19 January, 2014

दीपक शर्मा की कहानी— नौ तेरह बाईस

'मैं निझावन बोल रहा हूँ, सर', मेरे मोबाइल के दूसरी तरफ़ मेरे बॉस हैं, मेरे जिले के एस.पी.। अपनी आई.पी.एस. के अन्‍तर्गत। जबकि मेरी प्रदेशीय पुलिस सेवा ने मेरी तैनाती यहाँ के चौक क्षेत्र में सर्कल आफिसर के रूप में कर रखी है। अभी कोई तीन माह पूर्व।

'एनी इमरजेंसी?' राजधानी से बॉस आज सुबह लौटे हैं और इस समय ज़रूर अपनी शृंगार-मेज़ पर अपने प्रसाधन के मध्‍य में हैं।
'येस सर। मेरे सर्कल के नवाब टोला की वारदात है। कल शाम स्‍पोर्टस कॉलेज की कोई लेक्‍चरर आग में झुलस कर मर गयी थी, सर।'
'नवाब टोला कहाँ पड़ेगा?' वे अपनी अनभिज्ञता प्रकट करते हैं। दूसरों को गोल-गोल घुमाकर उन्‍हें फिर नौ-तेरह बाइस बताने में उनका कोई सानी नहीं।
'मेरे थाने की दिशा से वह धक्‍कम-धक्‍के वाले एक चूड़ी बाज़ार का अन्तिम छोर है, सर और आपके बंगले की दिशा से बड़े चौराहे की एक तिरछी काट।' हमारे जिले में बड़ा चौराहा एक ही है। जहाँ पहुँचकर तीन सीधी और दो घुमावदार सड़कें अपने फलक उसके हवाले कर देती हैं।
'रिहायशी क्षेत्र है? मुस्लिम-बाहुल्‍य?'
'येस सर। चौदह मकान हिन्‍दुओं के हैं और पच्‍चीस मुस्लिमों के।'
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'मरने वाली मुस्लिम थी?'
'नहीं सर। वह हिन्‍दू थी। आशा क्‍वात्रा। उम्र २६ साल।'
'हैंग लूज़। परवाह न करो।' अँग्रेज़ी भाषा और अमरीकन स्‍लैंग का बॉस को चस्‍का है, तिस पर उनकी ख़ूबी यह है, वे स्‍लैंग उच्‍चरित करते ही उसकी हिन्‍दी भी साथ ही जोड़ देते हैं। मुझ जैसे 'देसी' जन की सुविधा के लिए।

'येस सर,' मेरी आवाज़ में सलामी है। अपनी रणनीति के निश्‍चय-अनिश्‍चय के बीच मैं व्‍यवहार-कुशलता की ओट में जा खड़ा होता हूँ, 'लेकिन सर, मृतका के पिता मेरे दफ़्तर में बैठे हैं और एक एफ.आई.आर. दर्ज करवाना चाहते हैं। उनके दु:साहस पर मैं स्‍वयं बहुत हैरान हूँ, सर। उनके आरोप की असम्‍भावना ...'
'हैंग आउट। भेद खोल दो', वे धैर्य खो रहे हैं।
'वे आपको अपनी बेटी की मृत्‍यु का कारण ठहरा रहे हैं, सर ..'
'होल्‍ड एवरीथिंग। प्रतीक्षा करो। मैं पहुँच रहा हूँ ...'
'येस, सर ...'

