19 January, 2014

दिव्या माथुर की कहानी— 'अंतिम तीन दिन'

<अपने ही घर में माया चूहे-सी चुपचाप घुसी और सीधे अपने शयनकक्ष में जाकर बिस्तर पर बैठ गई-- स्तब्ध। जीवन में आज पहली बार, मानो सोच के घोड़ों की लगाम उसके हाथ से छूट गई थी। आराम का तो सवाल ही नहीं पैदा होता था। अब समय ही कहाँ बचा था कि वह सदा की भांति सोफ़े पर बैठकर टेलीविज़न पर कोई रहस्यपूर्ण टी.वी. धारावाहिक देखते हुए चाय की चुस्कियाँ लेती। हर पल कीमती था। तीन दिन के अंदर भला कोई अपने जीवन को कैसे समेट सकता है? पचपन वर्षों के संबंध, जी जान से बनाया ये घर, ये सारा ताम झाम और बस केवल तीन दिन! मज़ाक है क्या? वह झल्ला उठी किंतु समय व्यर्थ करने का क्या लाभ। डाक्टर ने उसे केवल तीन दिन की मोहलत दी थी। ढाई या साढ़े तीन दिन की क्यों नहीं, उसने तो यह भी नहीं पूछा। माया प्रश्न नहीं पूछती, बस जुट जाती है तन मन धन से किसी भी आयोजन की तैयारी में, वह भी युद्ध स्तर पर। बेटी महक होती तो कहती, ममा, 'स्लो डाउन।' जीवन में उसने अपने को सदा मुस्तैद रखा कि न जाने कब कोई ऐसी वैसी स्थिति का सामना करना पड़ जाए। बुरे से बुरे समय के लिए स्वयं को नियंत्रित किया, ताकि वह मन को समझा सके कि इससे और भीख़ैर, तीन दिन बहुत होते हैं। एक हफ़्ते में तो भगवान ने पूरी दुनिया रच डाली थी। बिगाड़ने के लिए तो एक तिहाई समय भी बहुत होना चाहिए। किंतु उसे बिगाड़ कर नहीं ये घर सँवार के छोड़ना है। संपत्ति को ऐसे बाँटना है कि किसी को यह महसूस न हो कि अंधा बाँटे रेवड़ी, भर अपने को दे। संसार से यों विदा लेनी है कि लोग याद करें। कमर कसकर वह उठ खड़ी हुई। तीनों अलमारियों के पलड़े खोलकर माया लगी अपनी भारी साड़ियों, सूटों और गर्म कपड़ों को पलंग पर फेंकने। जैसे उस ढेर में दब जाएगी उसकी दुश्चिंता। छोटे बेटे वरुण की शादी को अभी एक साल भी तो नहीं हुआ। कितने कपड़े और गहने बनवाए थे माया ने। जैसे अपनी सारी इच्छाओं को वह एक ही झटके में पूरा कर लेना चाहती हो। 'हे भगवान! अब क्या होगा इन सबका?' समय होता तो वह भारत जाकर बहन भाभियों में बाँट देती। ऑक्सफैम में जाने लायक नहीं हैं ये कीमती साड़ियाँ पर उसकी बहुओं और बेटी को इस 'इंडियन' पहनावे से क्या लेना देना। रूपहली नैट की गुलाबी साड़ी को चेहरे से लगाए माया सोच रही थी कि इसे पहनने के लिए उसने अपना पूरा पाँच किलो वज़न घटाया था। मुँह माँगे दाम पर ख़रीदी थी ये साड़ी उसने रितु कुमार से। छोटी बहन तो बस दीवानी हो गई थी, 'जीजी, इस साड़ी से जब आपका दिल भर जाए तो हमें दे दीजिएगा, प्लीज़।' उसे तब ही दे देती तो छोटी कितनी खुश हो जाती। पर तब उसने सोचा था कि इसे पहन कर पहले वह अपने लंदन और योरोप के मित्रों की चर्चा का विषय बन जाए, फिर दे देगी। किसी ने ठीक ही कहा है, 'काल करे सो आज कर।' एकाएक उसे एक तरक़ीब सूझी। क्यों न वह इसे छोटी को पार्सल कर दे और साथ में ही भेज दे इसका मैचिंग कुंदन का सैट भी। कुंदन के सैट के नाम पर उसका दिल मानो सिकुड़ के रह गया। बड़ी बहु उषा को पता लगेगा कि सास ने साढ़े तीन लाख का सैट छोटी को दे दिया तो वह उसे जीवन भर कोसेगी। पर छोटी जितनी क़द्र भला बहुओं और बेटी महक को कहाँ होगी। माया चाहे कितना कहे कि वह किसी से नहीं डरती पर सच तो ये है कि वह मन ही मन सबसे ही डरती है अपने बच्चों से लेकर, सड़क पर चलते राहगीरों तक से कि वे क्या सोचते होंगे, कहीं वे यह न कहें या कहीं वे वो न सोचें। पर अब वह वही करेगी जो उसका मन चाहेगा। वैसे भी, बच्चे अपने अपने घरों में सुख से हैं। न भी हों तो उसने फ़ैसला कर ही लिया था कि वह अब कभी उनके घरेलु मामलों में दखलअंदाज़ी नहीं करेगी। सगे संबंधी और मित्र भी मरने वाले की अंतिम इच्छा का सम्मान करेंगे ही। फिर भी, न चाहते हुए भी माया दूसरों के लिए ही सोच रही थी। अपने लिए सोचने को रखा ही क्या है। मंदिर जाए, गिड़गिड़ाए कि भगवान बचा लो। ज़िंदगी के इस आख़री पड़ाव पर क्यों अपने लिए कुछ माँगे और माँगने से क्या कुछ मिल जाएगा। अब तक तो वह जब भी भगवान के आगे गिड़गिड़ाई है, सदा औरों के लिए। हर सुबह यही प्रार्थना करती आई है, 'भगवान सबका भला करना', या `जो भी ठीक समझो वही करना,' क्योंकि मनुष्य की हवस का तो कोई अंत नहीं। अमेरिका में तो सुना है कि लोगों ने हज़ारों डालर देकर मरणोपरांत अपने शवों के प्रतिरक्षण का प्रबंध करवा लिया है ताकि भविष्य में, जब भी टैकनौलोजी इतनी विकसित हो जाए, उन्हें जिला लिया जाए। माया को यह समझ नहीं आता कि ऐसा क्या है मानव शरीर में कि उसे सदा जीवित रखा जाए। गाँधी, मदर टेरेसा या मार्टिन लूथर किंग जैसों महानुभावों को सुरक्षित रख पाते तो और बात थी। अच्छी से अच्छी प्लास्टिक सर्जरी के उपलब्ध होने पर भी एलिज़ाबेथ टेलर जैसी करोड़पति सुंदरी भी कुरुप दिखती है। प्रकृति से टक्कर लेकर भला क्या लाभ। उसे जो करना था वह कर चुकी। बच्चे अपने-अपने घरों में सुख से हैं। न भी हों तो उसने फ़ैसला कर ही लिया था कि वह अब कभी उनके घरेलु मामलों में दखलअंदाज़ी नहीं करेगी। माया एक अजीब-सी मन:स्थिति से गुज़र रही है। उसे लगता है कि कहीं कुछ अप्राकृतिक अवश्य है। वह परेशान है कि उसे मौत से डर क्यों नहीं लग रहा। हो सकता है कि अत्यधिक भय की वजह से उसने भय को अपने मस्तिष्क से 'ब्लॉक' कर रखा हो। जो भी हो, अच्छा ही है। अन्यथा भयवश न तो वह कुछ कर पाती और न ही ठीक से सोच ही पाती। बच्चों को बताने का कोई औचित्य नहीं। बेकार परेशान होंगे और उसकी नाक में दम कर डालेंगे। पिछले महीने ही की तो बात है जब उसे फ़्लू हो गया था। दुर्भाग्यवश वरुण और विधि घर पर थे। उन्होंने तीमारदारी कर करके माया की ऐसी की तैसी कर दी थी। उसे आराम से सोने भी नहीं दिया था। कभी दवाई का समय हो जाता तो कभी खिचड़ी का, कभी गरम पानी की बोतल बदलनी होती तो कभी गीली पट्टी। नहीं नहीं, चुपचाप मर जाना बेहतर होगा। बच्चों को भी तसल्ली हो जाएगी जब लोग कहेंगे कि माया बड़ी भली आत्मा रही होगी कि नींद में चल बसीं। वैसे, कह भर देने से ही कितनी तसल्ली