पह जनि फाटेउ!’
विवाह के मंगलगीतों में विविधता है। कहीं व्यंग्य-विनोद का पुट है, कहीं करुण की पराकाष्ठा है, तो कहीं शृंगार की सरलता। गीतों की प्रस्तुति का आरोह-अवरोह सुनकर संगीत के दिग्गज उस्ताद भी दंग रह जाते हैं। अधिकांश मंगलगीतों में शिव-पार्वती और राम-सीता को आदर्श माना गया है और उन्हीं के जीवन के आधार पर इन गीतों की रचना की गई है।
विवाह के गीतों की रचयिता महिलाएँ ही रही होंगी—ऐसी महिलाएँ, जिनका शिक्षा से दूर का भी नाता नहीं था। पर इन गीतों की भाव-प्रवणता आज भी दिल की गहराई तक पैठ जाती है और सहज, स्वाभाविक तथा सरस चित्रण देखकर पढ़े-लिखे लोग भी दाँतों तले उँगली दबा लेते हैं। ये गीत लोक साहित्य की धरोहर हैं, जो वर्षों से हमारी परंपराओं के साथ चले आ रहे हैं। वैवाहिक रस्मों में ये गीत जान डाल देते हैं और इन्हें सुनकर वर-कन्या पक्ष के लोग मंत्रमुग्ध होने के साथ ही भाव-विह्वल भी हो उठते हैं। यही इन गीतों की सबसे बड़ी उपलब्धि है। काश, इन सुमधुर मंगलगीतों को फिल्मी प्रभाव से बचाया जा सकता!
अलग-अलग क्षेत्रों तथा अलग-अलग जातियों में विवाह की प्रथा की विभिन्नता की भाँति ही विवाह में गाए जाने वाले मंगलगीतों में भी विभिन्नता पाई जाती है। वर और कन्या पक्ष के मंगलगीत अलग-अलग होते हैं। कन्यापक्ष के गीतों में कहीं माधुर्य की प्रधानता रहती है, तो कहीं करुणा की। ये करुण रस में सने गीत कठोर-से-कठोर इनसान को भी मोम सा पिघलाने में सक्षम होते हैं। दूसरी ओर, वरपक्ष के गीत उमंग, हँसी-खुशी तथा धूमधाम से ओतप्रोत होते हैं। महिलाएँ इन गीतों को बड़ी तन्मयता और लयबद्धता के साथ सामूहिक रूप से गाती हैं। अलग-अलग रस्म-रिवाजों में अलग-अलग गीत गाए जाते हैं। वरपक्ष की ओर से तिलक चढ़ाने के दिन से ही इनकी शुरुआत होती है। फिर शगुन, भतवान, माँटी कोड़ाई, लावा भँुजाई, इमली घोंटाई, हलदी, मातृपूजा, वस्त्रधारण, मौरधारण, परछावन, डोमकच, गोड़ भराई, कोहबर, कंकन छुड़ाई तक अलग-अलग गीत गाए जाते हैं। इसी प्रकार कन्या की तरफ से तिलक, संझा, मांडो, माटी कोड़ाई, कलश स्थापना, हलदी, लावा भुँजाई, मातृपूजा, द्वारपूजा, गुरहत्थी, विवाह, भाँवर, चुमावन, कोहबर, भात, माँड़ो खोलाई, बारात बिदाई, कंकल छुड़ाई, चौथारी तथा गौना के गीत गाने की प्रथा प्रचलित है।
विवाह के गीतों में कहीं कन्या की माँ के द्वारा पिता से कन्या के लिए योग्य वर ढूँढ़़ने का आग्रह होता है, तो कहीं पिता का दर-दर का भटकाव तथा व्याकुलता का मार्मिक वर्णन मिलता है। कोहबर के गीतों में शृंगार का वर्णन होता है तो द्वारपूजा तथा भोजन करते वक्त बारातियों के लिए गाली गाने की प्रथा प्रचलित है। श्रोता बड़े चाव से उन गीतों का रस लेते हुए दिखते हैं। मैथिली में विवाह के गीत ‘लग्नगीत’ के रूप में जाने जाते हैं, जिनका आधुनिक रूप ‘सम्मरि गीत’ है। दरअसल ‘सम्मरि’ स्वयंवर का अपभ्रंश है। राजस्थानी विवाह गीत ‘बेनड़े’ कहे जाते हैं। बेनड़े का अर्थ है—दूल्हा।
शगुन में गाए जाने वाले मंगलगीत में भगवान शिव को संबोधित किया जाता है, जिसमें परिवार के हर सदस्य के द्वारा कुछ-न-कुछ दहेज में दिए जाने का जिक्र भी आता है—
‘गाई के गोबरे महादेव!
आँगन लिपाई
गज-मोतिया हे महादेव!
चउक पुराई
सुनी हे शिव!
बाबा दीहें हाथी से घोड़ा
अम्मा धेनु गाई,
भैया दीहें पीयरि धोती
भउजिया हाथे अँगूठी
सुनी हे शिव!’
‘माटी कोड़ाई’ के एक गीत में कोयल को माध्यम बनाकर दुलहन के मन-ही-मन उल्लसित होने, मायके से ससुराल जाने का वर्णन मिलता है—
‘कौन वने रहलू ए कोइलरि,
कौन वने जालू?
केकरा दुअरवा ए कोइलरि,
उछहलि जालू?’
