19 January, 2014

महावीर शर्मा की कहानी— 'वसीयत

सुबह नाश्ते के लिए कुर्सी पर बैठा ही था कि दरवाज़े की घंटी बज उठी। उठने लगा तो सीमा ने कहा, "आप चाय पीजिए, मैं जाकर देखती हूँ।"
दरवाज़ा खोला तो पोस्टमैन ने सीमा के हाथ में चिट्ठी देकर दस्तख़त करने को कहा। 
"किस की चिट्ठी है?" मैंने बैठे-बैठे ही पूछा। 
चिट्ठी देख कर सीमा ठिठक गई और आश्चर्य से बोली, "किसी सॉलिसिटर का है। लिफ़ाफ़े पर भेजने वाले का नाम 'जॉन मार्टिन-सॉलिसिटर्स' लिखा है।"
यह सुनते ही मैंने चाय का प्याला होंठों तक पहुँचने से पहले ही मेज़ पर रख दिया। इंग्लैंड में वैध रूप आया था, और इस 65 वर्ष की आयु में वकील का पत्र देख कर दिल को कुछ घबराहट होने लगी थी। उत्सुकता और भय का भाव लिए पत्र खोला तो लिखा था. 
''जेम्स वारन, 30 डार्बी एवेन्यू, लंदन निवासी का 85 वर्ष की आयु में 28 नवंबर 2004 को देहांत हो गया। उसकी वसीयत में अन्य लोगों के साथ आपका भी नाम है। जेम्स की वसीयत 15 दिसंबर 2004 दोपहर के बाद 3 बजे जेम्स वारन के निवास पर पढ़ी जाएगी। आपसे अनुरोध है कि आप निर्धारित तिथि पर वहाँ पधारें या ऑफ़िस के पते पर टेलीफ़ोन द्वारा सूचित करें।''
"यह जेम्स वारन कौन है?'' सीमा ने उत्सुकता से कहा. "मेरे सामने तो आपने कभी भी इस व्यक्ति का कोई ज़िक्र नहीं किया।" 
मैं जैसे किसी पुराने टाइमज़ोन में पहुँच ''उस समय मैं अविवाहित था और लंदन में रहता था। मैं कभी-कभी दो मील की दूरी पर एवेन्यू पार्क में जाता था। वहाँ एक अंगरेज़ वृद्ध जिसकी उम्र लगभग 55-60 की होगी, बैंच पर अकेला बैठा रहता और वहाँ से गुज़रने वाले हर व्यक्ति को हँस कर 'गुड-मॉर्निंग' या 'गुड डे' कह कर इस अंदाज़ में अभिवादन करता, जैसे कुछ कहना चाहता हो।
इंगलैंड में धूप की खिलखिलाती हो तो कौन उस बूढ़े की ऊलजलूल बातों में समय गँवाए?
यह सोच कर लोग उसे नज़रअंदाज़ कर चले जाते और बैंच पर अकेला बैठा होता था। मैं भी औरों की तरह आँखें नीचे किए कतरा कर चला जाता।

हर रोज़ अँधेरा होने से पहले बूढ़ा अपनी जगह से उठता और धीरे-धीरे चल देता। मैं कभी अनायास ही पीछे मुड़ कर देखता तो हाथ हिला कर 'हैलो' कह कर मुस्कुरा देता। मैं भी उसी प्रकार उत्तर देकर चला जाता।
यह क्रम चलता रहा। एक दिन रात को ठीक से नींद नहीं तो विचारों के क्रम में बार-बार बूढ़े की आकृति सामने आती रही, फिर नींद लगी तो देर से सो कर उठा। सामान्य कार्यों के बाद कुछ भोजन कर कपड़े बदले और पार्क जा पहुँचा। बूढ़ा उसी बैंच पर मुँह नीचे किए हुए बैठा हुआ था। इस बार कतराने के बजाय मैंने उससे कहा,'हैलो, जेंटिलमैन!'