हो जाती है या शायद दिल को समझा लेना आसान हो जाता होगा। लोगों के पास चारा भी क्या है। जीवन के हल में सीधे जुत जो जाना होता है। आजकल तो लोग तेरहवीं तक भी घर में नहीं रुकते। छुटि्टयाँ ही कहाँ बचती हैं। साल में एक बार भारत जाना होता है। फिर परिवार और मित्रों के साथ दो या तीन बार योरोप की यात्रा पर भी जाना पड़ता है। पहले ज़माने में कभी लेते थे लोग छुटि्टयाँ ऐसे कामकाज के लिए। माया तो हारी बीमारी में भी उठके दफ्तर चली जाती थी कि एक छुट्टी बचे तो मंडे बैंक हौलिडे के साथ जोड़ कर कहीं आस-पास ही हो आए। उसका मानना है कि इंग्लैंड की तनाव भरी जलवायु से जब तब निकल भागना आवश्यक है। वैसे भी यहाँ के बहुत से लोग मानसिक बीमारियों से ग्रस्त रहते हैं। जिसे देखिऐ वही 'टैन्स्ड' है। माया भी 'टैन्स्ड' है। अपनी उँगलियाँ उलझाए वह सोच रही है कि पर्दों को धो डाले और घर की झाड़ पोंछ भी कर ले। मातमपुर्सी को आए लोग कहीं ये न कहें कि दूसरों को सफ़ाई पर भाषण देने वाली मायी स्वयं इतने गंदे घर में रहती थी। आज तो केवल बुधवार है और घर की सफ़ाई करने वाली ममता तो शनिवार को ही आएगी। शनिवार को वे दोनों मिलकर घर की खूब सफ़ाई करती हैं और फिर दोपहर में एक नई हिंदी फ़िल्म देखने जाती हैं। शाम का खाना भी बाहर ही होता है। रात को ममता को उसके घर छोड़ कर जब माया वापस आती है तो अपने साफ़ सुथरे फ्लैट में खुशबुदार बिस्तर पर पसर जाना उसे बहुत अच्छा लगता है। कभी-कभी तो इस संवेदना के रहते, वह सो भी नहीं पाती। उनके मना करने के बावजूद ममता उसे 'मैडम' कहकर ही पुकारती है और उसकी बहुत इज़्ज़त करती है। हालाँकि बच्चों को लगता है कि माँ ने उसे सिर पर चढ़ा रखा है, माया उसे अपने परिवार का एक सदस्य ही मानती है। कर्मठ, इमानदार और निष्ठावान है ममता, माया की तरह ही। शायद इसीलिए माया को उसका साथ पसंद है। उसकी सहेलियाँ उसके इस बर्ताव पर नाक भौं चढ़ाती रहतीं हैं तो चढ़ाया करें। नारायण को लेकर ममता कुछ अधिक ही परेशान है। उसका इकलौता बेटा नारायण, जिसके पिता की आकस्मिक मृत्यु हो गई थी, बुरी संगत में पड़ कर एक गुंडे के गिरोह में ड्राइवरी कर रहा है। आजकल उसकी इच्छा है कि उसके प्रवास के दौरान नारायण एक बार लंदन घूमने आ जाए। माया ने दिल्ली में अपने भाई पारस के ज़रिए उसका पासपोर्ट बनवा दिया है और वीज़ा भी लग ही जाएगा। ममता के इसरार पर माया ने पिछले साल पटना के किसी अधिकारी को इस बाबत लिखा भी था पर वहाँ से आज तक कोई जवाब नहीं आया। दिल्ली मुंबई जैसे शहर होते तो शायद कोई जान पहचान निकल भी आती। हर शनिवार ममता को बड़ी आस लिए आती है, 'मैडम कोई चिट्ठी पत्री आई।' न में सिर हिलाती माया सोचती है कि कुछ करना चाहिए किंतु वह कर क्या सकती है? अपना बेटा होता तो क्या वह चुप बैठ जाती? उसका मन कई बार होता है कि बारक्लेज़ बैंक के पाँच हज़ार के बौंड्स ममता को दे दे ताकि वह नारायण को उन गुंडों से बचा सके। किंतु फिर वही दुविधा कि मेहनत से कमाए उसके धन का सीधी-सादी ममता कहीं दुरुपयोग न कर बैठे। बच्चों को क्या, किसी और को भी यदि ये पता लग गया कि उन्होंने इतनी बड़ी रकम ममता को दे दी तो वे उसे पागल समझेंगे। किंतु धन का इससे अच्छा उपयोग भला क्या हो सकता है। महक होती तो कहती, 'ममा, डू व्हाट यू लाईक, इटज़ यौर मनी आफ़्टर ऑल।' वरुण और विधि को उसके धन से कुछ लेना देना नहीं। विधि साई बाबा ट्रस्ट की सदस्य है, कभी बाढ़ पीड़ितों के सहायतार्थ जाती है तो कभी किसी सेवा शिविर के लिए काम करती है। अरुण कहता है कि उन्हें पैसे की कोई कद्र नहीं और ये भी कि यदि माँ चाहें तो उनका पैसा वह किसी अच्छी जगह इन्वैस्ट कर सकता है। इकलौती संतान के नाते, उषा को हर चीज़ अपने नाम करवाने की पड़ी रहती है। इतनी बड़ी रकम उन्होंने पहले किसी को दी भी तो नहीं। उनकी मृत्यु के बाद कहीं बच्चे बेचारी ममता पर कोई मुकदमा ही न ठोक दें। दुनिया में क्या नहीं होता। माया का सोचना ही उसका दुश्मन है पर सोच पर किसी का क्या बस। बस अब और नहीं सोचेगी माया। अभी जाकर वह बौंड्स भुनवा लेगी और शनिवार को ममता को दे देगी। कहीं वह शुक्रवार को ही स्वर्ग सिधार गई तो? हालाँकि वह शुक्रवार की शाम को मरे तो बच्चों और सगे संबंधियों को सप्ताहांत मिल जाएगा। इतवार को ही स्विटज़रलैंड से वरुण और विधि भी छुटि्टयाँ मना कर लौट आएँगे। माया को अच्छा नहीं लगा कि आते ही उन्हें कोई बुरी ख़बर दे पर किया क्या जा सकता है। बैंक जाते समय माया सोचने लगी कि किसी के आख़री वक्त में सबसे विशेष बात क्या हो सकती है? क्यों वह सीधे कपड़ों गहनों की तरफ़ भागी? क्या ये मामूली चीज़ें उसके लिए इतना महत्व रखती हैं? आज तक तो वह यही सोचती आई थी कि उसके मरने के बाद बेटे बहु उसका तमाम बोरिया बिस्तर बोरियों में भर कर ऑक्सफ़ैम या किसी और चैरिटी को दे आएँगे। समय के अभाव में शायद उसका सामान वे कूड़ेदान में ही न फेंक दें। ख़ैर, ये सोचकर क्या वह अपना अमूल्य समय व्यर्थ नहीं गँवा रही? उसे क्या लेना देना इस भौतिक सामान से किंतु किसी के काम आ जाए तो अच्छा ही है। भारत में कई परिवार इन चीज़ों से अपने बहुत से तीज त्योहार मना सकते हैं। ऑक्सफ़ैम वाले क्या समझेंगे भारतीय पहनावे को? वे इन्हें 'रीसाइकिलिंग' के लिए दाहित्र में ही न कहीं डाल दें। पिछले दो वर्षों में ही माया ने दो मौतें देखीं थीं और दोनों ही मृतकों ने कोई वसीयत नहीं छोड़ी थी। अभी अर्थी भी नहीं उठी थी कि बच्चों ने घर सिर पर उठा लिया। जिन माँ बाप ने अपना जीवन अपने बच्चों पर न्योछावर कर दिया था, उनकी आत्मा की शांति के लिए प्रार्थना करने की बजाय उनके बच्चे उन्हे ही भला बुरा कह रहे थे। ख़ैर, उसे इस सब की परवाह नहीं है। उसने अपनी सारी जायदाद, गहने, शेयर इत्यादि बाँट दिए हैं सिवा इन कपड़ों और कुछ पारिवारिक गहनों के और इन्हीं की वजह से वह कल रात भर ठीक से सो भी नहीं पाई थी। इन भौतिक चीज़ों में मृत्यु जैसी विशेष बात भी डूब के रह गई थी। सुबह उठते ही नहा धो कर माया बैठ गई आईने के सामने। बिना मेक अप के चेहरा कैसा बेरंग लग रहा था, करेले-सी झुर्रियां और अर्बी सा रंग। उसने कहीं पढ़ा था कि जिसने जीवन में बहुत दुख झेलें हों, केवल वही एक अच्छा विदूषक हो सकता है। ठंड की गुनगुनी धूप सी मुस्कुराहट उसके चेहरे पर फैल गई। किंतु ये झुर्रियों से भरा चेहरा मृत्यु के पश्चात कैसा लगेगा? जब लोग बक्से में रखे उसके पार्थिव शरीर के चारों ओर घूमकर श्रृद्धांजलि अर्पित करेंगे तो उन्हें कहीं मुँह न फेर लेना पड़े। माया को आकर्षक लगना चाहिए और ये मेकअप आर्टिस्ट पर निर्भर करेगा कि वह कैसी दिखाई दें। शायद और लोग भी इस बारे में चिंतित होते हों। हिम्मत करके उसने अंत्येष्टि निदेशक का नंबर घुमाया। 