19 January, 2014

शावर का शोर

बहुत देर से रेलवे रिज़र्वेशन की लम्बी लाइन में खड़े रहने के बाद अब वह खिड़की के काफी क़रीब पहंुच गया था। उसके आगे सिर्फ चार पाँच लोग ही रह गये थे। हब्स का माहौल था और वह पसीने से तरबतर था। उसने बेख्याली में अपने दोनों हाथ सर पर फेरे तो वह फिसल कर उसकी गुद्दी पर जा टिके तब उसे हज़ारवीं बार ख़्याल आया कि अब वह फारिग़ उल बाल हो चुका है। उसने आदत के मुताबिक अपनी गुद्दी सहलाई फिर रिज़र्वेशन हाल का जायज़ा लेने लगा जो भीड़ से ठसाठस भरा हुआ था। बरसात की गर्मी ने हर किसी की दुर्गत बना दी थी। लोग पसीने से तरबतर हो रहे थे। ज़रा-ज़रा सी बात पर एक दूसरे से उलझ पड़ने का सिलसिला भी जारी था। वह घूम कर अपनी खिड़की की तरफ देखने लगा। जहाँ उसके आगे अब केवल दो लोग बाकी बचे थे। ऐसा नहीं था कि वह हमेशा रिज़र्वेशन कराने के लिए खुद आता रहा हो। यह काम तो उसके शागिर्द ही अंजाम दिया करते थे। लेकिन इस बार वह बड़ा सावधान था इस लिए उसे खुद लाइन में लगना पड़ा था।
उसकी बगल वाली खिड़की पर औरतों की कतार थी जिन में बूढ़े और विकलांग लोग भी शामिल थे। उसने महसूस किया कि लाइन में लगे हुए बूढ़े अपने आगे खड़ी हुई औरतों से कुछ ज़्यादा ही चिपक कर खड़े हैं और उनके चेहरे पर फैली हुई मासूमियत के साथ लुत्फ अंदोज़ होने का एहसास भी नुमाया है।
काउंटर क्लर्क के टोकने पर वह चैंका और फिर उसने अपना रिज़र्वेशन फार्म आगे बढ़ाया। कुछ क्षण के बाद क्लर्क ने उसे वह टिकट थमाया जिस पर उसके मन माफिक जाने की तारीख लिखी हुई थी।
रिज़र्वेशन हाल से निकलते ही उसने मुसर्रत को फोन किया।
‘‘कैसी हो?’’
‘‘बिल्कुल ठीक हूँ।’’
‘‘रिज़र्वेशन हो गया, मैं वहाँ सेमिनार से चैबीस घण्टे पहले पहुंच जाऊँगा।’’
‘‘क्यों चैबीस घण्टे पहले क्यों?’’
‘‘देखो मुसर्रत मैं ज़िंदगी की भाग-दौड़ से बहुत थक गया हूँ। मेरी आँखों पर रखी हुई तुम्हारी हथेलियां मुझे तमाम उलझनों से दूर कर देती हैं। मैंने सेमिनार के आयोजकों को अपने और तुम्हारे पहुचने की तारीख नहीं बताई। तुम आ रही हो ना?’’
‘‘मैं कोशिश करूंगी।’’ मुसर्रत सोचते हुए बोली।
‘‘कोशिश नहीं पहुंच ही जाना।’’ उसके ज़िद में बेताबी थी।
फिर उसने फोन काट दिया।
स्कूटर स्टार्ट करते वक्त उसे ख्याल आया कि आज शाम को उसके घर पर उसके शागिर्दों की एक मीटिंग भी है। हर महीने वाली मीटिंग से सम्बन्धित उसे कुछ निर्देश देने थे।
मीटिंग का ध्यान आते ही उसे कुछ उलझन हुई। मीटिंग या व्यक्तिगत बैठकों के ख्याल से बेचैनी का यह सिलसिला कोई दो वर्ष पहले शुरू हुआ था। उसे याद आया कि उस दिन वह अपने शार्गिदों के बीच बैठा अपनी तारीफ के पुल बांध था।
‘‘मैं जब मुम्बई पहुचा तो सेमिनार के आयोजक मुझे देखकर बाग बाग हो गये। दरअस्ल उन्हें अपने सेमिनार की कामयाबी का यकीन हो गया था कि मैं अब सेमिनार की कामयाबी की ज़मानत बन गया हूँ। आयोजकों ने मेरे ठहरने की इंतेज़ाम एक फाइव स्टार होटल में कर रखा था। स्टेशन से होटल तक उन्हीं लोगों ने अपनी कार से पहुचाया।’’
‘‘झूट बोलते हो। ऐसा कुछ नहीं हुआ। तुम ने खुद टैक्सी ली थी और अपने आप होटल तक गये थे। तुम्हें तो स्टेशन पर कोई लेने तक नहीं आया था। अब यह झूटी बातें क्यों।’’ अचानक एक आवाज़ उसके कानों में आई और वह उछल पड़ा।
उसने अपने शागिर्दाें पर नज़र डाली। वह सब उसकी आवाज पर कान लगाये हुए थे।
‘‘क्या किसी न कुछ कहा ---?’’