विभाग में बॉस की अच्‍छी धाक है। बावजूद इसके कि वे सप्‍ताह में तीन दिन राजधानी में बिताते हैं और बाक़ी चार दिन की लगभग प्रत्‍येक सन्‍ध्‍या देर रात की पार्टीबाज़ी में। उनके ससुर प्रदेश पुलिस के एक महकमे में डायरेक्‍टर जनरल हैं और सभी जानते हैं यह सीढ़ी उन्‍हें बहुत ऊपर ले जाने वाली है। बॉस को मैं नहीं बताता मृतका के पिता अपने रूसी वुल्‍फ़हाउंड के लापता होने की एफ.आई.आर. में भी बॉस को नामजद करना चाहते हैं : 'बुर्के वाली जिस टहलनी की आपको तलाश है वह और कोई नहीं, आपका यह एस.पी. है क्‍योंकि हमारे उस बौलज़ौए से भी उस दुष्‍ट ने हेल-मेल कर रखा था।'
असल में मृतका के पड़ोसियों द्वारा वारदात की सूचना मिलने पर जब मैं अपने दल के साथ वहाँ पहुँचा था तो उन्‍हीं में से कुछ लोग बारम्‍बार एक ही बात दोहराए जा रहे थे, दोपहर में उन्‍होंने मृतका के कुत्‍ते को बुर्के वाली उसी टहलिन के साथ मकान से बाहर निकलते हुए देखा था जिसे वे अकसर उस कुत्‍ते के साथ आते-जाते हुए देखा करते। वह तो जब शाम होते-होते मृतका के मकान से उठ रहे धुएँ का आयाम अप्रत्‍याशित रूप ग्रहण करने लगा था और मकान के दरवाज़े की घंटी बजाने पर, जवाब में, दूसरे दिनों की तरह न तो उन्‍हें कुत्‍ते की भौंक सुनाई दी थी और न ही अन्‍दर से मृतका की कोई आहट, तभी उन्‍हें ध्‍यान आया रहा, बुर्के वाली टहलिन मृतका के कुत्‍ते के साथ नवाब टोले पर लौटी ही न थी। तिस पर जब दरवाज़ा देर तक घंटी बजाने पर भी खोला नहीं गया तो उन्‍हें फायर ब्रिगेड और पुलिस बुलाने की ज़रूरत महसूस हुई रही। और जब तक हम पहुँचे, लड़की मर चुकी थी। अस्‍पताल ले जाए जाने पर डॉक्‍टर बोले थे : 'ब्रौट डेड।'
अपने बाथरूम के एकान्‍त से मैं अपनी मेज़ पर लौट आता हूँ।
एफ.आई.आर. का रजिस्‍टर खोलता हूँ, उसकी पेंसिल अपने हाथ में लेता हूँ और अपने सामने वाली कुर्सी पर बैठे हुए मृतका के पिता, चन्‍द्रमोहन क्‍वात्रा से पूछता हूँ, 'आपकी बेटी हमारे एस.पी. साहब को कब से जानती थी?'
बॉस के आने तक मुझे उन्‍हें बातों में उलझाये रखना है। बिना कुछ दर्ज किये।
'मेरे लिए यह अत्‍यन्‍त लज्‍जा का विषय है और मैंने उससे नाता भी तोड़ रखा था किन्‍तु उसकी मृत्‍यु ने मुझे फिर उससे ला जोड़ा है .. '
तना हुआ उनका चेहरा एकदम ढीला पड़ जाता है। उठी हुई ठुड्डी नीचे गरदन पर गिर जाती है और वे फूट-फूट कर रोने लगते हैं : बीच-बीच में अपने विलाप-भरे वाक्‍य जोड़ते हुए : 'वह सब से ज्‍़यादा मेधावी थी.. ' सबसे ज्‍़यादा ख़ूबसूरत... 'कुल जमा तेइस वर्ष की आयु में उसने इतने बड़े स्‍पोर्टस कॉलेज में अध्‍यापिकी पा ली थी... वार्डनशिप पा ली थी ... '
'वार्डनशिप?' मैं चौंकता हूँ, 'लेकिन आपकी बेटी तो हमारे चौक क्षेत्र के इस नवाब टोले में पिछले साल ही से एक किराये के मकान में रह रही थी...' स्‍पोर्टस कॉलेज दूसरे थाना क्षेत्र में पड़ता है।