बूढ़े ने मुँह ऊपर उठाया। उसकी नज़रें कुछ क्षणों के लिए मेरे चेहरे पर अटक गई। फिर एक दम से उसकी आँखों में चमक-सी आ गई। वह बड़े उल्लासपूर्वक बोला, 'हैलो, सर। आप मेरे पास बैठेंगे क्या. . .?'
मैं उसी बैंच पर उसके पास बैठ गया। बूढ़े ने मुझ से हाथ मिलाया, जैसे कई वर्षों के बाद कोई अपना मिला हो। मैंने पूछा, 'आप कैसे हैं?'
जब कोई दो व्यक्ति मिलते हैं तो यह एक ऐसा वाक्य है जो स्वतः ही मुख से निकल जाता है। कुछ देर मौन ने हमको अलग रखा था पर मैंने ही पूछा, 'आप पास में ही रहते हैं?'
मेरे इस सवाल पर ही उसने बिना झिझक के कहना शुरू कर दिया, 'मेरा नाम जेम्स वारन है। 30 डार्बी एवेन्यू, फिंचले में अकेला ही रहता हूँ।'
मैंने कहा, 'मिस्टर वारन. . .',  ''नहीं, नहीं. . .जेम्स! आप मुझे जेम्स कह कर ही पुकारें तो मुझे अच्छा लगेगा।' जेम्स ने मेरी बात पूरी कहने से पहले ही कह दिया।
मैं जानता था कि जेम्स वारन के पास कहने को बहुत कुछ है, जिसे उसने अंदर दबा कर रखा है क्योंकि कोई सुनने वाला नहीं है। उसके अचेतन मन में पड़ी हुई पुरानी यादें चेतना पर आने के लिए संघर्ष कर रही होंगी किंतु किसके पास इस बूढ़े की दास्तान सुनने के लिए समय है?
जेम्स ने एक आह-सी भरी और कहना शुरू किया,
'मैं अकेला हूँ। चार बैड-रूम के मकान की भांय-भांय करती हुई दीवारों से पागलों की तरह बातें करता रहता हूँ।''
इतना कह कर जेम्स ने चश्मे को उतारा और उसे साफ़ करके दोबारा बोलना शुरू किया।
''ऐथल, यानी मेरी पत्नी, केवल सुंदर ही नहीं, स्वभाव से भी बहुत अच्छी थी। हम दोनों एक दूसरे की सुनते थे। उसके साथ दुख का आभास ही नहीं होता था तो दुख की पहचान कैसे होती?
एक दिन पत्नी ने मुझे जो बताया उसे सुन कर मैं फूला न समाया था। पिता बनने की ख़बर ने मुझे ऐसे हवाई सिंहासन पर बैठा दिया जैसे एक बड़ा साम्राज्य मेरे अधीन हो। मेरी माँ ने दादी बनने की खुशी में घर पर परिचितों को बुला कर पार्टी दे डाली। इस तरह 8 महीने आनंद से बीत गए। ऐथल ने अपने आफ़िस से अवकाश ले लिया था। मैं सारे दिन बच्चे और ऐथल के बारे में सोचता रहता।
एक रात जब मूसलाधार वर्षा हो रही थी। ऐथल के ऐसा तेज़ दर्द हुआ जो उसके लिए सहना कठिन था। मैंने एम्बुलैंस मँगाई और ऐथल की करहाटों व अपनी घबराहट के साथ अस्पताल पहुँच गया।
नर्सों ने एंबुलेंस से ऐथल को उतारा और तेज़ी से सी.आई.यू. में ले गईं। डॉक्टर ने ऐथल की हालत जाँच कर कहा कि शीघ्र ही आप्रेशन करना पड़ेगा। अंदर डॉक्टर और नर्सें ऐथल और बच्चे के जीवन और मौत के बीच अपने औज़ारों से लड़ते रहे, बाहर मैं अपने से लड़ता रहा। काफ़ी देर के बाद एक नर्स ने आकर बताया कि तुम एक लड़के के पिता बन गए हो। खुशी में एक उन्माद-सा छा गया। नर्स को पकड़ कर मैं नाचने लगा। नर्स ने मुझे ज़ोर से झंजोड़-सा दिया पर मेरा हाथ ज़ोर से दबाए रही। कहने लगी, 'मिस्टर वारन, मुझे बहुत ही दुख से कहना पड़ रहा है कि डाक्टरों की हर कोशिश के बाद भी आपकी पत्नी नहीं बच सकी।''
