19 January, 2014

मोहनी

जैसे ही मोहनी की अंतिम यात्रा एवं विपरीत दिशा से आ रही डोली में बैठी दुल्हन का मिलन-सा हुआ, प्रवचनकर्ता का संगीतमय ध्वनि में भजन चल रहा था- ‘मैं निभा के चली, तुम निभाने चली। एक डोली चली एक… चली।’

बिना दाएं-बाएं देखे चहचहाते पक्षी उत्साहपूर्वक अपने बसेरे की ओर उड़ान भर रहे हैं, खेतों में धूल उड़ाते पशु मस्तानी चाल से घंटी बजाते अपने घरों को लौट रहे हैं और पं. बालादत्त मस्तानी चाल में मेवा, मिष्ठान और फलों से भरे झोले को कंघे पर लटकाये रामधुन गुनगुनाते घर की ओर जा रहे हैं। ज्योतिषी ने गणना कर उन्हें बताया था कि अगहन माह की चतुर्थी को तुम्हारे घर सुंदर कन्या का जन्म होगा।
अगहन चतुर्थी को दोपहर ठीक 4 बजे पं. बालादत्त के घर निकली शंखघ्वनि और पीतल की थाली के बजने की आवाज पूरे गांव में फैल गई। लोगों को अहसास हो गया कि पं. बालादत्त के घर शुभ हुआ है। आस-पड़ोस की महिलाएं दौड़ी-दौड़ी आईं। दाई ने सूचना दी कि लक्ष्मी आयी है।
प्रथम संतान पुत्र के बाद कन्या का जन्म हुआ था। कन्या दिनोंदिन ऐसे बढ़ने लगी, जैसे शुक्लपक्ष का चन्द्रमा बढ़ता है। कुल पुरोहित ने नामकरण संस्कार संपन्न करवाया। राशि के अनुसार नाम रखा गया- मोहनी। ‘यतो नामः ततो गुणः’ जैसा नाम वैसे गुण। मोहनी वास्तव में सबके मन को मोहने वाली थी। जो भी उसे देखता, देखता रह जाता। वर्ष भर बाद प्रथम जन्मदिन कार्यक्रम संपन्न हुआ। माता-पिता, नाते-रिश्तेदार, गांव, आसपास के गांव के सभी लोगों ने उसे भाग्यशाली माना। क्योंकि उसके जन्म के बाद पं. बालादत्त द्वारा ग्रामवासियों के साथ किये गये प्रयासों के परिणाम आने लगे थे। पं. बालादत्त प्राथमिक विद्यालय में हेडमास्टर थे। गांव से काफी दूर जंगलों का रास्ता पार कर नियमित विद्यालय जाते थे। विद्यालय की दूरी इतनी अधिक थी कि छोटे लड़के तो किसी प्रकार बड़ी उम्र लड़कों के साथ चले जाते थे, लेकिन लड़कियां शिक्षा से वंचित रह जाती थीं।
अब मोहनी के जन्म के बाद गांव वालों का गांव में विद्यालय का प्रयास सफल हुआ था। झूपुलचैरा गांव में बालक-बालिकाओं के पहली से 10 वीं तक के विद्यालय की स्वीकृति मिल गई। अब अड़चन आई कि विद्यालय के लिए भू-क्षेत्र कहां से आये। पं. बालादत्त क्षेत्र के जाने-माने भू-स्वामी भी थे। उन्होंने पर्याप्त भूखंड विद्यालय हेतु स्वेच्छा से दे दिया। 3-4 वर्ष में विशाल विद्यालय भवन बनकर तैयार हो गया।
यह संयोग ही था कि विद्यालय के भवन पूजन की तिथि भी अगहन चतुर्थी निकली और प्रथम छात्रा के रूप में मोहनी का नाम दर्ज हुआ। जो इलाका सुनमान-डरावना लगता था, अब विद्यालय में बालक-बालिकाओं के शोर-गुल एवं चहल-पहल से दर्शनीय स्थल में बदल गया।
