बुनाई फिर गलत हो गई। सुधा ने झट ऊन खींचकर सिलाइयां उधेड़ दीं। अंत-अंत में अकसर बुनाई गलत हो जाती है और स्वेटर पूरा होने में बिना बात ही देर होने लगती है। सुधा अधीर हो रही थी। उसने फिर स्वेटर उठाकर देखा… हलके आसमानी रंग का यह स्वेटर प्रभात पर कितना खिलेगा!
अभी पिछले महीने ही तो वह गई थी पड़ोस की मिसेज गुप्ता के साथ और उनकी देखा-देखी वह भी उठा लाई थी यह ऊन कि प्रभात का स्वेटर बुनेगी वह भी। मिसेज गुप्ता बताती रही थीं और वह उसी अनुसार बुनती गई थी। करीब महीने भर छुप-छुप कर बुना था ये स्वेटर कि प्रभात को सरप्राइज गिफ्रट देगी। विजय की अनूठी अनुभूति से सुधा गदगद थी। कभी पहले नहीं की थी उसने बुनाई। हां, एक बार बड़े भैया के लिए एक मफलर जरूर बुना था, अपने कालेज के समय में। मां कहती थी सिलाई-बुनाई सीखने को, तो वह अकसर बाजार से रेडीमेड खरीदने पर ही जोर देती। अपने हाथ के बने स्वेटर का आनंद तो उसे आज ही समझ आ रहा था। स्वेटर बुनना इतना प्रिय होगा, उसे भान न था। फंदा दर फंदा, लगा जैसे कदम दर कदम अपनी ही जिंदगी बुनती गई हो वह, बचपन के उलटे-सीधे पैरों से बुना बार्डर, फिर परवान चढ़ी बुनाई, जवान हुई, घर घटने लगे- खुलकर हंसना नहीं, संभलकर चलना… धीरे-धीरे मां-बाप ने हर तरह से कुशल बनाया, मजबूत बनाया, भरी-पूरी निखर गई तो किसी के गले में पहनाकर जैसे ब्याह दिया स्वेटर… सच, लगा जैसे अपनी कहानी ही बुनी हो उसने स्वेटर में, उस स्वेटर से एक प्यारी-सी आत्मीयता, अजीब-सा अपनापन होता जा रहा था उसे…। वह अधीर हो रही थी। गला भी पूरा हो गया। उसने सुई से खूब संभाल-संभाल कर सिल भी डाला…फंदा-फंदा खुद से बुना यह स्वेटर जब प्रभात पहनेंगे तो जैसे सुधा का रोम-रोम तृप्त हो उठेगा। वह अभी स्वेटर को उलट-पलट ही रही थी कि बाहर किसी नंगे शरीर ने ‘ऊपर वाले दया कर’ की टेर लगाई। कोई बूढ़ा अपने शरीर को धूप लगा रहा था। कांपता शरीर… सहायता की पुकार… सुधा कुछ आद्र्र हो आई। बूढ़ा उसी के मकान के सामने बैठ गया। सुधा उसे देखने लगी कि अचानक बचपन की कोई ऐसी ही घटना निगाहों में तैर गई…।
तब वह मुश्किल से बारह-तेरह साल की रही होगी। ऐसे ही कोई भिखारी ठंड में ठिठुरता-सा चला जा रहा था। नन्ही सुधा मां को बाहर खींच लाई और लगी जिद करने कि बाबा को स्वेटर दे दो, उसे ठंड लगती है। मां ने उसकी बात अनसुनी कर कुछ पैसे उसके कटोरे में डाल दिए, पर बाबा फिर भी कांपता रहा। सुधा तब यों ही दो तीलियों में बची-खुची ऊन फंसाकर अपने मुताबिक बुनाई कर रही थी। उसने बाबा से कहा, ‘‘बाबा, मां नहीं देती स्वेटर, मेरा स्वेटर बन जाएगा तो मुझसे ले लेना…।’’
…पूरी घटना चलचित्र-सी आंखों में घूम गई। सुधा को हंसी आ गई। क्या होता है बचपन भी! बिना सोचे-समझे कैसे वायदा कर बैठी? सच, कितना अकुलाया था तब सुधा का मन, जब सुध ही नहीं थी उसे दीन-दुनिया की!
