23 January, 2014

बीमारी-ममता कालिया

टैक्सी की आवाज सुनते ही मैं समझ गई थी कि वे हैं। उन्होंने पैसे चुका कर सामान खींच कर नीचे डाला और ऊपर आ गये। भाई तथा पर्स और हैण्डबैग से लदी दिखने वाली उसकी पत्नी। भाई ने अटैची मेज पर टिकाते हुए कहा,
'' कैसी तबियत हैकोई नौकर होगा सामान लाने के लिये?''
मैं ने कमरे में नजर घुमा कर देखा, '' नौकर तो नहीं है। वैसे जीना बहुत चौडा और नीचा है''
भाई जाने लगा उसकी पत्नी मेरे माथे पर हाथ रखते हुए बोली - ''बडा लम्बा सफर हैरास्ते में तकलीफ भी बहुत हुई तुम्हारे भाई तो कुछ करते नहीं न
। मुसाफिरों से जगह भी मुझे मांगनी पडी'' मैं मुस्कुराई
भाई होल्डाल घसीट कर लाने में सफल हो गया थाउसने पत्नी से कहा,'' बसवह बडा ट्रंक ही लाना रहा है न
अब?''
उसकी पत्नी हडबडा कर बोली - '' उसमें किसी का हाथ न लगवाना,जैसे भी हो धीरे धीरे ले आओ
''
भाई परेशानी जताता हुआ फिर चल दिया

उसकी पत्नी ने एक हाथ से ब्रेसियर की तनी कसते हुए पूछा, '' तुमने पुराना मकान क्यों बदल लियाकितनी दूर है यह स्टेशन से
। टैक्सी ही टैक्सी में पैंतीस मिनट लग गये हैं''
मैं ने कहा, '' पहले मकान से ऑफिस पहुंचने के लिये मुझे बस में पचास मिनट लग जाते थे
''
'' तुम्हे ट्रेन से आना जाना चाहिये न!'' उसने कहा
जब से मैं लोकल ट्रेन से भीड में गिर पडी थीमुझे ट्रेन से नफरत हो गयी थी। वैसे भी मुझे लगता था कि तीस सैकेण्ड का समय गाडी में चढने के लिये नाकाफी होता है और लोकल ट्रेन हर स्टेशन पर तीस सैकेण्ड खडी होती थी
भाई मोटा काला ट्रंक लिये कमरे में आ गया था। मैं सोचती थी कि इस बार मुझे काफी बडा कमरा मिल गया है। पर भाई के सामान के बाद कमरे का फर्श एकदम ढक गया था। अब कमरे में सिर्फ पलंग,दो कुर्सियां और सामान नजर आ रहा थाभाई ने बैठ कर कहा - ''चाय का इंतजाम तो है न?''
मैं ने कहा - '' 
हाँहाँमेरे पास गैस है और बिजली की केतली भी''
भाई की पत्नी बोली, '' तुम कैसे गुजारा करती होकम से कम एक नौकर तो रखना चाहिये था
''
मैं चुप रही। उन्हें बताना मुश्किल था कि अकेली लडक़ी की घर के नौकर के साथ क्या - क्या अफवाहें जुड ज़ाती हैं। नौकरानियों से मेरी बहुत जल्द लडाई हो जाया करती थी। वे चोर होती थीं और झूठीआजकल सामने बनती बिल्डिंग का एक चौकीदार आकर चाय के बर्तन मांज जाया करता था और झाडू भी लगा देता था। इससे ज्यादा काम के लिये उसमें अक्ल नहीं थी। डॉक्टर ने अब तक दवा भी खुद मंगवा कर दी थी
भाई की पत्नी अपना बदन संभालते हुए उठी और रसोई में जा पहुंचीमैं ने भाई को आज का अखबार थमा कर आंखें बन्द कर लीं। मैं बातों से बहुत थक गई थी। मैं थोडी सी बात करने से ही थक जाती और सांस तेज चलने लगती थी। बल्कि डॉक्टर को मैं ने यह बात कह कह कर इतना डरा दिया था कि उसने मुझे कार्डियोग््रााम कराने की सलाह दी। कार्डियोलॉजिस्ट की रिर्पोट में ऐसा कुछ डिटेक्ट नहीं हुआ। पर मैं अस्पताल जाकरकार्डियोग््रााम कराने में इतना थक गई कि मुझे कई दिनों तक लगता रहा कि रिर्पोट गलत है
भाई की पत्नी रसोई से परेशान होती हुई आई और भुनभुनाते स्वर में पति से कहा, '' मैं सारी रसोई ढूंढ चुकी हूँन तो चीनी मिलती हैन चाय की पत्ती''
मैं ने कहा, '' सब चीजें पलंग के नीचे रखी हैं
''
'' दूध भी?''
'' 
हाँउसका डिब्बा भी नीचे ही रखा है''
वह फिर रसोई में घुस गई और थोडी देर में ट्रे लेकर आई
। वह पलंग पर बैठती हुई बोली, '' लो भईबना लो अपनी - अपनीमैं तो बहुत थक गई''
भाई ने चाय के प्याले बना बना कर थमाये