और भी कई सुखद काम हुए। विद्यालय के बगल से ही कलकल करती कोसी नदी का जल नदी के अगल-बगल में स्थित धान के खेतों में जाता था। विद्यालय के साथ-साथ खेती-किसानी के लिए भी सिंचाई की सुविधा हेतु गूल योजना यानी खेत-खेत में क्रम से नदी का पानी मिलने लगा। गांव में ही प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र खुल गया। इस विकास के कारण सबकी जुबान पर केवल यही था- ‘जब से मोहनी आयी है, तब से गांव सबको मोहने लगा है।’
सात भाई-बहनों में मोहनी दूसरे नंबर पर थी। सबसे अलग व्यक्तित्व होने के कारण पिता पं. बालादत्त उसे मोहना कहकर पुकारते। यही नहीं, कुछ भी काम करने से पहले उससे राय-मशविरा करते, जैसे मोहनी सयानी हो गई हो। खेलते-कूदते कब चैदह वर्ष बीत गये, पता ही नहीं चला। कुल की परंपरानुसार रजस्वला होने से पूर्व कन्यादान होना चाहिये था। सो पं. बालादत्त की पत्नी रोज सुनाती रहती, ‘बेटी सयानी हो रही है। घर-वर की खोज क्यों नहीं करते।’ मोहनी अभी 8 वीं कक्षा की छात्रा थी, पर लोक- व्यवहार का ज्ञान इतना अधिक था कि बड़े-बड़े दांतों तले अंगुली चबा लें।
इसी दौरान पं. बालादत्त का स्थानांतरण घर से काफी दूर हो गया था। इसलिए वे 15 दिन अथवा महीने भर बाद, जब भी एक-दो दिन का अवकाश होता, घर आते। हर बार उन्हें यही डर सताता रहता था कि इस बार घर जाने पर पत्नी को क्या जवाब दूंगा कि बेटी के लिए वर खोजा कि नहीं। क्योंकि अभी तक वर की खोज हुई नहीं थी। लेकिन आज वे प्रसन्न थे। इन दिनों जिस क्षेत्र में उनकी नियुक्ति थी, वहीं भारद्वाज गोत्री कुलीन ब्राह्मणों के गांव में एक संभ्रान्त परिवार का सुंदर नवयुवक त्रिलोकी नाथ उन्हें भा गया। त्रिलोकी नाथ के परिवार से बातचीत सकारात्मक होने के साथ-साथ दोनों की कुंडली मिलान में काफी गुण मिल रहे थे। त्रिलोकी नाथ सेना में था। शादी का मुहूर्त निकलवाया गया। वह भी निकला अगहन माह की चतुर्थी तिथि को। यहां भी यह संयोग था। धूमधाम से विवाह सम्पन्न हो गया। विदाई की बेला आई। मोहनी बाबुल का घर छोड़ पिया के घर जा रही थी। हर कोई दुखी था। कोई कहता, ‘अब हमारे पत्र कौन पड़ेगा?’ कोई कहता, ‘अब हंस-हंस कर कौन हमारे दुख-दर्द पूछेगा?’
मोहनी अब धूरा क्षेत्र के ब्राह्मण परिवार के पंडित बद्रीदत्त की बहू बन गयी थी। ससुराल में भी उसे बेटी सा स्नेह मिलने लगा। कुछ वर्षों तक जीवन हंसी-खुशी बीता, पर फिर दुखों ने दस्तक देनी शुरू कर दी। मोहनी के सास-ससुर, जो उसे माता-पिता से भी अधिक स्नेह देते थे, एक-एक कर दुनिया छोड़ कर चले गये। पति भी युद्ध में गंभीर रूप से घायल हो गया। वह सकुशल घर तो लौटा, पर अब इस स्थिति में नहीं था कि नौकरी कर सकता। अतः समय से पहले ही सेवानिवृत्त हो गया।
मोहनी ने हिम्मत नहीं हारी। पति का मनोबल बढ़ाया। कंधे से कंधा मिलाकर उसने गौ-पालन, उत्तम किस्म की खेती-बाड़ी, फल उत्पादन बढ़ाकर अपनी आर्थिक स्थिति सुदृढ़ की।
किसी को आनाज, किसी को वस्त्रा, किसी को उचित सलाह, तो गरीब की कन्या के विवाह पर कन्यादान करना मोहनी के स्वभाव में था। इसी दौरान एक-एक कर वह पांच बेटों की मां बन गई। वह कहती, ‘ये कुन्ती के पांडव हैं।’ पांचों भाइयों में स्नेह भी ऐसा था कि लोग भी कहते, ‘वास्तव में ये कुन्ती के पांडव हैं।’