'हेलो, हाउ मे आइ हेल्प यू?' मीठी आवाज़ में स्वागती ने पूछा। माया ने झिझकते हुऐ पूछा, 'सौरी टु बौदर यू, आइ हैड बुक्ड ए कौफ़िन फ़ॉर माइसेल्फ दि अदर डे, आइ वंडर इफ समवन कुड टेक केयर ऑफ माई मेकअप एंड क्लोद्स आफ़्टर आई एम डेड. . .।' 'ऑफ़ कोर्स मैडम, यौर विश इज़ अवर कमांड।' स्वागती की वरदायनी अदा पर माया मुस्कराने लगी। उसने सोचा कि वह मेकअप आर्टिस्ट को अपना भरा पूरा वैनिटि केस ही दे देगी ताकि कई अन्य भारतीय महिला मृतकों का भी उद्धार हो जाए। गोरे गोरियों के रंग का मेकअप तो इन लोगों के पास होता है किंतु किसी भारतीय महिला ने शायद ही कभी ऐसी माँग की हो। उसे कहाँ फ़ुर्सत इस आडंबर की। उसे यकायक याद आई मीना कुमारी की, जो पूरी साज सज्जा के साथ दफ़नाई गई थी। चलो मेकअप और कपड़ों का तो बंदोबस्त हो गया। उसने सोचा कि क्यों न वह अपने बाल भी ट्रिम करवा ले? उसे अपने हेअरड्रैसर से भी विदा ले लेनी चाहिए। पिछले तीन दशकों में दोनों के बीच एक अच्छा समझौता हो गया है। वह जानता है कि कब उसके बालों को पर्म करना है, कब रंगना है या कब सिर्फ़ ट्रिम करना है। कभी माया उल्टी सीधी माँग कर भी बैठे तो वह साफ़ इनकार कर देता है, 'नहीं, ये आप पर अच्छा नहीं लगेगा', या 'अपनी ज़रा उम्र तो देखो माया।' हालाँकि माया को आज भी लगता है कि वह एक बार उसके बालों को किसी सुर्ख रंग में रंग दे। माया झट से उठी और कार में बैठकर चल दी वैम्बली हाई रोड की ओर। अभी कार को उसने दाईं ओर मोड़ा ही था कि उसने सोचा कि पहले उसे अपने होंठ के ऊपर उग आए बालों को ब्लीच करवा लेना चाहिए। उसने एक ख़तरनाक यू टर्न मारा। यदि कोई पुलिस वाला देख लेता तो उसे अवश्य ही धर लेता। 'ऑन दि स्पौट फ़ाईन' अलग देना पड़ता। पर अब डर किस बात का और ये पैसा किस काम का? यकायक उसने निर्णय लिया कि चाहे कितने भी पाउंड लगें, वह रीजैंट स्ट्रीट पर स्थित सबसे महँगे ब्यूटी पारलर में जाकर मसाज, ट्रिमिंग, भवें, ब्लीचिंग और फ़ेशल आदि सब करवा लेगी। 'टी टूँ टी टूँ' का शोर मचाती एक एम्बुलेंस पास से गुज़री तो कार को धीमा करके माया एक तरफ़ हो गई। न जाने किसको दिल का दौरा पड़ा हो या दुर्घटना में घायल कोई दम तोड़ रहा हो। यदि समय पर डॉक्टरी सहायता मिल जाए तो कई मौतों को बचाया जा सकता है पर ये तो सब नसीब की बातें है। एकाएक माया को ध्यान आया कि उसने अभी तक अपनी आँखे भी दान नहीं की थीं। आँखे ही क्यों, गुर्दे, फेफड़े, दिल आदि उसे अपने सभी अंग दान कर देने चाहिए। साथ तो ये जाएँगे नहीं उसके। किसी के काम ही आ जाएँ तो अच्छा है। किंतु उसके बूढ़े अंग भला किसके काम आएँगे? डॉक्टरों को अनुसंधान के लिए भी तो मृत शरीरों की आवश्यकता पड़ती होगी। क्यों न वह अपना पूरा शरीर ही दान कर दे ताकि जिसे जो चाहिए, ले ले। बाकी के बचे खुचे टुकड़ों का क़ीमा बना कर खाद में डाले या. . .। माया भी कभी-कभी कैसी पागलों जैसी बातें सोचती है पर अस्पतालों से जो मनो अंग प्रत्यंग प्रतिदिन फेंके जाते हैं, वे कहाँ जाते होंगे? प्लास्टिक के थैलों से लेकर दही के डिब्बों तक माया कूड़े में कुछ नहीं फेंकती। जहाँ देखिए कचरा ही कचरा। लोगों को रीसाइक्लिंग की ओर ध्यान देना होगा नहीं तो ये विश्व अवश्य तबाह होकर रहेगा। अस्पताल जाकर वह अपना समूचा शरीर दान तो कर आई किंतु मन में कई संदेह आते जाते रहे। एक दुर्घटना में माया के दादा की उँगली कट गई थी। उनकी मृत्यु के उपरांत, दादी ने विशेष तौर पर कृत्रिम उँगली लगवा कर उनका दाह संस्कार करवाया था। उनका विचार था कि यदि दादा को उनके सभी अंगों के साथ नहीं जलाया गया तो वह अगले जन्म में बिना उँगली के पैदा होंगे। हो सकता है, क्योंकि माया ने अपना पूरा शरीर दान कर दिया है, कि माया का जन्म ही न हो। वह यह भी मानती है कि हर जन्म में मनुष्य अपने को विकसित करता है और जब वह पूरी तरह से परिपक्व हो जाता है, तब ही वह परमात्मा में विलीन होने में समर्थ होता है। माया को लगता है कि वह तो एक बच्चे से भी गई गुज़री हैं। बच्चे भी जब तब कहते रहते हैं, 'ममा, यू आर ए चाइल्ड' या `ममा, यू शुड ग्रो नाओ।' वह कहाँ इस योग्य कि भगवान उसे अपने में लीन कर सकें। अभी तो वह सांसारिक भोगों में आकंठ डूबी है। खुशबूदार मोमबत्तियों के मध्यम प्रकाश में तैरते भारतीय शास्त्रीय संगीत में डूबते उतरते उसके शरीर की मुलायम और सधे हाथों द्वारा मालिश ने उसे स्वर्ग में पहुँचा दिया। उसे लगा कि तन से मानो मनों मैल उतर गया हो। मन हवा से बातें कर रहा था। शायद संसार के ये छोटे-छोटे सुख दुख ही स्वर्ग और नर्क हों। ब्यूटी पारलर से निकली तो पहली बार माया ने जाना कि लोग अपने ऊपर इतना पैसा क्यों खर्च करते हैं। वह सचमुच कितनी मूर्ख थी कि जीवन भर दाँत से भींचकर पैसा खर्च करती रही। पैसा होते हुए भी ऐसे सुख का उपभोग नहीं कर पाई। हालाँकि उसकी बहुएँ नियमित रूप से ब्यूटी पारलर और जिम जाती हैं। विधि तो उनसे भी चलने को कहती रहती थी। किंतु वह उसे सदा हँस कर ये जवाब देकर टाल देती थी, 'बूढ़ी घोड़ी लाल लगाम।' आज वह बीसियों साल बाद गुनगुना उठीं, 'ऐ री मैं तो प्रेम दीवानी, मेरा दर्द जाने कोय' पर कमज़ोरी के मारे आवाज़ खींच नहीं पाईं और चुप हो गईं। सोचा कि घर जाकर कुछ रियाज़ करेगी और फिर गाने की कोशिश करेगी। अभी तो उसे ज़ोरों की भूख लगी थी। सामने ही क्रेज़ी हौर्स पब था, जो