मैं ने कहा, '' मेरे बीमार होने से आपको बहुत तकलीफ हो रही है न?मेरा बदन बिलकुल टूट चुका हैनहीं तो खुद उठती
''
भाई जल्दी - जल्दी बोला, '' नहीं - नहींयह तो सफर की थकान है,वरना दूसरों को तकलीफ देने की तो इसे जरा भी आदत नहीं है
भाई ने रैक पर से मेरी एक्सरे की रिर्पोट और ब्लड - यूरिन और स्टूल टेस्ट की रिर्पोटें उठा ली थीं
मैं ने कहा - '' सिर्फ युरिन रिर्पोट में शिकायत है
''
उसकी बीबी ने पूछा - '' शक्कर तो नहीं है?''
भाई ने कहा, '' नहीं शक्कर नहीं है,  पस  है
''
मैं ने उसकी पत्नी से कहा, '' रसोई में डबल - रोटीमक्खन और जैम रखा है
। आप चाहें तो ले सकती हैं''
उसने कहा, '' अचार हो तो बता दो
। मठरियां हैण्डबैग में पडी हैं
मैं ने कहा, '' मुझे खुद अचार खाये पांच - एक साल हो गये हैं
''
उस दिन मैं सारे समय उसे खाना बनाते और परेशान होते देखती रही। मुझे सिर्फ यह अफसोस हो रहा था कि शादी के बाद से लेकर अब तक वह वैसी ही रही - वैसी ही बेसलीका और बेअक्ल! बल्कि भाई भी उसके साथ साथ 
उसी अनुपात में बेवकूफ होता जा रहा था
। वह उसके साथ रसोई में ऐसे लगा था जैसे कि उसकी पत्नी ऑपरेशन कर रही हो। मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि ये लोग मेरा क्या ख्याल रख पायेंगे। मुझे स्वयं पर गुस्सा आ रहा था। भावुकता के एक बचकाने क्षण में मैं ने भाई को बहननुमा चिट्ठी लिख दी थी कि मैं कितनी बीमार और कितनी अकेली हूँ ! भाई ने लिखा था कि, '' यह बहुत अच्छा हुआ कि इस साल मैं ने अपनी कैजुअल खत्म नहीं की। हम लोग आ जायेंगे''
भाई ने अगले दिन बाकि की रिर्पोट ला दीं। किडनी में इनफैक्शन था जिसकी ऑपरेशन वाली स्थिति नहीं आई थी पर लम्बा इलाज चलना था। डॉक्टर ने दवाइयों और इंजेक्शनों की लम्बी फेहरिस्त लिख दी और बिस्तर में रहने की ताकीद। डॉक्टर ने कहा जैसे जैसे इनफैक्शन दूर होगाबुखार अपने आप हटता जायेगाभाई की बीवी ने पूछा,
'' 99 के आगे तो नहीं बढता बुखार
''
मैं ने कहा '' नहींपिछले 33 दिनों से 99 ही है
''
उसने कहा, '' तुम्हारे भाई कहते हैं कि 99 बुखार नहीं होताहरारत होती है
। हम तो इतने बुखार में घर पर खाना बनाते हैंकपडे धो लेते हैं''
उसे बुखार आ सकता हैयह कल्पना भी मुझे हास्यास्पद लगी
। मैं जितनी बार बिस्तर से उठतीमुझे लगता कि कमरे का फर्श और नीचे चला गया है। मुझे आश्चर्य होता था कि कैसे बीमार होते ही मैं सबसे पहले चलना भूल गई
भाई सुबह - शाम रसोई में पत्नी की मदद करता था। बीच के वक्त में उसे समझ नहीं आता था कि वह क्या करेमैं उसे अखबार देती तो वह उसे पढने के बजाय ओढ क़र सो जाया करता। जैसे वह खाने और सोने के लिये ही इतनी दूर से चल कर आया हो। मुझे विश्वास नहीं होता था कि इस आदमी ने कभी दफ्तर की फाइलें भी पढी होंगी
एक दिन उन लोगों को मैं ने घूमने भेजा थावे लोग डेढ घण्टे के अन्दर फिर घर में थे। भाई ने बताया कि वे स्टेशन से चार नम्बर बस में बैठ गये थे और उसी बस में बैठे बैठे वापस आ गये थेउसकी पत्नी ने पूछा, '' क्या तुम्हारे दफ्तर के लोग तुम्हें देखने भी नहीं आ सकते?''
मैं ने कहा, '' जो लोग मुझे जानते हैंएक एक बार आ चुके हैं
''
उसने कहा, '' तुम्हारे भाई तो एक दिन की भी छुट्टी ले लें तो घर में दफ्तरवालों की भीड ज़मा हो जाती है
''
मैं ने भाई की तरफ देखते हुए कहा, '' सरकारी दफ्तरों में लोग ऐसे मौके तलाशते ही रहते हैं
''
पर भाई विरोध के लिये उत्तेजित नहीं हुआउस पर पत्नी के हांफने के सिवा किसी बात का असर नहीं होता था