‘‘नहीं तो।’’ एक शागिर्द बोला।
‘‘तुम्हें यकीन है न कि कोई कुछ नहीं बोला।’’
‘‘जी हाँ सर। कोई कुछ नहीं बोला।’’ सारे शगिर्द उसे अचम्भे से देख रहे थे।
‘‘क्या तुम लोगों ने कोई आवाज़ भी नहीं सुनी?’’
‘‘बिल्कुल नहीं।’’ कई शागिर्द एक साथ बोले।
उसे वक्ती इत्मीनान तो हो गया मगर आवाज़ों का यह सिलसिला चल निकला। वह जब भी झूट बोलता और ज्यादा तर झूट ही बोलता तो इस तरह की आवाज़ें उसे कचोके लगातीं और वह घंटों परेशान रहता। कई बार उसके माथे पर पसीने की बूंदे छलक आतीं और शर्म से उसे पोछने लगता। उस दिन तो हद ही हो गई। वह अपने दोस्त हाशमी जो बला की ज़हानत, शराफत, एख़लाक, नेकी और अपने हास्य-व्यंग के लिये मशहूर था, के घर बैठा लम्बी लम्बी छोड़ रहा था।
‘‘यार हाशमी, मैं अब इन सेमिनारों से आजिज़ आ गया हूँ। कई सेमिनार बाहर के मुलकों में होने वाले हैं। खुद अपने यहां हिन्दुस्तान में भी होने वाले दर्जनों सेमिनार के बुलावे आ चुके हैं। कहाँ जाऊं कहाँ न जाऊं। हर तरफ से खत और फोन पर इन्वीटेशन का सिलसिला जारी है। बाहरी मुलकों में तो जाना ज़रूरी है। हां यहां के कुछ सेमिनारों से छुटकरा पाने की कोशिश करूंगा।’’ इतना कह कर वह खामोश हो गया। उसकी नजरें हाशमी के चमचों के चेहरों का जायज़ा लेने लगीं। जहां बनावटी तारीफ साफ नज़र आ रही थी। अचानक उसे फिर वही जीनी पहचानी आवाज़ सुनाई दी।
‘‘बेहया कहीं के। तुझे सफेद झूट बोलते हुए शर्म नहीं आती। तुझे तो सेमिनारों के लिये किसी ने दावत भी नहीं दी थी। तू ने तो खुद ही खुशामद भरे खत लिख कर अपने लिये दावतनामें मंगाये थे।’’ वह आवाज़ सुनते ही खौफज़दा हो गया। उसका दिल बैठा जा रहा था कि कहीं किसी ने इतनी साफ आवाज़ न सुन ली हो।
फिर इन आवाज़ों का सिलसिला इतना बढ़ा कि उसे अपनी जिन्दगी दूभर मालूम होने लगी।
अचानक एक दिन उसने तय किया कि वह किसी मनोवैज्ञानिक से इन आवाजों के सम्बन्ध में बात करेगा।
फिर उसकी निगाहों के सामने उसके मनोवैज्ञानिक दोस्त अबुलकैस का चेहरा घूम गया।
अबुलकैस--बेहद पढ़ा लिखा आदमी। उसकी आंखों से बुद्धिमानी की चिंगारियां झलकती थीं। कई ज़बानों पर उसे महारत थी। आम तौर पर उसके तमाम दोस्त जब किसी ज़हनी परेशानी में घिरते तो उसी के पास जाते और वह उनका सहारा बन जाता।
फिर जब वह अबुलकैस के घर पहुचा तो इत्तेफाक से वह खाली मिला।
‘‘आओ आओ मैं खुद तुम्हारे यहां आने वाला था।’’
‘‘खैरियत?’’
‘‘बस तुम्हें मुबारकबाद देने के लिए।’’
‘‘किस बात की?’’