जेम्स ने आँखों से चश्मा उतार कर फिर साफ़ किया। उसकी आँखें आँसुओं के भार को सँभाल ना पाई। एक लंबी साँस छोड़ी और इस वेदना भरी कहानी जारी करते हुए कहा, 'माँ पोते की खुशी और ऐथल की मृत्यु की पीड़ा में समझौता कर जीवन को सामान्य बनाने की कोशिश करने लगी। मेरी माँ बड़ी साहसी थीं। उन्होंने बच्चे का नाम विलियम वारन रखा क्योंकि विलियम ब्लेक, ऐथल का मनपसंद लेखक था।
इसी तरह 8 वर्ष बीत गए। माँ बहुत बूढ़ी हो चुकी थी। एक दिन वह भी विलियम को मुझे सौंप कर इस संसार से विदा लेकर चली गई। उस दिन से विलियम के लिए मैं ही माँ, दादी और पिता के कर्तव्यों को पूरी ज़िम्मेदारी से निभाता। उसे प्रातः नाश्ता देकर स्कूल छोड़ कर अपने दफ़्तर जाता। वहाँ से भी दिन के समय स्कूल में फ़ोन पर उसकी टीचर से उसका हाल पूछता रहता। विलियम की उँगली में ज़रा-सी चोट लग जाती तो मुझे ऐसा लगता जैसे मेरे सारे शरीर में दर्द फैल गया हो।
इतने लाड़ प्यार में पलते हुए वह 18 वर्ष का हो गया। ए-लैवल की परीक्षा में ए ग्रेड में पास होने की ख़बर सुन कर मैं बेहद खुश हुआ था। जब आक्सफर्ड यूनिवर्सिटी से आनर्स की डिग्री पास की तो मेरे आनंद का पारावार न था।
विलियम की गर्लफ्रैंड जैनी जब भी उसके साथ हमारे घर आती तो मैं खुशी से नाच पड़ता। जैनी और विलियम का विवाह उसी चर्च में संपन्न हुआ जहाँ मेरा और ऐथल का विवाह हुआ था। एक वर्ष के पश्चात ही वलियम और जैनी ने मुझे दादा बना दिया। उस दिन मुझे माँ और ऐथल की बड़ी याद आई। मेरी आँख भर आई! पोते का नाम जॉर्ज वारन रखा।
हँसते-खेलते एक साल बीत गया। इतनी कशमकश भरे जीवन में अब आयु ने भी शरीर से खिलवाड़ करना शुरू कर दिया था।
'डैडी, जैनी और मुझे कंपनी एक बहुत बड़ा पद देकर आस्ट्रेलिया भेज रही है। वेतन भी बहुत बढ़ा दिया है, मकान, गाड़ी, हवाई जहाज़ की यात्रा के साथ कंपनी जॉर्ज के स्कूल का प्रबंध आदि सुविधाएँ भी दे रही है,'' विलियम ने बताया तो मेरी आँखें खुली ही रह गईं।
यह सब सुन कर मैं धम्म से सोफे पर धँस गया तो विलियम मेरा आशय समझ मुस्कुरा कर कहने लगा, 'डैडी, आप अकेले हो जाएँगे। हम दोनों यह प्रस्ताव अस्वीकार कर देंगे। वैसे तो यहाँ भी सब कुछ है।'
मैंने अपने आपको सँभाला और कहा कि वाह, मेरा बेटा और बहू इतने बड़े पद पर जा रहे हैं, मेरे लिए तो यह गर्व की बात है। सच, मुझे इससे बड़ी खुशी क्या होगी?'