फ़िश एण्ड चिप्स के लिए मशहूर था। माया उसमें ही जाकर एक कोने में बैठ गई। किसी के फ्यूनरल से लौटी भीड़ शराब और सैंडविचेज़ में डूब उतर रही थी, 'फ़ार सच ए यंग फेलो, ही वाज़ एन एलीफैंट, माइ शोल्डर स्टिल हर्टस', एक लंबा चौड़ा गोरा युवक अपने कंधे दबाता बोला और उसके अन्य साथियों ने भी उसकी हाँ में हाँ मिलाई, 'ही डाइड ईटिंग, यू नो।' माया ने सोचा कि अमेरिका में अर्थी उठाने वालों का क्या हाल होता होगा क्योंकि वहाँ तो हर तीसरा व्यक्ति मोटापे से ग्रस्त है। दो ही दिन बचे हैं खाने को। यदि वह दो दिन कुछ न भी खाए तो भला उसका कितना वज़न कम हो जाएगा। बेचारी ने सलाद और संतरे के जूस का ही और्डर दिया। जल्दी से खा पीकर वह सीधे जिम पहुँची कि यदि वह जम कर व्यायाम करे तो एक किलो वज़न तो वह घटा ही सकती है। कम से कम उसके बेटे ये तो नहीं सोचेंगे कि ममा कितनी भारी थी, उनके कंधे तो नहीं दुखेंगे। खाने से उसे यह भी याद आया कि जीजाजी की तेरहवीं के अवसर पर बनवाई गई कद्दू की सब्ज़ी को लोग आज भी याद करते हैं। पर बच्चों को तो ये भी नहीं पता होगा कि कद्दू क्या होता है। अपनी तेरहवीं का मेन्यु भी वह स्वयं ही बना के रख दे तो बच्चों का एक और सिरदर्द दूर हो जाए। कहीं उसके बच्चे भी ये न सोचें कि माँ को उन पर ज़रा भी विश्वास न था तभी तो सारे इंतज़ाम करके गई पर उसे कहाँ बस था स्वयं पर। क्रिसमस के कार्ड तक तो वह अक्तूबर में लिख कर रख लेती है। अच्छा हुआ कि केवल दिन का ही नोटिस मिला अन्यथा मृत्यु की तैयारी में वह महीनों लगी रहती। घर वापस आकर उसने अपनी तसल्ली के लिए एक फ़ाइल खोल ही ली। पहले पन्ने पर अंत्येष्टि निदेशक, उसकी सहायक और दो तीन जाने माने खान पान प्रबंधकों के नाम, पते, फ़ोन और उनके ईमेल आदि लिख दिए, अपनी एक टिप्पणी के साथ कि वे चाहें तो मौसा जी की तेरहवीं पर सपना केटरर द्वारा परोसा गया खाना ही दोबारा ऑर्डर कर सकते हैं जो सभी को बहुत पसंद आया था। हाँ, यदि वे कुछ नया या आधुनिक आयोजन करना चाहें तो माया को कोई आपत्ति नहीं होगी। आगंतुकों की भीड़-भाड़ में घर की सफ़ाई, चाय पानी के इंतज़ाम के लिए ममता का होना आवश्यक है। हालाँकि माया की मृत्यु का समाचार सुन कर कहीं उसके हाथ पाँव ही न छूट जाएँ। बेटे का जीवन सँवारने के लिए ममता रात दिन लोगों के घरों में सफ़ाई करती है। वह तो शायद कभी ये भी नहीं जान पाती होगी कि कब फूल खिले, कब पत्ते झड़ें या कब बरसात हुई। 'नारायण, नारायण' जपती वह पोचे मारती है, 'नारायण, नारायण' करती वह बर्तन धोती है और 'नारायण, नारायण' करके उसने माया की नाक में दम कर रखा है। बर्फ़ में भी वह बिना मोज़े पहने निकल पड़ती है घर से। दास्तानों की तो बात दूर है। अकड़े हाथों से न जाने कैसे काम करती है। ठंड के मारे उसके पैरों की बिवाइयों में खून भी जम जाता है। ममता एक भारतीय राजनयिक और उनके परिवार के साथ लंदन आई थी, जिन्हें कार्यवश जल्दी ही स्वदेश वापस जाना पड़ा। वे उसे को दो वर्षों के लिए यहीं छोड़ जाने को राज़ी हो गए थे कि यहाँ वह कुछ पैसा कमा लेगी। नारायण तुला है किसी भी क़ीमत पर माँ के पास आने को और ममता दिन रात यही सोचकर डरती रहती है कि यदि उसकी मंशा किसी को भी पता लग गई तो गुंडे उसका न जाने क्या हश्र करें। नारायण का पासपोर्ट बन चुका है और माँ के पास आने की बेचैनी में उसे लगता है कि माँ जल्दी से टिकट क्यों नहीं भेज रही। भूखे प्यासे रह कर पैसा जोड़ने के सिवा वह और क्या कर सकती है। बच्चे कहाँ समझते हैं माँ की मजबूरियाँ, उसकी बेबसी और उसकी चिंता। बच्चे क्या जाने कि मृत्यु क्या होती है। उन्हें तो छोटी बड़ी हर चीज़ चाहिए। माया की पोती, रिया, जब केवल ढाई वर्ष की थी तो दादा की बेशकीमती घड़ी लेने की ज़िद कर रही थी। माया ने हँसी-हँसी में कह दिया कि दादा जी के बाद ये सब उसी का तो ही है। रिया ने झट पूछा, 'दादी, वैन विल दादु डाई?' माया सन्न रह गई थी। अरुण ने बच्ची को एक थप्पड़ मार दिया। रोती हुई रिया को उषा घसीट कर अपने शयनकक्ष में ले गई, क्रोध में ये कहती हुई, 'आर यू मैड, अरुण?' रिया बच्ची थी और नहीं जानती थी कि उसे घड़ी तो अवश्य मिल जाएगी पर वह अपने प्यारे दादु को खो देगी। वैसे कितने ही लोग हर रोज़ अपने संबंधियों के मरने की राह देखते हैं। अभी हाल में ही केवल एक हज़ार डॉलर्स के लिए दो पोतों ने मिल कर अपनी दादी की हत्या कर डाली। दहेज की वजह से बहुओं की हत्या का भी कारण यही लालच है। माया सोचती है कि अपने जीते जी ही बच्चों को सब दे देना चाहिए। किंतु हवस का तो कोई ठिकाना नहीं। जितना पैसा माँ बाप दहेज़ में लगाते हैं, कितना अच्छा हो कि यदि वे अपनी बच्चियों की पढ़ाई लिखाई पर खर्च करें ताकि वे अपने पाँव पर खड़ी हो सकें, उनके बुढ़ापे की लाठी बन सकें पर न जाने क्यों आज भी इसकी अपेक्षा तो बेटों से ही की जाती हैं। दो बेटों के होते हुए भी आज माया कितनी अकेली है। हालाँकि वे माँ को अपने पास रखने को सहर्ष तैयार हैं, पर उनका मन किसी के साथ रहने को माने तब न। एक महक ही है जो बिना नागा फ़ोन पर उनका हालचाल पूछती रहती है। जब मौका मिलता है, आ जाती है, उनके सिर में तेल मलती है, उनके नए पुराने कपड़े छाँटती है और अब भी उनसे चिपट कर सोती है। महक और पीटर कभी-कभी उसे ज़बरदस्ती सेंट एंड्रूज़ ले जाते है। किंतु वही बेटियों के घर में रहने खाने की बात उसे खटकती है। जबकि यहाँ सासें दामादों के यहाँ रहती हैं। माया सोचती है कि वह स्वयं भी कितनी दोगली है कि एक तरफ़ जहाँ वह दर्शन और आदर्श बघारती है, दूसरी तरफ़ उन्हीं बातों के लिए दूसरों की निंदा करती है। जैसी भी है, माया अब तो बदलने से रही। बुराइयाँ किसमें नहीं होतीं, अच्छाइयाँ भी उसमें कम नहीं। कोई ज़रा माया से सहायता माँग तो ले, चाहे उसके पास समय या हिम्मत हो न हो, वह न नहीं कर सकती। उत्साह में तो वह ये भी भूल जाती है कि किसका काम है, क्या काम है, उसके पास समय होगा भी कि नहीं। पूरे ज़ोर शोर से जुट जाती है। व्यवस्था का कोई भी पहलू मजाल है कि उसकी आँख से छूट