'हमारा दुर्भाग्‍य। जो वह वार्डनशिप उसके हाथ से निकल गयी ...' उनका कोप उनके चेहरे पर लौट रहा है, शोकाकुलता को मिटाता हुआ ...
'कैसे?' मैं पूछता हूँ। 'डेढ़ वर्ष पहले स्‍पोर्टस कॉलेज के उस गर्ल्‍ज हॉस्‍टल में एक छात्रा की आकस्मिक प्रसूति के कारण हुई मृत्‍यु पर भयंकर बखेड़ा खड़ा हो गया था। आशा की जवाबदेही शंका के घेरे में आ गयी थी। तिस पर पुलिस के हस्‍तक्षेप ने मामला और पेचीदा बना दिया था। जभी तो इस दुष्‍ट एस.पी. से मेरी अभागी बेटी की भेंट हुई थी ..'
'आपके परिवार में और कौन-कौन है?'
'मेरी पत्‍नी है। दो बेटियाँ हैं।'
'वे क्‍या करती हैं?' 'मेरी पत्‍नी एक स्‍कूल में गेम्‍स टीचर है। बड़ी बेटी लखनऊ के एक बी.पी.एस. सेंट्रल स्‍कूल में स्‍पोर्टस टीचर। आशा हमारी मंझली थी', एक पल के लिए उनका गला भर आया है किन्‍तु अगले ही पल वे अपने को सँभाल जाते हैं।
'एक ही परिवार में इतने स्‍पोर्टस परसनज़!' अपना परिचय देते समय वे मुझे बता चुके हैं कि वे स्‍वयं उधर अपने कस्‍बापुर के फि़जि़कल ट्रेनिंग कॉलेज में अध्‍यापक हैं,
'एक ही परिवार में इतने अध्‍यापक!'