‘‘तुम प्रोफेसर हो गये हो न?’’
‘‘अच्छा प्रोफेसर शिप! अरे यह तो मेरे लिए बहुत छोटी सी चीज़ है, इसमें धरा ही क्या है।’’ वह मुसकुराता हुआ बोला।
अबुलकैस उसे अर्थपूर्ण ढंग से देखने लगा। उसके चेहरे पर एक काटदार मुसकुराहट फैल गई, जिसमें मज़ाक उड़ाने और ज़लील करने की चाहत थी।
वह फिर बोला ‘‘मेरे एक दोस्त काज़ी कमाल इस इन्टरव्यू में एक्सपर्ट थे। मेरे इन्टरव्यू के बीच वह वाइसचान्सलर साहब से कहने लगे कि अरे साहब इन से ज़्यादा जेनविन उम्मीदवार तो पूरे मुल्क में कोई दूसरा नहीं है। होना तो यह चाहिये था कि यह मुझे प्रोफेसर बनाते, मुझे इनको प्रोफेसर बनाना पड़ रहा है।’’ उसकी बात सुन कर अबुलकैस के चेहरे पर धारदार मुस्कुराहट फैल गई, लेकिन वह कुछ बोला नहीं कि खामोशी उसकी मजबूरी थी।
‘‘वाकई तुम घटिया और तीसरे दर्जे के आदमी हो। यहाँ भी आकर झूट बोल रहे हो। अबुलकैस तुमको बहुत अच्छी तरह जानता है। तुम्हारे झूट पर उसकी नज़र है।’’ आवाज़ ने उसे फिर कचोका लगाया। वह सर से पैर तक पसीने में डूब गया।
अबुलकैस उसकी बदलती हुई हालत महसूस कर रहा था।
‘‘क्या बात है तुम्हारी तबीयत खराब मालूम हो रही है।’’
‘‘नहीं कोई बात नहीं।’’ वह संभलता हुआ बोला।
‘‘अच्छा यह बताओ कैसे आना हुआ?’’ अबुलकैस ने सवाल किया।
‘‘ऐसा कुछ खास नहीं। बस आजकल मैं एक अजीब सी परेशानी में फंस गया हूँ।’’
‘‘कैसी परेशानी?’’
थोड़ी देर तक वह उसे खामोशी से देखता रहा फिर वक्त बेवक्त आने वाली आवाज़ों का ज़िक्र किया।
‘‘यह आवाज़ें कब आती हैं?’’
‘‘ऐसी आवाज़ें किसी वक्त भी आने लगती हैं। अजीब गुडमुड आवाज़ें लगता है जैसे कोई कुछ कहना चाह रहा हो।’’
‘‘क्या?’’
‘‘यही तो समझ में नहीं आता कि कोई क्या कह रहा है। बस कुछ परेशान करने वाली आवाज़ें कानों में गूंज जाती हैं।’’ वह यहाँ भी बड़ी सफाई से झूट बोला।
फिर अबुल कैस ने उससे और कई सवाल किये और वह संभल-संभल कर जवाब देता रहा।
‘‘प्यारे तुम्हें सिर्फ खफकान हो गया है और कोई बात नही है। मैं तुम्हें दवा देता हूँ तुम ठीक हो जाओगे।
दवा हफतों क्या महीनों चलती रही लेकिन उसे कोई फायदा नहीं हुआ। आवाज़ें उसी तरह आती रहीं बल्कि उनमें दिन-ब-दिन तेजी से इज़ाफा होता रहा। फिर वह एक तांत्रिक के चक्कर में पड़ गया। बहुत पैसे खर्च हुए लेकिन नतीजा कुछ न निकला।
परेशानी के इसी दौर में एक दूसरी मुसीबत भी उसके गले पड़ गई। इन आवाज़ों के साथ-साथ दूसरी बहुत सी आवाज़ें भी सुर से सुर मिलाने लगीं। यह आवाज़ें उसके जानने वालों की थीं। मुश्किल यह थी कि वह आवाज़ें किसी को सुनाई नहीं पड़ती थीं लेकिन यह आवाज़ें तो हर एक सुन रहा था। लेकिन उसे इन जानने वालों की कोई परवाह न थी। वह अकसर अपनी बीवी से कहता कि यह सब लोग उससे जलते हैं। वह शोहरत के आसमान पर है। अदब की दुनिया में सिर्फ उसका ही डंका बज रहा है। यह लोग मेरा मुकाबला नहीं कर सकते तो मेरे बारे में घटिया बातें करके अपने दिल की भड़ास निकाल लेते हैं।
आखिर एक सुबह उसने तय किया कि वह इन आवाज़ों से कभी हार नहीं मानेगा। बल्कि वह ऐसे काम करता जायेगा जो इन आवाज़ों को जन्म देते हैं। चन्द महीने बाद उसने महसूस किया कि जैसे यह आवाज़ें धीरे-धीरे कम होती जा रही हैं। शायद यह आवाज़ें पुराने मूल्यों की तरह ज़ंग दार हो चुकी थीं।
अचानक पीछे से किसी कार के तेज़ हार्न ने उसे उसकी महवियत से बाहर खींच लिया।
घर पहुंचा तो बीवी खाने पर उसका इंतज़ार कर रही थी।
‘‘रिज़र्वेशन हो गया?’’ बीवी उसकी तरफ पानी बढ़ाती हुई बोली।
‘‘हाँ हो गया।’’
‘‘कब जा रहे हैं?’’