जाए। शवपेटिका की व्यवस्था माया कर ही चुकी थी। बच्चों पर छोड़ देती तो वे सबसे महँगी लकड़ी का सुनहरी कुडों से जड़ा बक्सा ही ख़रीदते। शव को कपड़े में लपेटकर भी काम चलाया जा सकता है। भारत में लोग कितने यूज़र फ्रेंडलि हैं। हर चीज़ को रीसाईक्ल करते हैं। भाड़ ही में तो झोंकना है, पानी में पैसा बहा देने का क्या फ़ायदा। इससे तो वो पैसा किसी ग़रीब के काम आ जाए तो अच्छा हो। पर कौन देकर जाता है कुछ ग़रीबों को। कब से सोच रही है माया कि रॉयल स्कूल ऑफ़ ब्लाइंड की सहायता करने को पर बात है कि बस टलती चली जाती है। वह कल अवश्य जाएगी। हालाँकि पिछले हफ़्ते ही उसने कुछ धन हरे रामा हरे कृष्ण वालों नब्बे प्रतिशत तो सुना है धन इकट्ठा करने वालों की जेब में चला जाता है। गोरे लोग कितना दान करते हैं। वे तो कभी नहीं सोचते कि पैसा कहाँ जा रहा है। जिनके मन में लालच हो, उन्हें तो बस कोई बहाना चाहिए। वह मन ही मन शर्मिंदा हो उठी। वास्तव में तो वह अधिक से अधिक धन बच्चों के नाम छोड़ना चाहती है। हालाँकि वह जानती है कि उषा तो यही कहेगी, 'हमारे हिस्से में बस इतना ही आया, मम्मा वरुण और विधि को ज़रूर अलग से दे गईं होंगी।' विधि को कुछ भी दो वह यही कहती है, 'मम्मी जी पहले आप महक जीजी और भाभी से पसंद करवा लीजिए, हम बाद में ले लेंगे।' न जाने अरुण और उषा सदा यही क्यों सोचते हैं कि माया वरुण और विधि को ही अधिक चाहती हैं। कोई माँ से पूछे कि उसे अपनी कौन-सी आँख प्यारी है। माया को लगता है कि जैसे-जैसे व्यक्ति उम्र में बड़ा होता जाता है, अनासक्त होने के बजाय आसक्त होता जाता है। जहाँ विधि और महक को पैसे अथवा चीज़ों की ज़रा परवाह नहीं, वहीं उषा को और स्वयं उसे छोटी-छोटी चीज़ों से लगाव है। उन्हें ये भी चिंता रहती है कि देने लेने से कौन कितना प्रसन्न होगा। अस्थाई और क्षणिक प्रसन्नता के लिए इतना आयोजन प्रयोजन और परम आनंद के लिए कुछ भी नहीं। किंतु आनंद भी तो इन्हीं रिश्तों से जुड़ा है। जहाँ जा रही है माया, वहाँ दुख सुख के मायने शायद दूसरे हों। शायद वहाँ दुख सुख हों ही नहीं। पिछले साल ऋषिकेश में वह दीपक चोपड़ा से मिली थी। आनंदा में वह अपने पच्चीस अनुयायियों के साथ ठहरे हुए थे। मृत्यु के विषय पर उनका एक व्याख्यान सुनकर माया को लगा कि जीवन मृत्यु जैसे पेचीदा विषयों को समझना कितना सरल था। 'फूल खिलते हैं, मुरझा जाते हैं और फिर खिलते हैं। इस पृथ्वी पर जो भी जन्म लेता है, उसकी मृत्यु अवश्यंभावी है, पर उसका पुनर्जन्म भी उतना निश्चित है।' माया बस यही नहीं समझ पाती है कि ऋषि मुनियों की बातें उसके मस्तिष्क में टिक क्यों नहीं पातीं। क्योंकि शायद ये संसार है और यहाँ की हर चीज़ क्षणिक है, क्षणभंगुर है। किंतु प्रश्न ये उठता है कि मृत्यु और पुनर्जन्म के बीच के समय में क्या होता होगा। मृत्यु के उपरांत क्या होगा, इसका भय शायद दूसरों को अधिक होता हो। तभी तो इस वक्त माया को स्वयं कोई भय नहीं। जबकि पिछले दस बारह वर्षों में वह जब तब यही सोचती रही थी कि मृत्यु के बाद क्या होता होगा और ये भी कि क्या बेहतर है, मृतक को जलाना, ज़मीन के नीचे दबाना या चीलों को खिलाना। आबादी बढ़ती जा रही है, इतने सारे मृतकों को पृथ्वी कैसे और कब तक अपने में जज़्ब कर पाएगी। स्वयं वह जलाने की पक्षधर रही है। चीलों द्वारा नोच खसोट मृतक का अपमान नहीं तो और क्या है। किंतु इस जाति की भावना तो देखिए, शायद ये ही लोग अंततोगत्वा 'परम पिता परमात्मा' में समा जाते हों। 'परम पिता परमात्मा' से उसे याद आई अपने पिता की जो सारा जीवन राम नाम की माला जपते रहे। हालाँकि उनके क्रोध, आत्मरतिक, और मांसाहारी प्रवृत्ति से परेशान उनका परिवार सदा यही सोचता रहा कि केवल 'परम पिता परमात्मा' ही उनकी रक्षा कर सकते थे और शायद उन्होने रक्षा की भी। नहीं तो ऐसी अच्छी मौत किसे नसीब होती है। माया के पति हरीश की मृत्यु हुए पाँच वर्ष होने को आए। उन्हें दफ़्तर में दिल का दौरा पड़ा और एम्बुलैंस के आने से पहले ही उन्होंने दम तोड़ दिया। उनके शव को घंटो निहारती बैठी रही थी माया कि अब साँस आई कि तब। नर्सों के विश्वास दिलाने के बावजूद कि हरीश अब नहीं रहे, उसे लगता रहा कि उनके शरीर में उसने हरक़त देखी। विवाहित जीवन के दौरान वे कभी अलग नहीं रहे। पढ़ाई, इम्तहान या दफ़्तर के सिलसिले में जब भी हरीश को कहीं जाना पड़ा, वह माया को अपने खर्चे पर साथ लेकर गए। वह स्तब्ध थी कि बिना कुछ कहे वह उसे अकेले कैसे छोड़ के चले गए। अब क्या बचा था, केवल चौखट, दरवाज़े, दीवारें और इन सबसे सिर मारती माया। अरुण और उषा तो पहले ही अलग घर बसा चुके थे। अठारह वर्ष की आयु में विवाह करके महक अपने पति, पीटर, के साथ स्काटलैंड में जा बसी थी और वरुण बर्मिंघम में पढ़ रहा था। आस पड़ौस में भी किसी को विश्वास नहीं हो रहा था कि हरीश यों चल बसेंगे। संबंधियों और पड़ौसियों ने मिल कर बारी लगा रखी थी। कोई न कोई हमेशा घर में बना रहता कि न जाने माया को कब और क्या आवश्यकता आन पड़े। हफ़्तों तक परिवार के लिए ही नहीं, अपितु मेहमानों के लिए भी नियमित खाना पीना आता रहा, भजनों के नए-नए सीडीज़ और कैसेट्स बजते रहे, दिये में घी डाला जाता रहा। एक सप्ताह के अंदर ही माया ने अपने दुख पर पूरी तरह काबू पा लिया था और घर परिवार अब उसके पूरे नियंत्रण में था। नए काले क्रिस्प सूटों में बेटों, दामाद और पोते को देख माया फूली नहीं समा रही थी। विवाह की पच्चीसवीं वर्षगाँठ पर हरीश ने उसे हीरे के छोटे-छोटे बुंदें और नेकलेस दिए थे, जो बहुओं द्वारा पहनाई उस महँगी सफ़ेद साड़ी के साथ कुछ अधिक ही चमक रहे थे। बहुएँ स्वयं लिपटी थीं काली साड़ियों में जिस पर चाँदी के धागों का हल्का बॉर्डर था। माया ने ही कहा था कि चाहे कितना भी बुरा अवसर क्यों न हो, सुहागने काला कपड़ा नहीं पहनती। घर में अवलोकनार्थ रखे हरीश के शव को देख महक का बेटा आर्यन बार-बार 'हेलो दादू' 'हेलो दादू' पुकारे जा रहा था। आर्यन की हरीश से खूब छनती थी। उनसे मिलने वह महीने में एक या दो बार लंदन से सेंट एंड्रूज़ जाते थे। जब कभी आर्यन शरारत करता, वह उससे कुट्टी कर लिया करते और जहाँ उसने गाल फुलाए कि हुई दादु की अब्बा। 