प्रभावित होने का भाव मैं अपने चेहरे पर ले आता हूँ। शायद मैं उनसे प्रभावित हो भी रहा हूँ। उनकी आयु पचपन और अट्ठावन के बीच कुछ भी हो सकती है। किन्‍तु उनकी देह का गठन अभी भी ख़ूब कसरती है, बलिष्‍ठ है। उनके दिखाव-बनाव में कहीं विपुलता नहीं, कहीं अप्राकृतिकता नहीं। आधे से अधिक सफ़ेद हो चुके अपने बालों पर उन्‍होंने किसी खिजाब की परत नहीं डाल रखी। पुरानी काट का वे एक साधारण सफारी सूट पहने हैं। उनके चश्‍मे का फ्रेम भी पुराना है। किन्‍तु प्रियदर्शी उनके चेहरे पर एक उज्‍ज्‍वलता है, एक गरिमा है। यह अनुमान लगाना कठिन नहीं, उनका अनुशासन स्‍वगृहीत एवं स्‍वत: पूर्ण है। जभी वे दूसरों से भी उसकी अपेक्षा रखते हैं।
'लेकिन सभी ठगे गये। दो बार ठगे गये। पहली बार जब उस दुष्‍ट के विहार को हम आँखे मूँद कर प्रेम समझ बैठे और हमारे आँखे तब खुलीं जब हमने उसकी विवाह की फोटो समाचार पत्रों में छपे देखे। और दूसरी बार जब आशा के डिप्रेशन के उपचार के अन्‍तर्गत उसके डॉक्‍टर ने हमें बेगाने इस शहर में उसकी स्‍पोर्टस कॉलेज वाली नौकरी नहीं छुड़वाने दी। यह तर्क देकर कि आशा को यह नौकरी व्‍यस्‍त रखेगी और रही उस दुष्‍ट की बात तो वह अपने ससुर के भय से स्‍वयं ही आशा से दूरी बनाये रखेगा। और जब तक हमने जाना दुष्‍ट ने आशा पर अपने पूर्वाधिकार का लाभ उठा कर उसे पुन: वशीभूत कर लिया है, मूर्खा औचित्‍य-अनौचित्‍य की सीमा लाँघ चुकी थी ...'
'और आपने उन्‍हें अपने स्‍नेह से वंचित कर दिया? नवाब टोला के उनके पड़ोसी बता रहे थे वे उन्‍हें हमेशा अकेली ही दिखाई दिया करती थी। बुर्केवाली उस टहलिन के अतिरिक्‍त उनके मकान में किसी का भी आवागमन नहीं था...'
'हम उससे रूठे रहे, अड़े रहे कि हमें मनाना चाहती है तो उस दुष्‍ट को छोड़ आओ। फिर उसकी रखवाली के लिए बौरज़ो तो रखा ही था ...'
'उनके पड़ोसी बता रहे थे वह कुत्‍ता कम और भेडि़या ज्‍़यादा मालूम देता था ...'
'असली नसल का बौरज़ो था। मेरी सास उसकी तीनों पीढ़ी के सायर और डैम ब्रीडरर्ज़ को जानती थीं। संयोगवश यह बौरज़ो जभी पैदा हुआ था जिन दिनों आशा अपने डिप्रेशन के उपचार हेतु हमारे पास कस्‍बापुर में थी और घर ही पर रहती थी। ऐसे में नन्‍हें बौरज़ो की देखभाल उसी के जिम्‍मे ज्‍़यादा रही और बौरज़ो भी उसी के संकेत पर सर्वाधिक फुर्ती और उछाल ग्रहण करता था। फिर जब आशा इधर अपनी ड्यूटी पर लौटी तो हमने वह रखवाल दूत उसके संग इधर भेज दिया। और भेद की एक बात बताऊँ?'
'ज़रूर बताइए क्‍योंकि मेरे पास भी आपको बताने के लिए भेद की एक बात है', मैं कहता हूँ।
'तो तुम्‍हीं पहले बताओ .. ' बेटी की मृत्‍यु से उनका ध्‍यान हटाने की ख़ातिर मैं उनकी बात मान लेता हूँ, 'मेरे पिता आज जीवित नहीं किन्‍तु आपको देख कर आज उनकी याद ज़रूर ताज़ा हो गयी। आज यदि वे जीवित होते तो लगभग आप ही के आयु के होते और आप ही जैसे दिखाई देते ..' मेरे भेद में सच घुला है।
'तुम्‍हारे पिता नहीं हैं?' वे मेरी ओर स्‍नेह से देख रहे हैं। 'नहीं हैं। नौ वर्ष पहले मैंने उन्‍हें एक सड़क-दुर्घटना में खो दिया था..' ऐसा लगता है वे मेरी आँखों में अपनी आँखे गड़ा देते हैं,
'मेरे परिवार में यदि एक पुत्र ने जन्‍म लिया होता तो वह ज़रूर तुम्‍हारे जेसा होता ..' उनकी आँखों की ज्‍वाला मेरी आँखों में उतरना चाहती है। किन्‍तु मेरे मन में एक अनजाना सागर उमड़ने लगा है। मैं नहीं जानता, इसे मेरे पिता की स्‍मृतियाँ मेरे समीप लायी हैं या फिर चन्‍द्रमोहन क्‍वात्रा की ये अपेक्षाएँ-आशाएँ जो बॉस के यहाँ पहुँचने पर अभी धराशायी होने जा रही हैं। बाहर बज रहा मोटर-गाड़ी का सायरन उनके आगमन की सूचना है। मुझे उनका बाहर जाकर स्‍वागत करना होगा। अपनी कुर्सी से मैं उठ खड़ा हुआ हूँ।