जाने की तैयारियाँ होने लगीं। दिन तो बीत जाता पर रात में नींद न आती। कभी विलियम और जैनी तो कभी जार्ज के स्वास्थ्य की चिंता बनी रहती।
वह दिन भी आ ही गया जब लंदन एयरपोर्ट पर विलियम, जैनी और जॉर्ज को विदा कर भीगे मन से घर वापस लौटना पड़ा। विलियम और जैनी ने जाते-जाते भी अपने वादे की पुष्टि की कि वे हर सप्ताह फ़ोन करते रहेंगे और मुझसे आग्रह किया कि मैं उनसे मिलने के लिए आस्ट्रेलिया अवश्य जाऊँ। वे टिकट भेज देंगे।
मन में उमड़ते हुए उद्गार मेरे आँसुओं को सँभाल ना पाए। जार्ज को बार-बार चूमा। एअरपोर्ट से बाहर आने के बाद वापस घर लौटने के लिए दिल ही नहीं करता था। कार को दिन भर दिशाहीन घुमाता रहा। शाम को घर लौटना ही पड़ा। सामने जॉर्ज की दूध की बोतल पड़ी थी, उठा कर सीने से चिपका ली और ऐथल की तस्वीर के सामने फूट-फूट कर रोया।
चार दिन के बाद फ़ोन की घंटी बजी तो दौड़ कर रिसीवर उठाया, 'हैलो डैडी!'
यह स्वर सुनने के लिए कब से बेचैन था। मैं भर्राये स्वर में बोला, 'तुम सब ठीक हो न, जॉर्ज अपने दादा को याद करता है कि नहीं?' जैनी से भी बात की और यह जान कर दिल को बड़ा सुकून हुआ कि वे सब स्वस्थ और कुशलपूर्वक हैं।
विलियम ने टेलीफ़ोन को जॉर्ज के मुँह के आगे कर दिया, तो उसके 'आंउ-आंउ' की आवाज़ ने कानों में अमृत-सा घोल दिया। थोड़ी देर बाद फ़ोन पर वो आवाज़ें बंद हो गईं।
तीन माह तक उनके टेलीफ़ोन लगातार आते रहे, किंतु उसके बाद यह गति धीमी हो गई। मैं फ़ोन करता तो कभी कह देता कि दरवाज़े पर कोई घंटी दे रहा है और फ़ोन काट देता।
बातचीत शीघ्र ही समाप्त हो जाती। छः महीने इसी तरह बीत गए। कोई फ़ोन नहीं आया तो घबराहट होने लगी।
एक दिन मैंने फ़ोन किया तो पता लगा कि वे लोग अब सिडनी चले गए हैं। यह भी कहने पर कि मैं उसका पिता हूँ, नए किरायेदार ने उसका पता नहीं दिया। उसकी कंपनी को फ़ोन किया तो पता चला कि उसने कंपनी की नौकरी छोड़ दी थी। यह जान कर तो मेरी चिंता और भी बढ़ गई थी।
मेरा एक मित्र आर्थर छुट्टियाँ मनाने तीन सप्ताह के लिए आस्ट्रेलिया जा रहा था। मैंने उसे अपनी समस्या बताई तो बोला कि वह दो दिन सिडनी में रहेगा
और यदि विलियम का पता कहीं मिल गया तो मुझे फ़ोन कर के बता देगा। आर्थर का फ़ोन नहीं आया। तीन सप्ताहों की अँधेरी रातें अँधेरी ही रहीं।
तीन सप्ताह के पश्चात जब आर्थर वापस आया तो आशा दुख भरी निराशा में बदल गई। विलियम और जैनी उसे एक रेस्तराँ में मिले थे किंतु वे किसी आवश्यक कार्य के कारण जल्दी में अपना पता, टेलीफ़ोन नंबर यह कह कर नहीं दे पाए कि शाम को डैडी को फ़ोन करके नया पता आदि बता देंगे। 
उसके फ़ोन की आस में अब हर शाम टेलीफ़ोन के पास बैठ कर ही गुज़रती है। जिस घंटी की आवाज़ सुनने के लिए इन छः सालों से बेज़ार हूँ, वह घंटी कभी नहीं सुनी। हो सकता है कि उसे डर लगता हो कि कहीं बाप आस्ट्रेलिया ना आ धमक जाए।''गया। चाय का एक घूँट पीते हुए मैंने सीमा को बताना शुरू किया।