'वाऐ इज़ दादु नॉट टॉकिंग टु मी।' उसकी आँखों में आँसू थे। 'ममा, टैल दादु आई एम नॉट नौटी एनी मोर।' माया कुछ न कह सकी। उसे गोदी में ले पीटर बाहर चला गया। हरीश के फूलों को गंगा में विसर्जन करने के लिऐ पूरा परिवार हरिद्वार पहुँचा था। माया का भारी भरकम भाई पारस यदि उन सबको नहीं बचाता तो पंडितों की धक्का-मुक्की में घिरे इस परिवार का राम नाम सत्य हो जाता। वस्र्ण और विधि तो पहली बार भारत आऐ थे। उनकी `एक्सक्यूज़ मी, एक्सक्यूज़ मी' भी किसी काम नहीं आई थी। माया ने सोचा कि हरीश की मृत्यु यदि भारत में होती और उनका क्रियाक्रम यहाँ करना पड़ता तो बच्चों के सब्र का बाँध तो अवश्य टूट जाता। हरीश को यदि पिता का कपाल फोड़ना पड़ता तो न जाने क्या होता। शायद समय आ गया था माया का वापस संसार में लिप्त हो जाने का कि एक दिन उसकी पड़ोसन, जयश्री उसे ज़िद कर अपने साथ घसीट कर ले गई। ऐरे ग़ैरे नत्थू ख़ैरे सभी बाबाओं के सतसंगों में जाती है जयश्री। माया को इन बाबाओं और माताओं पर कोई श्रद्धा नहीं किंतु इस बार वह जयश्री को टाल नहीं पाईं। एक बड़े नामी योगी लंदन आए हुए थे। भीड़ में बैठी हुई माया को इंगित करके जब बाबा ने पूछा, 'बेटी किसके शोक में डूबी है।' माया ने सोचा कि बाबा को उसकी रोती धोती शक्ल से ही पता लग गया होगा कि यह नमूना कुछ ज़्यादा ही दुखी है, इसमें कौन-सी बड़ी बात थी। शायद माया के विधवा होने की बात उन्हें जयश्री ने बताई हो। ख़ैर, जब बाबा मन की बात जानते हैं तो वह माया का कष्ट भी जान ही गए होंगे। जयश्री उसे पकड़ कर बाबा के ठीक आगे ले गई, 'बाबा, इसका हज़बेंड ऑफ़ थेई गया छे, कोई नई साथे वात करती न थी अने कोई ने मलती न थी।' जयश्री के हज़बेंड ऑफ़ थेई गया छे, पर माया को हँसी आ गई और बाबा भी मुस्करा पड़े और जयश्री प्रसन्न थी कि माया के कारण, उसे बाबा के नज़दीक जाने की मौका मिल गया था। 'अपनी हानि को तो बेटी सभी रोते हैं, कभी उनकी भी सोचो जो प्रभु के पास हैं, उनके लाभ में भी तुम्हें प्रसन्न होना चाहिए।' माया को लगा कि सचमुच वह कितनी स्वार्थी थी कि उसने हरीश के विषय में तो कभी सोचा ही नहीं। जब तक बाबा लंदन में रुके, माया नियमित रूप से उनके पास योगासन सीखने जाती रही। किंतु उसके बाद न तो बाबा ने कुछ कहा, न ही माया ने कुछ पूछा। उसके दिल में एक सुकून व्याप्त हो गया था जैसे हरीश फिर उसके साथ थे। शादी की हर वर्षगाँठ पर हरीश मोगरे के फूलों के हार और गजरे माया के लिए विशेष तौर पर बनवाते थे। माया ने सोचा कि यदि हरीश जीवित होते तो उसकी शव पेटिका को मोगरे के फूलों से लाद देते। सगे संबंधी गुलदस्ते लेकर आएँगे। नहीं होंगे तो बस उनके भिजवाए मोगरे के फूल। कितनी अधूरी और फीकी लगेगी माया की शवयात्रा। शायद हरीश उसकी इंतज़ार में हों। वह हुलस उठी। पर क्या करे। कोई हलक़ में उँगली डाल कर तो आत्महत्या नहीं कर लेता। कर भी ले तो जो थोड़ा बहुत उनसे मिलने का मौका है, माया कहीं वो भी न गँवा दे। हालाँकि हरीश स्वयं एक जाने माने वकील थे, वह उसे 'मी लॉर्ड' कहकर पुकारते थे क्योंकि बाल की खाल उतारने की आदी थी माया। हरीश की याद उसे कभी-कभी दीवाना बना देती है। दिल है कि सँभलता ही नहीं, 'याद आए वो यों जैसे, दुखती पाँव बिवाई जी. . .।' माँ बचपन में माया को हरिश्चंद्र तारामती के अमर प्रेम की कहानी सुनाती थी। वही तारामती जो अपने पति को यमराज से भी छुड़ा लाई थी। माया ने हाल ही में बी.बी.सी. पर एक फ़िल्म देखी थी जो एक ऐसी बीमारी के विषय में थी जिसमें रोगी बिल्कुल मृत दिखाई पड़ता है। डॉक्टरों को भी उसमें जीवन का कोई लक्षण नहीं दिखाई देता और जीते-जी उसे मुर्दाघर में डाल जाता है। एक ऐसी ही महिला अब सोने से भी डरती है कि कहीं फिर न उसे मृत समझ के मुर्दाघर में डाल दिया जाए। माया को लगा की सत्यवान के साथ भी कुछ ऐसा ही घटा होगा। तारामती को पूर्ण विश्वास होगा तभी तो वह पति के शव को गोदी में लेकर बैठी रही। जो भी हो, माया का प्रेम अमर है और हरीश आज भी उसके साथ हैं। इस विचार मात्र से वह सिहर उठी। मृत्यु के पश्चात वह उनसे अवश्य मिलेगी। वह इंतज़ार कर रहे हैं उसका उस पार। 'याद आए वो यों जैसे, दुखती पाँव बिवाई जी. . .।' भाव विह्वल माया ने अंत्येष्टि निदेशक को पत्र लिखकर उसे मोगरे के फूलों के छल्ले पर 'स्वागतम माया, सस्नेह हरीश' लिखवाने की व्यवस्था करने को कह दिया। यह बात भला वह किससे कहती, कहती तो लोग समझते कि उसका सिर फिर गया है। कोई मृत व्यक्ति भी फूल भिजवाता है किसी को? पर कितना मज़ा आएगा जब लोग मोगरे के फूलों के साथ हरीश का नाम देखेंगे, अंतिम बार दोनों का नाम एक साथ। वह रोमांचित हो उठी और ये सोच कर कि 'वैन इन रोम, बी रोमन्ज़' उसने एक मरसेडीज़ भी बुक करवा दी। विदेशों में विवाह के अवसर पर अथवा शवयात्रा में काली रॉल्सरौयज़ बुलवाना पौश समझा जाता है।। हरीश होते तो मरसेडीज़ों की क़तार खड़ी होती। माया की अर्थी भी शान से उठनी चाहिए। बच्चों को भी अच्छा लगेगा। काली लंबी रॉल्सरौयज पर मोगरे के फूल कितने भव्य दिखेंगे। गली कूचों में लोग ठिठक के रुक जाएँगे और सराहेंगे इस शवयात्रा को। मृत्यु का भय नहीं सता रहा माया को। जो होना है, सो तो होकर ही रहेगा। नरक, स्वर्ग, पुनर्जन्म या 'कुछ नहीं'। 