‘‘अगले हफ्ते।’’
‘‘सेमिनार में मुसर्रत भी आयेगी क्या?’’
‘‘क्यों?’’ उसका लहजा तीखा था।
‘‘कुछ नहीं बस यूँही पूछ लिया।’’
‘‘तुमने यूँही नहीं पूछा। मैं तुमको खूब समझता हूँ।’’ वह बीवी की आँखों में आँखें डालकर बोला।
‘‘तुम अगर समझते हो तो समझा करो।’’ बीवी का लहजा भी तीखा था।
‘‘घटियापन पर उतर आईं ना।’’ वह बुरा सा मुंह बनाकर बोला।
‘‘मेरा घटियापन? क्या तुमने कभी अपने बेहूदा रवैये पर भी गौर किया है। तुम क्या जानो कि अकसर रात जब तुम वापस घर लौट कर आये हो तो तुम्हारे कपड़े से आती हुई तरह-तरह की महक ने मुझे कितनी चुभन दी है। हाई ब्लड प्रेशर, डायबटीज़ और दूसरी बीमारियां उसी की देन हैं। अब तुम मेरे घटियापन की बातें कर रहे हो।’’ वह जलबला कर बोली।
वह खाना खाते-खाते अचानक उठ गया।
बाथरूम के पास से गुज़रते हुए उसने शावर की तेज़ आवाज़ सुनी। शायद कोई नहा रहा था। शावर की तेज़ आवाज़ सुनते ही उसे हमेशा शदीद उलझन महसूस होती। इस वक़्त तो उसका मूंड यूँ भी खराब था। शावर की आवाज़ ने रहा सहा मूंड भी चैपट कर दिया। उसने बाथरूम का दरवाज़ा भड़भड़ाया तो तो पता चला कि उसकी बेटी नहा रही है। उसने बेटी को डांट कर शावर बन्द करने को कहा और आगे बढ़ गया।
कुछ देर बाद वह अपनी स्टडी में था।
उस दिन स्टेशन पर उसके कई शगिर्द उसे सी-आफ करने आये थे।
‘‘मैं चार दिनों़ बाद वापस आ जाऊँगा। तुम लोग मेरे लौटने पर ज़रूर आना। मैं तुम्हें इस सेमिनार के बारे में बताऊंगा।’’ शागिर्द उसे बगौर देख रहे थे।
‘‘ठीक है सर हम इकट्ठा हो जाएंगे।’’ एक शागिर्द बोला।
‘‘सर क्या मुसर्रत मैडम भी सेमिनार में आएंगी?’’ एक शागिर्द ने चुटकी लेने की कोशिश की। लेकिन वह डांट खा गया।
‘‘तुम्हें इससे क्या लेना देना है? तुम ने किसी और के बारे में क्यों नहीं पूछा?’’ उसका लहजा काफी सख़्त था।
शागिर्द कुछ बोला नहीं चुपचाप उस्ताद को देखता रहा फिर उसने एक शरारतपूर्ण मुस्कुराहट के साथ अपनी निगाहें प्लेटफार्म की तरफ फेर लीं।
ट्रेन के चलते ही वह लपक कर डब्बे में सवार हो गया।
अब कम्पार्टमेन्ट के अन्दर की गहमा-गहमी खत्म हो चुकी थीं, कुछ लोग सो गये थे, कुछ अपनी बर्थ पर अपने बिस्तर फैला रहे थे।
उसने लेटते ही अपनी आँखें बन्द कर लीं और सामने मुसर्रत आकर खड़ी हो गई।
मुसर्रत --- उसकी करीबी दोस्त, शायरा, काफी खूबसूरत, हाईचीक बोन और होटों पर दावत देती मुस्कुराहट। मुसर्रत की सेक्स अपील उसे हमेशा अपनी तरफ खींचती और इसी खिंचाव ने दोनों को एक दूसरे को बहुत करीब कर दिया था। इतना करीब कि दोनों एक दूसरे के वुजूद का हिस्सा बन गये थे।