जेम्स ने एक लंबी साँस ली। मुझसे पता पूछा तो मैंने जेब से अपना विज़िटिंग कार्ड निकाल कर दे दिया और बोला, "मिस्टर जेम्स, किसी भी समय मेरी ज़रूरत हो तो अब बिना झिझक के मुझे फ़ोन कर देना। आइए, मैं आपको आप के घर छोड़ देता हूँ। मेरी कार बराबर की गली में खड़ी है।''
"धन्यवाद! मैं पैदल ही जाऊँगा क्योंकि इस प्रकार मेरा व्यायाम भी हो जाता है।"
घर आने पर देखा तो डाक में कुछ चिट्ठियाँ पड़ी थीं। मैंने कोर्बी टाउन के एक स्कूल में गणित विभाग के अध्यक्ष के पद के लिए साक्षात्कार दिया था। पत्र खोला तो पता चला कि मुझे नियुक्त कर लिया गया है। नए स्कूल के लिए अपनी स्वीकृति भेज दी। जाने में केवल एक सप्ताह शेष था। जाते हुए जेम्स से विदा लेने के लिए उसके मकान पर गया पर वह वहाँ नहीं था। पड़ोसी से पता लगा कि अस्पताल में भरती है। इतना समय नहीं था कि अस्पताल में जाकर उसका हाल देख लूँ।
एक दिन की मुलाक़ात मस्तिष्क की चेतना पर अधिक समय नहीं टिकी। समय के साथ मैं जेम्स को बिल्कुल भूल गया। वकील के पत्रानुसार नियत समय पर जेम्स के घर पर पहुँच गया। उसी दरवाज़े पर घंटी का बटन दबाया जहाँ से 30 साल पहले जेम्स से मिले बिना ही लौटना पड़ा था। आज बड़ा विचित्र-सा लग रहा था। लगभग 45 वर्षीय एक व्यक्ति ने दरवाज़ा खोला। मैंने अपना और सीमा का परिचय दिया तो वकील ने भी अपना परिचय देकर हमें अंदर ले जाकर लाउंज में एक सोफे पर बैठा दिया, वहाँ तीन पुरुष और एक महिला पहले ही मौजूद थे।
मार्टिन ने हम सब का परिचय कराया। एक सज्जन आर.एस.पी.सी.ए. (दि रॉयल सोसायटी फॉर दि प्रिवेंशन आफ क्रुएल्टी टु ऐनिमल्स) का प्रतिनिधित्व कर रहे थे। अन्य तीन, विलियम वारन (जेम्स वारन का पुत्र), उसकी पत्नी जैनी वारन तथा जेम्स का पौत्र जॉर्ज वारन थे जो आस्ट्रेलिया से आए थे। बाईं ओर छोटे से नर्म गद्दीदार गोल बिस्तर में एक बड़ी प्यारी-सी काली और सफ़ेद रंग की बिल्ली कुंडली के आकार में सोई पड़ी थी, जिसका नाम 'विलमा' बताया गया।
मार्टिन ने अपनी फ़ाइल से वसीयत के काग़ज़ निकाल कर पढ़ना शुरू किए। अपनी संपत्ति के वितरण के बारे में कुछ कहने से पहले जेम्स ने अपनी सिसकती वेदना का चित्रण इन शब्दों में किया था:
"लगभग 4 दशक पहले मेरे अपने बेटे विलियम और उसकी पत्नी जैनी ने लंदन छोड़ कर मुझे मेरे हाल पर छोड़ दिया। मैं फ़ोन पर अपने पोते और इन दोनों की आवाज़ सुनने को तरस गया। मैं फ़ोन करता तो शीघ्र ही किसी बहाने से काट देते और एक दिन इस फ़ोन ने मौन धारण कर यह सहारा भी छीन लिया। किसी कारण स्थानांतरण होने पर बेटे ने मुझे नए पते या टेलीफोन नंबर की सूचना तक नहीं दी। मैं इस अकेलेपन के कारण तड़पता रहा। कोई बात करने वाला नहीं था। कौन बात करेगा, जिसका अपना ही खून सफ़ेद हो गया हो।