‘‘दे रे दाता…दे दे राम…’’
बूढ़े ने फिर टेर लगाई। कितना दर्द था उस बूढ़े की आवाज में! सच है, किसी-किसी आवाज में बड़ी कशिश होती है। एक अजीब-से सम्मोहन से भरी सुधा उसकी टेर सुनने लगी। उसकी वह टेर सुधा को बचपन की अबोध गलियों में खींचे लिए जा रही थी। उछल-कूद से भरे वे दिन- जामुन तोड़कर खाना और फिर नीले दांत देख-देखकर खूब हंसना… बिना बात रूठना, बिना बात रोना… उस रोज रूठी रही थी सुधा, कि मां ने बाबा को स्वेटर क्यों नहीं दिया… लगातार तीलियों में लपेटती रही थी ऊन कि वह बाबा के लिए स्वेटर बुनेगी…।
वह हंस पड़ी, बचपन की वह उम्र और उस उम्र का भोला-सा वादा। पर मन कुछ उद्विग्न हो गया। रोज गली में आते हैं मांगने वाले, कभी अनाथालय के नाम चंदा डकारते हैं तो कभी अकाल पीड़ितों के बहाने राहत सामग्री हड़पते हैं। सब जानती है सुधा, अब कोई बच्ची थोड़े ही रही कि इन बातों से भावुक हो जाए, पर यह सच है कि ये बूढ़ा गा बड़ा अच्छा रहा है, इसकी आवाज में गहराई है, और सुधा उस गहराई से बाहर नहीं निकल पा रही है। सुधा उठी, कमरे में गई, कुछ पैसे निकालकर दे दूं… पर नहीं… पैसे तो मां ने भी दिए थे… वादा तो स्वेटर का था… तो…?
तो क्या, वादा निभाओ… अपने ही मन के सवाल-जवाब से सुधा झुंझला उठी थी। वह अलमारी टटोलने लगी, प्रभात का कोई कपड़ा या स्वेटर…। हालांकि वह जानती है, आज स्वेटर दे भी देगी तो कल कहीं कबाड़ी बाजार में दस-बीस रुपए में बेचकर दारु पी जाएंगे ये और अगले दिन फिर आ पहुंचेंगे नंगे बदन। यही तो तरीका है इनका पेट पालने का… खैर, ये जो मर्जी करें। सुधा ईमानदारी से कोई स्वेटर ढूंढने लगी। …नहीं, ये स्वेटर तो पिछली सर्दी में ही खरीदा था… और ये स्वेटर तो प्रभात बड़े शौक से पहनते हैं… ओफ! अलमारी में तो सभी पहनने वाले स्वेटर हैं… सुधा झुंझला उठी। उसने आलमारी बंद कर दी। आखिर, लोहे का बड़ा वाला ट्रंक खोला, कितने कपड़े भरे हैं ट्रंक में… कहां समय है इतना कि इन कपड़ों को निकाले, फिर तह कर रखे… सुधा यूं ही कपड़ों को उलटने-पुलटने लगी कि रिंकी की एक फ्राक हाथ आ लगी जो बिलकुल नई ही थी, पर थोड़ा कसती थी। मां ने ही भेजी थी रिंकी के जन्मदिन पर। लंबाई तो ठीक थी पर कमर से थोड़ा टाइट थी। सुधा ने झट आज उसका भी उद्धार कर डाला। सेफ्रटीपिन से कमर की तरफ थोड़ा उधेड़ा और फिर कुछ ढीला कर दोबारा सिल दिया। हां, अब रिंकी को ठीक आएगी।
‘‘रिंकी… रिंकी…’’
फ्राक पहनाई तो रिंकी बिलकुल गुड़िया लगने लगी, गोल-गोल चक्कर काटती ठुमकने लगी।
शाम हो रही थी, अचानक घड़ी पर ध्यान गया- प्रभात आते ही होंगे। सर्दियों में कितनी जल्दी ढल जाता है दिन, पता ही नहीं चलता। पर आज विशेष उल्लास था मन में। जब वह प्रभात को स्वेटर दिखाएगी तो वे सोच भी न पाएंगे कि सुधा ने इसे अपने हाथों से बनाया होगा और जब उन्हें इस बात का पता चलेगा तो…। सुधा का पोर-पोर भीग गया था। आज समझ आ रहा था कि मां क्यों हमेशा दो सलाइयों में मग्न रहती थीं, सारी सर्दियां ऊन-कांटे उनकी उंगलियां में मचलते रहते। सुधा ने अलमारी खोली… अरे, स्वेटर तो यहां नहीं…पलंग पर भी नहीं… हां, बालकनी में होगा… नहीं, यहां भी नहीं…. शायद सिलाई मशीन के पास… ओफओ… स्वेटर कहां गया, यही तो रखा था- सुधा बड़बड़ाने लगी।
‘‘वो नीले वाला?’’ बड़ी-बड़ी आंखें, गोल-मटोल कर अचानक बोल पड़ी रिंकी, ‘‘वो तो मैंने बाबा को दे दिया मम्मा, बाबा को ठंडी लगती है न!’’
…सुधा सन्न रह गई। उसे लगा, जैसे रिंकी में उसका स्वरूप जागृत हो उठा हो। वह अपने कर्ज से मुक्त हो गई थी।
No comments:
Post a Comment