उसने हमेशा कोशिश की थी कि जिस सेमिनार में वह शिरकत करे, मुसर्रत भी उस सेमिनार में पहुंच जाये। मुसर्रत को भी बुलाने के लिये कई बार उसे सेमिनार या कान्फ्रेंस के आयोजकों की खुशामद भी करनी पड़ती। खुद आयोजक भी मुसर्रत को देख कर पिघल जाते। उसे अन्दाज़ा था कि मुसर्रत इन बातों को खूब समझती हैै। शायद इसी लिये वह उसकी दिलदादह भी थी। दूसरी तरफ मुसर्रत भी यह जानती थी कि साहित्यिक दुनिया में कितनी ही अदीबाएं हैं, जो अपनी जगह बनाने के लिये हाथ पैर मार रही हैं और मंजिल है कि उन्हें मिलती ही नहीं।
अचानक उसे मुसर्रत से पिछली मुलाकात याद आई। उसे अपने अन्दर बड़ी तेज़ सनसनाहट महसूस हुई। जैसे तेज़ बहुत तेज़ आंधियां चलने लगी हों या उसके पूरे वुजूद में बहुत से घोड़े एक साथ दौड़ने लगे हों। और फिर जैसे वह शावर के शोर में घिर गया हो।
उसके पूरे जिस्म से पसीना बह निकला।
आखिर ऐसा क्यों हुआ? क्या वह ---?
नहीं वह एक इत्तेफाक़ हो सकता है। हाँ यही होगा। उसने अपने आप को तसल्ली दी।
उसने अपनी आँखें बन्द कर लीं और सोने की कोशिश करने लगा।
कोई 27 घंटे बाद जब गाड़ी अपनी मंजिल पर पहुंची तो वह थक कर चूर हो चुका था।
प्लेटफार्म पर उतरते ही उसे अपने शहर और इस जगह के तापमान का फर्क महसूस होने लगा था। उसने सोचा कि समुद्र के किनारे बसे हुए शहरों का मौसम तो हमेश एक जैसा ही होता है और यह कि इस फर्क को उसके दिल ने हमेशा ही महसूस किया था।
उसने घड़ी देखी मुसर्रत कोई एक घण्टे बाद यहाँ पहुचने वाली थी। वह बेंच पर बैठ कर उसका बेचैनी से इन्तेज़ार करने लगा। ट्रेन आई और अपने साथ मुसर्रत को भी ले आई।
कुछ देर बाद वह और मुसर्रत अपने होटल के कमरे में बैठे एक दूसरे को जज़्बाती निगाहों से देख रहे थे।
‘‘जाओ जाकर फ्रेश होलो। तुम्हारे बाद मैं भी नहाना चाहता हँू।’’ वह मुसर्रत की तरफ से नज़रें हटाकर कमरे का जायज़ा लेता हुआ बोला।
पहली नज़र में कमरा उसे बेहद अच्छा लगा। टेलीफोन, टी0वी0, एयर कण्डीशनर के आलावा दीवारों पर लगी खूबसूरत पेंटिग कमरे की शोभा बढ़ा रही थीं।
वह नहाकर बाथरूम से निकली तो बारिश में नहाए हुए नर्म व नाजुक फूलों से भी ज्यादा तरोताज़ा लग रही थी। अलबत्ता मेकअप के बगैर उसका चेहरा बढ़ती उम्र की चुगली खा रहा था।
वह उसे अर्थपूर्ण अन्दाज में देखता हुआ बाथरूम की तरफ चल पड़ा।
होटल के डाइनिंग रूम से डिनर लेकर वह अभी अभी अपने कमरे में दाखिल हुए थे।
‘‘मामूली सा आराम इंसान को किस कद्र चाक व चैबन्द बना देता है।’’ वह बिस्तरा पर लेटता हुआ बोला।
‘‘क्या इरादा है चलिये कहीं घूम आएं। मैंने यह शहर नहीं देखा।’’
‘‘मैं नहीं चाहता कि इस वक्त मेरे और तुम्हारे बीच शहर का कोई हिस्सा आ मौजूद हो। वैसे भी अगर मुझे और तुम्हें किसी ने यहाँ एक साथ देख लिया तो बात के फैलने में देर नहीं लगेगी। कल जब हम लोग आयोजकों के मेहमान हो जायेंगे तो हम पूरी तरह से आजाद होंगे। फिर जी भरके शहर देख लेना। अभी तो यहां कई दिन रहना है।’’