ग्रामीण परिवेश में ही सबकी संस्कारयुक्त शिक्षा हुई। प्रारम्भिक शिक्षा तो सभी को मां से मिली। उन दिनों बिजली-डीजल से चलित आटा चक्कियां तो थी नहीं, सभी महिलाएं घर पर ही हाथ से चलने वाली चक्की से आटा पीसतीं। मोहनी ने चक्की चलाने के दौरान ही बच्चों को गोद में बैठाकर प्राथमिक मौखिक अक्षर, स्वर-व्यंजनों का ज्ञान कराया। वहीं ध्रुव, प्रहलाद, मीरा, द्रौपदी की कहानियों से बच्चों का ज्ञानवर्धक मनोरंजन भी किया। मोहनी बच्चों की हर आवश्यकता पूरी करने का प्रयास करती।
एक बार सबसे बड़ा बेटा जिद कर बैठा कि अखरोट के ऊंचे पेड़ से अखरोट तोड़कर दो। वह पेड़ पर चढ़ तो गयी, लेकिन डाल कच्ची थी। डाल टूटी तो मोहनी भी नीचे गिर गयी। वह अचेतन सी हो गई। घर में रोना-धोना मच गया। सभी महिलाएं कहने लगीं कि लगता है मोहनी नहीं रही। वैद्य बुलाया गया। गहन उपचार के बाद चेतना आ गई। वैद्य आश्चर्यचकित था। बोला, ‘यह चमत्कार है। इतने ऊंचे से गिरने पर बचना मुश्किल होता है।’ और भी कितनी ही समस्याएं मोहनी के जीवन में आईं, पर कभी हिम्मत नहीं हारी। कभी तकदीर को भी दोष नहीं दिया।
समय के साथ मोहनी के बच्चे उम्र के पायदान पर ऊपर चढ़ने लगे। सभी ने उच्च शिक्षा प्राप्त कर सरकारी नौकरी भी पा ली। समय अनुसार घर में कुलीन घरों से उच्च शिक्षा प्राप्त संस्कारवान बहुएं आयीं। बहुएं मोहनी को अपने जन्म देने वाली मां से अधिक मान-सम्मान देतीं। समय बीता तो पोते-पोतियों का भी विवाह हो गया। एक पोते की पत्नी तो मोहनी को हाथों-हाथ लेती। सेवा करते समय टोकने पर कहती, ‘दादी, मैं डाक्टर हूं। सबकी सेवा करती हूं। आप तो मेरी दादी हैं।’ मोहनी की आंखों में खुशी के आंसू आ जाते।
भरा-पूरा परिवार। धीरे-धीरे अपनी जिम्मेदारियों को पूर्ण होता देख दुनिया से मोहनी का माया-मोह कम होने लगा। उसे अहसास होने लगा कि अब वह ज्यादा दिन की मेहमान नहीं है। यहां फिर से संयोग… अगहन का महीना। चतुर्थी को प्रातः स्नान-ध्यान कर मोहनी जैसे इंतजार कर रही थी कि परिवार में सबका भोजन हो गया कि नहीं। दोपहर ठीक 4 बजे उसने कुछ संकेत सा दिया। बड़ा बेटा गंगाजल व तुलसी ले आया। फिर मां का सिर गोद में रख गीता सुनाने लगा। गीता पाठ सुनते-सुनते मोहनी ने बेटे की गोद में ही आंख मूद ली। सब आश्चर्यचकित थे। फिर एक अलग संयोग कि जब अंतिम यात्रा निकल रही थी, उसी रास्ते विपरीत दिशा में से एक बरात भी आ रही थी। दुल्हन सजी हुई डोली में बैठी थी। चार कहार डोली उठाये थे। इधर मोहनी की अर्थी भी फूलों से सजी हुई थी। वहीं एक विशाल मंडप में एक विदुषी का प्रवचन चल रहा था। जैसे ही मोहनी की अंतिम यात्रा एवं विपरीत दिशा से आ रही डोली में बैठी दुल्हन का मिलन-सा हुआ, प्रवचनकर्ता का संगीतमय ध्वनि में भजन चल रहा था- ‘मैं निभा के चली, तुम निभाने चली। एक डोली चली एक… चली।’

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