अपनी गाड़ी से बॉस एक राजा की भाँति उतरते हैं। अपने फुल फार्म में, अपनी वर्दी में, रिवाल्‍वर से लैस, पूर्ण-सज्जित एवं प्रसाधन-युक्‍त। उनसे पहले उनका तीख़ा 'आफ्टर शेव' मेरी दिशा में आ लपकता है। 'कैसे हो निझावन?' वे मुझे मेरे 'सर-नेम' ही से पुकारते हैं। बिना मेरा पहला नाम, अशोक उसमें जोड़े। अपनी सत्‍ता की विज्ञप्ति के निमित्‍त भी और उस संयोग के निमित्‍त भी, जिसके अन्‍तर्गत उनके 'सरनेम' कुलश्रेष्‍ठ, से पहले अशोक ही लगता है।
'सर', मैं अपनी आज्ञाधीनता दर्ज करता हूँ। अपने फौलोअर्ज़ और गनर को बॉस वहीं रूके रहने का संकेत देते हैं और मेरे साथ आगे बढ़ लेते हैं।
'बुढ़ऊ अभी भी अन्‍दर है क्‍या?' वे आवेशित हैं।
'येस, सर .. '
'मैं बता रहा हूँ, निझावन, इन मध्‍यवर्गीय लोगों को आप एक इंच भी देते हैं तो वे एक पूरा मील जीत ले जाना चाहते हैं ..'
'येस, सर .. ' 'कहिए', बॉस मेरे कमरे में दाखि़ल होते हैं। अपने धूप के चश्‍मे को आँखों पर चढ़ाये-चढ़ाये। उन्‍हें सामने पाकर चन्‍द्रमोहन क्‍वात्रा अचरज से मेरा मुँह ताकते हैं,
'तुमने इसे यहाँ बुलाया है?'
'आप भूल रहे हैं इस जिले का मैं कप्‍तान हूँ और मेरा कोई भी सी.ओ. मेरी आज्ञा का उल्‍लंघन नहीं कर सकता। क्‍यों, निझावन?'
'सर', मैं अपना सिर झुकाता हूँ। प्रोटोकॉल के अधीन।
चन्‍द्रमोहन क्‍वात्रा अपनी कुर्सी पर ज्‍यों के त्‍यों बैठे रहते हैं। बॉस के सम्‍मान में खड़े होने की चेष्‍टा तक नहीं करते। बॉस के लिए शायद यह नयी बात नहीं है। वे इसे सहज स्‍वीकार कर रहे हैं, मानो चन्‍द्रमोहन क्‍वात्रा की यह आदत रही हो और बॉस उनकी इस आदत के अभ्‍यस्‍त हों।
'आप सीधे मेरे पास क्‍यों नहीं आये?' स्‍वप्रेरक मुद्रा में बॉस मेरी कुर्सी पर जा बैठे हैं। उनकी तरफ से अपने बैठने का कोई संकेत न पाकर मैं उनकी बगल में खड़ा हूँ।
'तुम्‍हारे पास आता तो क्‍या तुम बौरज़ो मुझे सौंप देते? या फिर स्‍वीकार कर लेते, उसे भी तुमने आशा की तरह ख़त्‍म कर डाला है? चन्‍द्रमोहन क्‍वात्रा तन लिये हैं।
'यू आर इन अ टिज्‍जी है। आप का चित्‍त अव्‍यवस्थित है ...'
'चित्‍त तो तुम्‍हारा भी व्‍यवस्थित नहीं रह पाएगा जब नवाब टोला के रहने वालों के सामने तुम्‍हें बुर्का पहनाकर चलने पर मजबूर किया जाएगा और वे कहेंगे - हाँ, हाँ। यह ठेलमठेल और यह डील-डौल पहचान रहे हैं। यही है वह बुर्के वाली है जिसने आशा क्‍वात्रा के कुत्‍ते को अगवा किया है ... '
'क्‍लैम अप। चुप रहो।' 'मैं चुप नहीं रह सकता। चुप नहीं रहूँगा... '
'आप शायद जानते नहीं नवाब टोला में आधी से ज्‍़यादा स्त्रियाँ बुर्का पहनती हैं और...'
'आप नहीं जानते, यहाँ के सिविल अस्‍पताल में मेरे एक विद्यार्थी की बहन डॉक्‍टर है जो मुझे आप लोगों की पूरी ख़बर भेजा करती थी। उसे मालूम है आशा को तुमसे गर्भ ठहर गया था और वह भ्रूण की डी.एन.ए. रिपोर्ट भी तैयार करवाएगी ..'
'डू अ डबल-टेक। दोबारा विचार कीजिए। आशा नाबालिग नहीं थी। बेपढ़ भी नहीं थी। उसका गर्भ उसके यौनसुख का फल था, किसी बलात्‍कार का नतीजा नहीं। मैं आपको बता रहा हूँ वह मुझ पर बुरी तरह रीझी हुई थी...'