योग्य वर की खोज में कन्या के पिता की दिन की भूख-प्यास मिट जाती है, राम की आँखों की नींद लुट जाती है। तभी तो कन्या पिता से पूछती है कि कौन सा ग्रहण रात में, कौन सा ग्रहण दिन और कौन सा बेवक्त लगता है। पिता का जबाव होता है कि चंद्रग्रहण रात में लगता है, सूर्यग्रहण दिन में, मगर कन्या-ग्रहण का कोई ठिकाना नहीं कि कब लगे और कब छूटे। पिता गंगा में खड़े होकर सूर्यदेव से प्रार्थना करते हैं कि कन्या का जन्म तभी हो, जब घर में अथाह संपत्ति हो—
‘कौन गरहनवाँ बाबा, साँझे जे लागे
कौन गरहनवाँ भिनुसार?
कौन गरहनवाँ बाबा, औघट लागे
कब धौं गउरह होय?
चंद्र गरहनवाँ बेटी, साँझे जे लागे
सूर्यगरहनवाँ भिनुसार,
धिया गरहनवाँ बेटी, औघट लागे
कब धौं उगरह होय!
गंगा पैठि बाबा सुरूज से विनवत
मोरा बूते धिया जनि देहु,
धियवा जनम तब दीह विधाता
जब घर संपत्ति हो।’
क्वाँरी कन्याएँ शिव मंदिर में पूजा करते हुए अकसर देखी जाती हैं। सीता की पूजा-अर्चना से प्रसन्न होकर शंकर भगवान ने उन्हें मनचाहा वरदान देना चाहा था। सीताजी ने प्रार्थना की थी—
हे शिव! अन्न-धन चाहे जितना दीजिए, आपकी मरजी, मगर स्वामी श्रीराम ही देना, जिन्हें देखते ही हृदय जुड़ा जाए—
‘घुमरि-घुमरि सीता फूलवा चढ़ावे
शिव बाबा देलल असीस,
जवन माँगन तुहूँ माँग शीतल देई
ऊहें माँगन हम देब।
अन्न-धन चाहे जे दीह शिव बाबा!
स्वामी दीह श्रीराम,
पार लगावे जे मोरी नवरिया
जेहि देखि जियरा जुड़ाई।’
विवाह के गीतों में प्रश्नोत्तर की भरमार है। कन्या पिता से पूछती है कि किसके बिना आँगन, किसके बिना लखराँव (लाखों पेड़ वाले आम का बगीचा), किसके बिना द्वार और किसके बिना तालाब सूना हो जाता है?
‘काहे बिनु सून अँगनवा ए बाबा!
काहे बिनु सून लखराँव
काहे बिनु सून दुअरावा ए बाबा!
काहे बिनु पोखरा तोहार?’
पिता उत्तर देते हैं—
‘धिया बिनु सून अँगवान ऐ बेटी!
कोइलरि बिनु सून लखराँव,
पूत बिनु सून दुअरवा ऐ बेटी!
हंस बिनु पोखर हमार।’
अर्थात् हे बेटी! कन्या के बिना आँगन, कोयल के बिना लखराँव, पुत्र के बगैर द्वार और हंस के बगैर तालाब सूना है।
बेटी की विदाई के वक्त पूरे घर में आसुओं की गंगा बह उठती है। पिता के आँसू बाढ़ ला देते हैं, माँ की आँखों के आगे अँधेरा छा जाता है। भाई की धोती तक भीग जाती है, मगर भाभी की आँखें गीली तक नहीं होतीं—
‘बाबा के रोवले गंगा बढि़ अइली
अम्मा के रोवले अनोर,
भैया के रोवले चरण धोती भीजे
भऊजी नयनवाँ ना लोर।’
एक गीत में दुलहन दूल्हे को घर से बाहर कहीं जाने ही नहीं देना चाहती। वह चाहती है कि दूल्हा बराबर उसके सामने रहे—
‘बन्ने! तेरे सेज की चँदा हौंगी
चंदा होके छिटकि रहौंगी,
मैं तेरे दिल में बसौंगी,
जाने न देऊँ वर, पकडि़ रखौंगी!’
इसी प्रकार शादी के बाद रात बहुत लंबी होने और सूर्योदय न होने की कामना करती हुई दुलहन कह उठती है—
‘आज सुहाग की रात, चंदा तुम अइहो!
चंदा तुम अइहो, सुरुज मत अइहा
मोर हिरदा मत बोलेउ,
मोर छतिया विहरि जानि जाइ
तू पह जनि फाटेउ!’
विवाह के मंगलगीतों में विविधता है। कहीं व्यंग्य-विनोद का पुट है, कहीं करुण की पराकाष्ठा है, तो कहीं शृंगार की सरलता। गीतों की प्रस्तुति का आरोह-अवरोह सुनकर संगीत के दिग्गज उस्ताद भी दंग रह जाते हैं। अधिकांश मंगलगीतों में शिव-पार्वती और राम-सीता को आदर्श माना गया है और उन्हीं के जीवन के आधार पर इन गीतों की रचना की गई है।
विवाह के गीतों की रचयिता महिलाएँ ही रही होंगी—ऐसी महिलाएँ, जिनका शिक्षा से दूर का भी नाता नहीं था। पर इन गीतों की भाव-प्रवणता आज भी दिल की गहराई तक पैठ जाती है और सहज, स्वाभाविक तथा सरस चित्रण देखकर पढ़े-लिखे लोग भी दाँतों तले उँगली दबा लेते हैं। ये गीत लोक साहित्य की धरोहर हैं, जो वर्षों से हमारी परंपराओं के साथ चले आ रहे हैं। वैवाहिक रस्मों में ये गीत जान डाल देते हैं और इन्हें सुनकर वर-कन्या पक्ष के लोग मंत्रमुग्ध होने के साथ ही भाव-विह्वल भी हो उठते हैं। यही इन गीतों की सबसे बड़ी उपलब्धि है। काश, इन सुमधुर मंगलगीतों को फिल्मी प्रभाव से बचाया जा सकता!
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