'कुछ नहीं' के साँप को तो वह मन में ही दबाती रहती है और शायद उनकी अपनी बीन पर ही, फन उठाए यह भय जब तब लहराने लगता है। लोगों को उसने कहते सुना है कि कहीं आत्मा खालीपन में भटकती न रहे। भला ये भी कोई बात हुई। देवग्रंथों के अनुसार आत्मा को न तो कोई मार सकता है, न ही कोई दुख पहुँचा सकता है। तो फिर काहे का डर। डर तो बस माया को है पुनर्जन्म से, वही पढ़ाई लिखाई, विवाह, बच्चे, और फिर से मृत्यु। पर क्या पता उसे अगली योनि मनुष्य की मिले या न मिले। जिस रूप में भी पैदा हो बस भगवान मनुष्य जन्म की याद भुला दें। क्या जाने कीड़े मकौड़े और जानवरों को याद रहता हो अपना पिछला जन्म। शायद इसी का नाम नरक हो, कर्मों का फल। माया को लगता है कि उन्हें अपने पिछले जन्म की कुछ-कुछ याद है। वैसे तो मनुष्य का मस्तिष्क न जाने क्या-क्या खेल दिखाता है किंतु यदि यह बात सच है तो दो बार वह मनुष्य योनि में जन्म ले चुकी है और अब मनुष्य योनि का संयोग कम ही है। ख़ैर, जो भी होगा, देखा जाएगा, अभी से परेशान होने का क्या फ़ायदा। इस आख़िरी वक्त में भजन गाने से तो भगवान प्रसन्न होने से रहे। तैयारी भी करे तो क्या और कैसी? जब भी माया किसी यात्रा पर निकलती है, ढेर-सी तैयारी करके चलती है। हर तरह की बीमारी की दवाएँ, गरम पानी की बोतलें, डिब्बे का खाना, अचार मुरब्बे, माचिस, चाकू, स्क्रू ड्राइवर, असमय की ठंड के लिए गरम कपड़े, कंबल, ब्रांडी, अतिरिक्त पेट्रोल का कनस्तर और न जाने क्या-क्या। जब वह लौटती है सारे सामान के साथ लदी-फदी, तो बच्चे हँसते हैं, 'डिडंट वी टैल यू टु ट्रैवल लाइट।' पर किसी चीज़ की ज़रूरत पड़ जाती तो माया को किसी का मुँह तो नहीं ताकना पड़ता। अब चाहे अंगारों पर चलना पड़े या बर्फ़ पर, इस यात्रा पर उसे खाली हाथ ही निकलना है। काश कि उसने 'ट्रैवल लाइट' की आदत डाल ली होती तो आज उसे इस बेचैनी से दो चार न होना पड़ता। समय की पाबंद, माया बिल्कुल तैयार बैठी है। जैसे बस और इंतज़ार नहीं कर पाएगी। क्यों कर लोग समय का पालन नहीं करते। पर मृत्यु को दोष नहीं दिया जा सकता और न ही डॉक्टरों को। कोई समय तो तय नहीं किया गया था। पहली बार उसके दिमाग़ में ये बात आई कि डाक्टर ग़लत भी तो हो सकता है। थोड़ी-सी आशा बँधी किंतु जीवन की नन्ही-सी किरण भी उसे अधिक उत्तेजित न कर पाई। डाक्टर ने कह दिया, माया ने सुन लिया और चुपचाप चली आई। एक प्रश्न तक नहीं पूछा। डाक्टर ने उससे कोई सहानुभूति भी नहीं प्रकट की। यहाँ तो टर्मनली इल रोगियों को विशेष परामर्श की सुविधा दी जाती है। एक ज़माना था जब रोगियों को बुरे समाचार से वंचित रखा जाता था किंतु अब तो विशेषज्ञों का मत है कि रोगी और उसके संबंधियों को सीधे-सीधे बता देना उचित है। काश कि माया बिजली के बटन की तरह जीवन का स्विच खट से बंद कर पाती क्योंकि वह सचमुच तैयार है शरीर त्यागने को। बेकार बैठी है और उसकी ऊर्जा व्यर्थ जा रही है। शायद उसे इसकी आवश्यकता पड़े मृत्यु के उपरांत। पर उसके बस में कुछ नहीं है। मनुष्य के बस में कुछ भी नहीं है। माया सोचती है कि आँधी तूफ़ान और भूचाल आदि के माध्यम से प्रकृति जब-तब अपने प्राणियों की संख्या नियंत्रित करती रहती है, जिसे भगवान का कोप समझ कर झेलते रहते हैं पृथ्वीवासी। जो समझ से परे हो, उसे भगवान का नाम दें या किसी बुद्धिमान अभिकल्पक का, क्योंकि जगत की संरचना के पीछे एक प्रतिशत संदेह तो बना ही हुआ है। इसी विषय को लेकर अमेरिका जैसे विकासशील देश में आज भी लोगों के बीच छुट-पुट घटनाएँ सुनने में आती हैं, जिनमें कोई डार्विन के विकासवादी सिद्धांत को कोसता है तो कोई विज्ञान को। माया के पल्ले जब कुछ नहीं पड़ता तो वह गाने लगती है, 'कोई तो बता दे जल नीर कि सिया प्यासी है।' ये प्यास जीते जी तो बुझने से रही। शायद मर के ही मिलना हो उस बुद्धिमान अभिकल्पक से। किसी से मिलेगी अवश्य माया और हरीश का पता ठिकाना भी मालूम करके रहेगी। श्रादों में माया की दादी स्वर्गीय दादा और परिवार के अन्य मृतकों की शांति के लिए पंडितो को दान देतीं और भोजन कराती थीं। पिता की बात याद कर माया मुस्करा अनायास उठी। जब भी माँ श्राद्ध के भोजन का प्रबंध करतीं, वह कहते कि उनके पिता और दादा की आत्मा को शांति पहुँचानी है तो कोफ़्ते पकाओ, मुर्ग मुसल्लम बनवाओ। पति की मृत्यु के उपरांत, माँ, जो अपनी सास को दकियानूसी करार देतीं आई थीं, स्वयं अंधविद्यालयों में कंबल और भोजन आदि बाँटने लगीं ये कहकर कि उनकी आत्मा को शांति मिले न मिले, किसी गरीब का कल्याण तो हो ही जाएगा। जब शरीर ही नहीं रहा तो कैसी शांति और कैसा क्लांत, पर वही बात कि दिल को समझाने को गालिब ख़याल अच्छा है। हालाँकि पंडितों को जजमानों की क्या कमी, बहुत से बेवक़ूफ़ हैं दुनिया में, यहाँ लंदन में भी। हरीश की प्रत्येक बरसी पर माया स्वयं पूजा करवाती है, अंधविद्यालयों और अन्य संस्थाओं को दान देती है। जहाँ तक हरीश का प्रश्न है, वह कोई ख़तरा नहीं उठाना चाहती। क्या पता किस दान से और क्योंकर पति को चैन मिल जाए। अगर ये सब करने से कोई फ़र्क नहीं पड़ता, तो भी पैसा किसी अच्छे काम में ही तो लगा। पूजा पाठ एवं दान करने का शायद यही औचित्य हो। बनारस से लाई हुई गंगाजल की बोतल को माया ने अपने सिरहाने रख लिया है। डायरी में उसने झटपट एक और टिप्पणी जोड़ दी कि यदि किसी कारणवश वह स्वयं गंगाजल नहीं पी पाए तो जो भी उसे मरणोपरांत देखे, उसके मुँह में गंगाजल की कुछ बूँदे टपका दे। और हाँ ये भी कि उसकी अस्थियाँ गंगा की बजाय रिवर थेम्स में भी डाली जा सकतीं हैं। एक कहावत है कि मन चंगा तो कठौती में गंगा। फिर भी, अंदर या बाहर, गंगा तो उसके संग होगी ही। बरसों पहले किसी वैज्ञानिक ने विष का स्वाद जानने के लिए अपने ऊपर एक प्रयोग किया था। जीभ पर ज़हर रखते ही वह मर गया और उसका प्रयोग सफ़ल नहीं हो पाया। माया ने सोचा कि यदि सभी मरणासन्न लोग कोई एक प्रयोग करके मरें, तो शायद कई गुत्थियाँ सुलझ जाएँ। जैसे कि वह जानना चाहती है कि मरते समय व्यक्ति को कैसा अनुभव होता है। शांति का या अशांति का। उसने निर्णय लिया कि वह अपनी तर्जनी पर लाल रंग यानि अशांति और बीच की उँगली पर हरा रंग यानी कि शांति का रंग लगा के इंतज़ार करेगी मरने का। पलंग पर एक नोट लिख कर छोड़ जाएगी बच्चों के लिए कि चादर पर जो भी रंग रगड़ा हुआ मिले, उसके प्रयोग का निष्कर्ष वही होगा। मन में ढेरों दुविधाएँ उठीं किंतु माया ने उन्हें एक ही वार में दबा दिया कि प्रयत्न करने में क्या जाता है। इस विषय पर शायद उसे किसी की सहायता की आवश्यकता पड़े। पारस होता तो वे दोनों बैठकर इस प्रयोग की बारीकियों में उतरते किंतु इस बारे में सोच कर माया और समय व्यर्थ नहीं करना चाहती। माया की नज़र फिर पर्दों पर जा ठहरी। घर के धुले पर्दों में मज़ा नहीं आता। ड्राईक्लीनर्स के धुले और भारी इस्त्री किए पर्दे गंदे भी कम होते हैं। ममता इस शनिवार को आए कि न आए। पिछले हफ्ते ही वह बता रही थी कि नारायण ने जब गिरोह के सरदार से माँ के पास जाने की अनुमति माँगी तो उसने न केवल साफ़ मना कर दिया, परंतु उसे जान से मार देने की धमकी भी दे डाली। माया ने सोचा कि शाम को फ़ोन करके ममता को बुला लेगी और पैसे देकर कहेगी कि जाके अपने बेटे को छुड़ा ले। कितनी खुश हो जाएगी ममता। अपने इस निर्णय पर माया सचमुच बेहद प्रसन्न थी। माया पर्दे उतारने को अभी स्टूल पर चढ़ी ही थी कि घंटी बजी। इस समय कौन हो सकता है उसने तो किसी को बुलाया नहीं था। कहीं वह किसी को बुलाकर भूल न गईं हो। दरवाज़ा खोला तो देखा बाहर ममता खड़ी थी। 