'और बदले में तुमने उसे जला डाला?' चन्‍द्रमोहन क्‍वात्रा के चेहरे की सभी मांसपेशियाँ और हड्डियाँ हरक़त में आ रही हैं। उनकी भौहें उनके माथे की त्‍यौरियाँ छूने लगी हैं। फूले हुए उनके नथने उनकी गालों पर मुड़क लिये हैं। दाँत एक दूसरे पर मसमसा रहे हैं और जबड़ा ऊपर-नीचे चढ़-उतर रहा है। उनकी ठुड्डी और गरदन की झुर्रियाँ और लकीरों को उभारता हुआ।
'शिक़ायत करने की आपकी आदत से मैं अघा गया हूँ', बॉस के स्‍वर में अहंकार भरी खीझ है, 'सच आप मुझसे सुनिये। नवाब टोला वाले गवाह हैं इधर कुछ दिनों से उसके घर से उसके कुत्‍ते की भौंक के साथ कुछ-न-कुछ जलने की बदबू उन्‍हें बराबर आया करती थी। कभी कपड़ा, कभी चमड़ा, कभी प्‍लास्टिक, कभी पॉलीथीन। उनके पूछने पर अव्‍वल तो पहले वह दरवाज़ा खोलती ही नहीं और जब खोलती तो कभी बोलती, मैं फल और सब्जियों के छिलके जला रही हूँ, कभी बोलती मैं अपने पुराने कपड़े जला रही हूँ, कभी बोलती मैं अपने पुराने जूते जला रही हूँ। उसी झख में परसों उसने अपने आपको जला डाला है। यह सीधा-सीधा एक आत्‍महत्‍या का केस है।'
बिना कोई चेतावनी दिये चन्‍द्रमोहन क्‍वात्रा गोली की गति से अपनी कुर्सी से उठते हैं और मेज़ की दूसरी तरफ़ बैठे बॉस पर झपट लेते हैं। अप्रत्‍याशि‍त इस आक्रमण की प्रतिवर्ती क्रिया में बॉस गिर रहे अपने धूप के चश्‍मे को सँभालने की बजाय अपने हाथ अपने रिवाल्‍वर की दिशा में बढ़ा रहे हैं। उन्‍हें रोकने के लिए मैं मेज़ पर रखी अपनी घंटी टनटनाता हूँ। पूरे ज़ोर के साथ। चन्‍द्रमोहन क्‍वात्रा छिटककर बॉस से अलग हो लेते हैं।
'हुजूर!', 'हुजूर!', 'हुजूर!'

थाने में जमा सभी पुलिस-बूट मेरे कमरे में पहुँच रहे हैं। सलामी देकर 'सावधान' की मुद्रा में बॉस से अपने आदेश लेने हेतु। लेकिन बॉस उन्‍हें कोई आदेश नहीं दे रहे। वे चुप हैं। चतुर हैं जो अपनी सार्वजनिक छवि जोखिम में नहीं डाल रहे। मैं उनके समीप पहुँचता हूँ और ज़मीन पर उनका धूप का चश्‍मा उठाकर मेज़ पर टिका देता हूँ। तत्‍काल वे उसे मेज़ से उठाकर अपनी आँखों पर चढ़ा लेते हैं और वापस मेरी कुर्सी पर बैठ जाते हैं।
चन्‍द्रमोहन क्‍वात्रा अब सुरक्षित है।
'आइए', मैं उनकी पीठ घेर लेता हूँ, 'मैं आपके साथ बाहर चलता हूँ...'
'मुझे रास्‍ता मालूम है', वे मेरा हाथ पछाड़ देते हैं, 'मुझे सभी रास्‍ते मालूम हैं और मैं अपनी लड़ाई जारी रखूँगा। और मुझे खु़शी है तुम मेरे पुत्र नहीं हो ...'ऐसी नीच और दोहरी मनफ़ी से कुछ कहना-सुनना प्रतिष्‍ठा के एकदम विरूद्ध है!'
'येस, सर', मेरे कमरे में जमा सभी अधिनस्‍थ कर्मचारी समवेत स्‍वर में अपनी जीहुजूरियाँ प्रदर्शित करते हैं। मेरे अतिरिक्‍त।
मुझे काठ मार गया है।

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