बीमारी के शुरु के दिनों में मुझे दफ्तर के पांच लोग एक साथ देखने आ गये थेपांच आदमियों के बैठने की जगह कमरे में नहीं थी। वे सब विवाहित थेइसीलिये पलंग के किनारे बैठना उनके विचार में अनैतिक था। आखिर उन लोगों ने मेज से दवाइयों की शीशियां उठा कर मेज खाली की और दो आदमी उस पर पैर लटका कर बैठ गयेवे सब दफ्तर से सीधे आ गये थेअपना अपना बैग और छाता उठाये। उन्हें बराबर चाय की तलब होती रहीजिसे वे कमरे की खूबसूरती की बातें कर टालते रहे थे। उन्होंने रेडियो चलाया था और डिसूजा रसोई से सबके लिये पानी लाया था। मुझे बराबर बुरा लगता रहा था कि उन लोगों ने मेरी बीमारी की बाबत पर्याप्त पूछताछ नहीं की। वे आपस में ही बातचीत करते रहे थे। बिस्तर पर पडे पडे औरडॉक्टर के नुस्खे ले लेकर मुझे अपनी बीमारी खासी महत्वपूर्ण लगने लगी थी। मैं चाहती थी कि विस्तार से बताऊं कि बीमारी कैसे शुरु हुई और इस बीमारी में सुधार की रफ्तार कितनी धीमी होती है,बावजूद इसके कि अब तक 155 रू की दवाइयां आ चुकी हैं और 125रू एक्सरे में लग गये
भाई की छुट्टियां खत्म होने वाली थीं और वह हर बार डॉक्टर से यह जान लेना चाहता था कि मैं पूृरी तरह ठीक कब तक होऊंगी। वह मेरी बीमारी के प्रति काफी जिम्मेदारी महसूस कर रहा था। उसने कहा, '' अच्छा होतुम हमारे ही साथ अहमदाबाद चलोवहां इसके साथ तुम्हारा मन भी लग जायेगा'' वह अपनी बीवी को हमेशा सर्वनाम से ही सम्बोधित करता था
मैं ने कहा, '' मन लगना मेरे लिये कोई समस्या नहीं
। और सफर के लायक ताकत मेरे अन्दर है भी नहीं''
वास्तव में मैं उसकी पत्नी के साथ मन लगाने के सुझाव से ही घबरा गई थी
। मुझे यह भी पता था कि मेरी इस बीमारी को वह संदिग्ध समझ रही हैउसके ख्याल में कुंआरेपन में किसी भी प्रकार का इनफैक्शन होना चाहे किडनी ही में सही सरासर दुश्चरित्र होने की निशानी थी। एक वह मुझे सोता समझ यह बात अपने पति से कह रही थी। भाई की अपनी समझ शायद ऐसे मौकों पर काम नहीं करती थीवह चुप ही रहा करता था
भाई को अचानक एक मौलिक विचार आयाउसने कहा, '' सुनोऐसी तकलीफ में अस्पताल अच्छा रहता हैबल्कि तुम्हें बहुत पहले अस्पताल चले जाना चाहिये था। यहां कोई टहल - फिक्र करने वाला भी तो नहीं है''
मैं ने कहा, '' 
हाँअस्पताल में काफी आराम मिलता है''
भाई ऐसे कामों में खूब मुस्तैद थाउसने तीन घण्टे बेतहाशा दौडधूप की और शाम को पसीना पौंछते हुए सफल आदमी की तरह घर लौटाउसकी पत्नीउसकी कामयाबी से प्रसन्न होकर फौरन चाय बनाने रसोई में चली गई
मैं ने अलमारी से कुछ कपडे और जरूरी चीजें निकाली और भाई की पत्नी से कहा कि वह अटैची में रख दे। भाई मेरे सारे डॉक्टरी कागज बटोर रहा था। बिस्तर पर लेटे लेटे मैं ने देखा कि उसकी पत्नी कपडोंके बीच बैठी मेरी ब्रेजियर का नम्बर पढने की कोशिश कर रही थी
मैं ने भाई से पूछा, '' तुम्हारे अपने पैसे तो नहीं लगे किसी चीज मैं!''
भाई ने झेंपते हुए अपनी जेब से पर्स निकाला और कई कागज उलट पुलट कर एक कागज मुझे थमा दिया
। 
उसमें उन पैसों का हिसाब थाजो इधर उधर मेरे सिलसिले में आने जाने में खर्च हुए थे और जो फल मेरे लिये लाये गये थे
मैं ने भाई से कहा, '' कैश मैं अपने पास ही रख रही हूँजरूरत पड सकती हैतुम चैक ले लोगे?''
उसकी पत्नी ने तुरन्त सिर हिला दिया, '' 
हाँहाँ बैंक एकाउण्ट है इनका''
मैं ने एक चैक अस्पताल के नाम काट कर पर्स में रखा और एक भाई को थमाया
। फिर मैं टैक्सी का इन्तजार करने लगी

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