6 साल जीभ बिना हिले पड़ी-पड़ी बेजान हो गई थी कि एक दिन एक भारतीय सज्जन राकेश वर्मा ने पार्क में इस मौन व्यथा को देखा और समझा। मेरे उमड़ते हुए उद्गारों को इस अनजान आदमी ने पहचाना। विडंबना यह रही कि वह भी व्यक्तिगत कारणों लंदन से दूर चले गए।
राकेश वर्मा के साथ एक दिन की भेंट मेरे सारे जीवन की धरोहर बन यादों में एक सुकून देती रही, फिर इस भयावह अकेलेपन ने धीरे-धीरे भयानक रूप ले लिया। आयु और शारीरिक रोगों के अलावा मानसिक अवसाद ने भी मुझे घेर लिया।
इस अभिशप्त जीवन में एक आशा की लहर मेरे मकान के बाग में न जाने कहाँ से एक बिल्ली के रूप में आ गई। कौन जाने इसका मालिक भी देश छोड़ गया हो और इसे भी इसके भाग्य पर मेरी तरह ही अकेला छोड़ गया हो! बिल्ली को मैंने एक नाम दिया - 'विलमा'।
दो-तीन दिनों में विलमा और मैं ऐसे घुलमिल गए जैसे बचपन से हम दोनों साथ रहे हों। मैं उसे अपनी कहानी सुनाता और वह 'मियाऊँ-मियाऊँ' की भाषा में हर बात का उत्तर देती। मुझे ऐसा लगता जैसे मैं नन्हें जॉर्ज से बात कर रहा हूँ।
एक दिन वह जब बाहर गई और रात को वापस नहीं लौटी तो मैं बहुत रोया, ठीक उसी तरह जैसे जॉर्ज, विलियम और जैनी को छोड़ने के बाद दिल की पीड़ा को मिटाने के लिए रोया था। मैं रात भर विलमा की राह देखता रहा। अगले दिन वह वापस आ गई। बस, यही अंतर था विलमा और विलियम में जो वापस नहीं लौटा।
विलमा के संग रहने से मेरे मानसिक अवसाद में इतना सुधार हुआ जो अच्छी से अच्छी दवाओं से नहीं हो पाया था। उसने मुझे एक नया जीवन दिया। वह कब क्या चाहती है, मैं हर बात समझ लेता था - ये सब वर्णन से बाहर है, केवल अनुभूति ही हो सकती है।''

विलियम, जैनी और जॉर्ज, तीनों के चेहरों पर उतार चढ़ाव कभी रोष तो कभी पश्चाताप के लक्षणों का स्पष्टीकरण कर रहे थे।
जेम्स ने अपनी वसीयत में मुख्य रूप से कहा था कि मेरी सारी चल और अचल संपत्ति में से समस्त टैक्स तथा हर प्रकार के वैध खर्च, बिल आदि देने के बाद शेष बची रकम का इस प्रकार वितरण किया जाएः
'मिस्टर राकेश वर्मा, जिनका पुराना पता था: 23 रैले ड्राइव, वैटस्टोन, लंदन एन 20, को दो हजार पौंड दिए जाएँ और उनसे मेरी ओर से विनम्रतापूर्वक कहा जाए कि यह राशि उनके उस एक दिन का मूल्य ना समझा जाए जिस के कारण मेरे जीवन के मापदंड ही बदल गए थे। उन अमूल्य क्षणों का मूल्य तो चुकाने की सामर्थ्य किसी के भी के पास ना होगी। यह क्षुद्र रकम मेरे उद्गारों का केवल टोकन भर है। मेरे उक्त वक्तव्य से, स्पष्ट है कि विलियम वारन, जैनी वारन या जॉर्ज वारन इस संपत्ति के उत्तराधिकार के अयोग्य हैं।"