'तू हज़ार बरस जिएगी ममता, अभी मैं तुझे ही याद कर रही थी।' वह चहकती हुई बोली। 'मैडम जी, वो नारायण है न, वो. . .' बदहवासी में वह ठीक से बोल भी नहीं पा रही थी। 'हाँ हाँ, क्या हुआ उसे।' 'उसका एक्सीडेंट,' माया यदि उसे सँभाल न लेती तो ममता वहीं ढेर हो जाती। आँसू थे कि रुकने का नाम ही नहीं ले रहे थे और हिचकियों के मारे उसका बोलना मुहाल था। उसके आधे अधूरे वाक्यों से माया इस नतीजे पर पहुँची कि नारायण के साथ हुए इस हादसे के पीछे उन गुंडों का ही हाथ है। कहीं से उन्हें पता चल गया था कि वह चुपचाप लंदन जा रहा है कि बस, उन्होंने उसे कार के नीचे कुचलने की कोशिश की और फिर अस्पताल में आकर उसे धमकी दी कि इस बार तो टाँगे ही तोड़ी हैं, अगली बार वे उसे जान से मरवा सकते हैं। माया ने ममता के हाथ से निचुड़ पुचड़ा काग़ज़ लिया जिस पर उसके भाई सर्वेश का नंबर लिखा हुआ था। नंबर मिलाया तो सर्वेश ने भी वही सब दोहरा दिया जो ममता बता रही थी, इस अनुरोध के साथ कि, 'मैडम, आप तो जी बस बहन को प्लेन में बैठा दें, नारायण की हालत ठीक नहीं है मैडम जी।' वह भी बहुत घबराया हुआ लग रहा था जैसे कि उसकी अपनी जान पर बनी हो। भाई से बात करके तो ममता के सब्र का बाँध मानो टूट ही गया। 'अब मैं जी कर क्या करूँगी, मैडम, मैं उसी के तो लिए इकट्ठा कर रही थी पैसा। इससे तो मैं उसके साथ ही जीती मरती, अब इस पैसे क्या फ़ायदा।', कहकर उसने अपनी सारी जमा पूँजी माया के कदमों में डाल दी। माया ने उसे सीने से लगा के तसल्ली देनी चाही किंतु वह तो यों रोए चली जा रही थी जैसे दुनिया में उसका कुछ न बचा हो। माया ने झटपट अपने ट्रैवल एजेंट को फ़ोन किया और जब वह ममता के लिए टिकट आरक्षित करवा रही थी तो उसने सोचा क्यों न उसके साथ वह स्वयं भी पटना चली जाए। पटना जैसी जगह में किसी को पटाना होगा, किसी से पटना होगा, किसी को मनाना होगा तो किसी को हटाना होगा। ममता अभी इस हालत में नहीं है कि नारायण की कोई मदद कर सके। कहीं इन गुंडों के चक्कर में आकर वह न केवल अपना मेहनत से कमाया सारा धन ही न गँवा दे, बल्कि अपनी जान से भी हाथ धो बैठे। ऐसे समय में धैर्य, नियंत्रण और कूटनीति से काम लेना होगा। सीधी सादी ममता को तो शायद इन शब्दों का अर्थ भी नहीं पता होगा। ममता ने जब सुना कि मैडम उसके साथ पटना चल रही हैं तो उसके चेहरे पर आश्चर्य, कुतूहल और अनुग्रह के भावों की छटा बस देखते ही बनती थी। स्पष्टत: माया के दिमाग़ में एक योजना बन रही थी। ममता को रसोई में व्यस्त करके वह स्वयं कंप्यूटर खोल कर बैठ गई। उसने वेबसाइट्स पर एक पाँच सितारा होटल में दो कमरे, एक बड़ी जीप और ड्राईवर का इंतज़ाम कर लिया। फ़ोन पर पारस को उसने एक अच्छे वकील और सुरक्षा संबंधित प्रहरियों का प्रबंध करने की हिदायत भी दे दी, जो इन्हें एअरपोर्ट पर उतरते ही मिल जाएँ ताकि बिना समय गँवाए रास्ते में ही बात की जा सके। माया ने सोचा कि अच्छा हुआ कि बच्चे यहाँ नहीं हैं। वे उसे कभी ये जोखिम नहीं उठाने देते। पारस को भी रहस्यपूर्ण कारनामों में दिलचस्पी है इसीलिए उसने अधिक चूँ-चपड़ नहीं की। पटना के नाम पर वह हिचका अवश्य था किंतु जब माया ने कहा, 'मैं पटना जा ही रहीं हूँ, कोई प्रश्न नहीं पूछना।' उसके पास कोई चारा नहीं था सिवाय माया के कथानुसार प्रबंध करने के। वह बोला, 'ठीक है मैं भी पटना आ रहा हूँ और तुम भी अब कोई प्रश्न नहीं पूछना।' माया चिंतित थी कि दो महिलाएँ गुंडों के गिरोह का सामना कैसे कर पाएँगी। किंतु पारस के आ मिलने से वह आश्वस्त हो गई। बचपन में इस जोड़ी ने परिवार की नाक में दम कर रखा था। एक बार दोनों ने आटा फ़र्श पर बिछा कर पाँव के निशान से चोर पकड़ के माँ के सम्मुख खड़ा कर दिया था। हाँ, यह अलग बात थी कि माँ को पता था कि चोर घर का नौकर ही था, जो रात को छिप-छिप कर मिठाई खाता था और शक इन दोनों पर किया जाता था। 'शर्लौक होम्स', 'मर्डर शी रोट' और 'कोलंबा' जैसे रहस्यपूर्ण टी.वी. धारावाहिकों की दीवानी माया को जीवन में पहली बार जोखिम उठाने का मौका मिला है, जिसे वह आसानी से नहीं गँवाने वाली। कहाँ वह मृत्यु से उबर नहीं पा रही थी और कहाँ अब उसे कुछ याद न था सिवाय इसके कि नारायण को कैसे बचाया जा सकता है। पटना और पटना के गुंडों से निडर वह सुबह की फ़्लाइट का इंतज़ार कर रही है, ममता से अधिक बेचैनी उसे है। सख्त पहरे में वह नारायण को दिल्ली ले जाएगी और जब वह ठीक हो जाएगा तो पारस की फैक्टरी में ही कोई काम पर लग जाएगा। कहाँ ममता आत्महत्या करने की सोच रही थी और कहाँ अब उसे विश्वास हो चला था कि नारायण की बाल मज़दूरी के दिन अब पूरे हो गए थे। कर्मठ ममता को काम की भला क्या कमी। वैसे भी जब तक माया जीवित है, तब तक तो ममता उसके साथ रहेगी। तीन दिन में मृत्यु वाला सपना इतना सजीव था कि माया अपनी मृत्यु के लिए पूरी तरह तैयार थी। किंतु इस वास्तविक घटना ने उसे पूरी तरह जिला दिया था। वह कितनी भाग्यशाली है कि जीवन के उद्देश्य के साथ-साथ, उसे दिशा भी मिल गई। उसके शरीर का रोम-रोम स्पंदित है और अंग प्रत्यंग फड़क रहा है। उसे लगा कि इतनी ज़िंदा तो वह जीवन में पहले कभी नहीं रही।

No comments:

Post a Comment