‘‘हां तुम ठीक कह रहे हो।’’
चन्द लमहों के लिये खामोशी छा गई।
फिर दोनों ने अपने कपड़े तब्दील किये और लेट गये।
उसने आनी बांह मुसर्रत के तकिये पर फैलाई तो उसने अपना सर उसकी बांह पर रख लिया।
वे खामोश थे।
कुछ पल के बाद एक हाथ बढ़ा और रोशनी बुझ गई। अभी रोशनी गुल हुए पाँच छः मिनट ही हुए होंगे कि मुसर्रत उठ बैठी उसने नाइट लैम्प का स्विच आन किया। उसके चेहरे पर झुंझलाहट दिखाई पड़ रही थी। वह उठी और बाथरूम में दाखिल हो गई। वापस आई तो उससे मुखतिब होकर बोली। ‘‘तुम पर अब उम्र का असर हो चला है। मुझे याद है मेरे साथ पिछली बार भी ऐसा ही हुआ था।’’ वह चुपचाप उसे देखता रहा। खामोशी के साथ शर्मिन्दगी ने भी कंुडली मार रखी थी।
अगली सुबह दोनों बैठे चाय की चुस्कियां ले रहे थे, मगर बेज़ारी दोनों के बीच बिराजमान थी।
फिर यह खामोशी उसी ने तोड़ी ‘‘तुम्हारे शौहर कैसे हैं?’’उसके मुंह से अपने आप निकल गया।
मुसर्रत ने उसे अजीब नज़रों से देखा फिर बोली ‘‘ठीक हैं। तुम से तो बेहतर ही हैं।’’ वह मुस्कुराई।
वह खिसिया गया।
कुछ लम्हों के लिए फिर सन्नाटा छा गया। उसकी नज़रें लगातार मुसर्रत के चेहरे के गिर्द घूम रही थीं। माहौल खासा बोझिल हो गया था।
‘‘तुम्हारे बेटे और नन्हें मुन्ने पोते साहब तो ठीक हैं न?’’ उसने बात बदलते हुए एक बार फिर खामोशी तोड़ने की कोशिश की।
‘‘हाँ ठीक हैं। नन्हां मुन्ना टीपू तो खूब शरारते करने लगा है।’’ वह अपने आप को खींच तान का नार्मल करते हुए बोली।
‘‘मुसर्रत देर हो रही है, जल्दी से तैयार हो जाओ। इसी वक्त यह होटल छोड़ना है। सेमिनार के आयोजकों को इन्तेज़ार होगा। उन्हें यह खबर नहीं है कि मैं और तुम किस ट्रेन से आ रहे हैं।’’
‘‘अच्छा ठीक है मैं तैयार होती हूँ।’’ वह खड़ी होती हुई बोली। वह बाथरूम के दरवाज़े पर अचानक रूकी और मुड़ कर बोली। ‘‘एक बात बताओ। वह जो तुम्होरे कानों में परेशान करने वाली आवाज़ें आती थीं, उनका क्या हुआ?’’
‘‘वह आवाज़ें . . . वह आवाज़ें अब नहीं आतीं। वह मुझ से हार मान कर खत्म हो चुकी हैं। देखो ना मैं पूरे वुजूद के साथ तुम्हारे सामने भरपूर व हट्टा कट्टा खड़ा हूँ।’’ उसकी आवाज़ में बेचैनी थी।
‘‘ढोंगी तुम्हारे अन्दर सड़ान्द पैदा हो चुकी है। बू से नाक फटी जाती है। यह तुम किसे धोका दे रहे हो?’’ अजनबी अजनबी सी एक आवाज़ ने एक बार फिर उसे चूर चूर कर दिया और उसके चेहरे का रंग पीला हो गया।
मसर्रत उसे हक्का बक्का देखती रही। अचानक वह मुड़कर बाथरूम में दाखिल हो गई।
फिर माहौल शावर के शोर से भर गया।

No comments:

Post a Comment