वकील कहते-कहते कुछ क्षणों के लिए रुक गया। विलियम, जैनी और जॉर्ज की मुखाकृति पर एक के बाद एक भाव आ-जा रहे थे। वे कभी आँखें नीची करते हुए दाँत पीसते तो कभी अपने कठोर व्यवहार पर पश्चात्ताप करते। विलियम अपने क्रोध को वश में ना रख सका और खड़े होकर सामने रखी मेज़ पर ज़ोर से हाथ मार कर जाने को खड़ा हो गया तो जैनी ने उसे समझाबुझा कर बैठा लिया।
वकील ने पुनः वसीयत पढ़नी शुरू की तो यह जानकर सभी आश्चर्यचकित हो गए कि शेष समस्त संपत्ति विलमा बिल्ली के नाम कर दी गई थी और साथ ही कहा गया था कि आर.एस.पी.सी.ए. को 'विलमा' के शेष जीवन के पालनपोषण का अधिकार दिया जाए और इसी संस्था को प्रबंधक नियुक्त किया जाए। साथ ही एक सूची थी जिसमें विलमा को जेम्स किस प्रकार रखता था, उसका पूरा वर्णन था। आगे लिखा था,
'विलमा के निधन पर एक स्मारक बनाया जाए। उसके बाद शेष धन को राह भटके हुए, प्रताड़ित पशुओं की दशा के सुधारने पर व्यय किया जाए।''
मैंने मार्टिन से कहा, "यदि आप अनुमति दें तो ये दो हजार पौंड, जो वसीयत के अनुसार जेम्स वारन मुझे दे रहें हैं, इस राशि को भी 'विलमा' की वसीयत की राशि में ही मिला दें तो मुझे हार्दिक सुख मिलेगा।"
वकील ने कहा, "इस को विधिवत बनाने में थोड़ी अड़चन आ सकती है। हाँ, इसी राशि का एक चेक आर.एस.पी.सी.ए. को अपनी इच्छानुसार देना अधिक सुगम होगा।"

अंत में औपचारिक शब्दों के साथ मार्टिन ने वसीयत बंद कर बैग में रख ली।
बिल्ली, जो अभी भी सारी कारवाही से अनजान सोई हुई थी, आर.एस.पी.सी.ए. के प्रतिनिधि को सौंप दी गई। इस प्रकार वकील का भी प्रतिदिन विलमा की देखरेख का भार समाप्त हो गया। सब मकान से बाहर आ गए।

मैंने सीमा से कहा कि मैं तुम्हें उस मकान पर ले जाता हूँ जहाँ लंदन में विवाह से पहले रहता था। कार दस मिनट में 23 रैले ड्राइव के सामने पहुँच गई। कार एक ओर खड़ी की और ना जाने क्यों बिना सोचे-समझे ही उँगली उस मकान की घंटी के बटन पर दबा दी।
एक अंग्रेज़ बूढ़े ने छोटे से कुत्ते के साथ दरवाज़ा खोला। कुत्ते ने भौंकना शुरू कर दिया। मैंने उस वृद्ध को बताया कि लगभग 30 वर्ष पहले मैं इस मकान में किराएदार था। बस, इधर से गुज़र रहा था तो पुरानी याद आ गई. . .।" इस से पहले कि मैं आगे कुछ कहता, बूढ़े ने बड़े रुखेपन से कहना आरंभ कर दिया।
" यदि तुम इस मकान को ख़रीदने के विचार से आए हो तो वापस चले जाओ। इन दीवारों में केरी और चार्ल्स की यादें बसी हुई हैं। चार्ल्स की माँ, मेरी पत्नी तो मुझे कब की छोड़ गई।. . .चार्ली अमेरिका से एक दिन अवश्य आएगा। . . .हाँ, कहीं उसका फ़ोन ना आ जाए?" इतना कहते-कहते उसने दरवाज़ा बंद कर लिया। अंदर से कुत्ता अभी भी भौंक रहा था।
सीमा की दृष्टि दरवाज़े पर अटकी हुई थी, कह रही थी, "एक और जेम्स वारन!"
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