हमने बहुत चाहा था कि एक बेटा तो हमारे पास रहता, न सही एक छत के नीचे पर एक शहर के अलग-अलग घरों में रहकर भी एक सामीप्य सुख की भावना तो बनी ही रहती है। करुणा मोहन तो रह सकता था, उसकी अपनी बिज़िनेस थी पर वह तो सबसे पहले ही मस्कट जा बैठा। बड़ा बेटा अरुण वाशिंगटन में डाक्टर है - परिवार समेत वहीं बस गया है, पिछले आठ दस वर्षों से तो उसका आना ही नहीं हुआ, छोटा बेटा वरुण चेन्नई में हैं, कभी-कभार आ जाता है, पर उसकी पत्नी को यहाँ एक दिन बिताना भी छुटि्टयों का अपव्यय लगता है, एक-एक क्षण अपनी माँ के साथ बिताना चाहती है और चाहती है वरुण भी अपनी सासु के साथ ही रहे। मोनिका अपने घर है, जब सब थे कैसा जन संकुल लगता था यह घर! अब तो लगता है गहमागहमी से निकल कर किसी वीराने में आ गए हैं बस मैं और विभा, इतना बड़ा घर।
पर जितनी उष्मा सुरक्षा इस घर की छत ने दी है हमें वह अपना कोई बेटा नहीं दे पाया और यह भी तो है न इसी घर से जुड़ा गुलमोहर। जितनी सुखद छाँह इस गुलमोहर ने दी है वह कोई संबंधी नहीं दे पाया। जिन्हें अपने पास रखना चाहते थे वे सब नीड़ से पंख पसार कर उड़ गए और जो अंगद से पाँव टिकाये घर बनने के पहले दिन से हमारे सारे सुख-दुखों का साक्षी मित्र बंधु-सा खड़ा रहा
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![]() आज भी एकदम याद है मौरंग बालू डाला जा चुका था, मजदूर गिट्टी तोड़ने में जुटे थे, नई इंटों के लाल चट्टे लग गए थे - और बिलासपुरी लेबर रहने के लिए इंटों पर इंटें टिका कर अपनी कोठरियाँ बना रहे थे। पंडित जी ने भूमिपूजन का मुहूर्त दो दिन बाद निकाला था तो वह दो दिन मैंने ऋण लेने की कार्यवाही पूरी करने और बैंक के चक्कर लगाने में काटे थे। दो दिन बाद पूजन की सामग्री लिए जब वहाँ पहुँचे थे तो मेरी दृष्टि गिट्टी के बीचोबीच अपना नन्हा सिर उठाए पत्तियाँ हिलाते एक पौधे पर गई। चारों दिशाओं में चौड़ी चाकल पत्तियाँ फैलाए वह खड़ा था, पत्थरों को फोड़कर ऊपर उमगता-सा। हर पत्ती के बीच में एकदम सीधी लकीर-सी हरी उसकी डंडी जिसके एक ही बिंदु से दोनों ओर निकली पत्तियाँ हवा की हल्की हिल्कोर से ऊपर उठती और फिर पूरी पत्ती करवट लेती ऊपर उठती। रात पानी बरसा था अभी भी बीच की डंडी के नीचे की ओर पानी की बूँदे मोतियों की लड़ी-सी लटक रही थीं। आश्चर्य हुआ था मुझे इतनी हवा आँधी के बाद भी यह बूँदे टपकी क्यों नहीं। भैय्या जी यह गुलमोहर है। बड़े जीवट का पेड़, गर्मी के झुलसते घाम में यह खिलता है, इसे देखकर अमलतास खिलती हैं। जब कहीं फूल नहीं होते तब यह फूलता है, इसे उखाड़ फेंकिए, नहीं तो चार दिन में आपकी बराबरी करने लगेगा। मजदूर ने उखाड़ फेंकने को हाथ बढ़ाया ही था कि मैंने जैसे पूरा दम लगा कर कहा था रहने दो रहने दो, उखाड़ो मत इसे। उस नन्हें धानी मस्ती से झूमते पेड़ के लिए बड़ी ममता-सी उमड़ आई थी। बड़े जतन से उसे वहाँ से उठा कर बहुत नाप जोख कर जहाँ - हमारी चाहर दीवारी होगी, उसके बाहर नाली के पार सड़क के किनारे हरी घास की पट्टी में एक गड्ढा खुदवा कर मैंने उसे रोप दिया। मकान बनवाते छ: महीने कैसे सरक गए पता ही न चला मजदूर जब दीवारों की तरी करते तो उसे भी जैसे नहला देते, धुल कर हुलस उठता। कई बार आते-जाते उसकी नन्हीं कोमल पत्तियाँ छू जातीं किसी नन्हें शिशु की कोमल उंगलियों-सा स्पर्श मृदुल विश्वास भरा। उस दिन छत पड़ रही थी ढोला बाँधा जा चुका था, गोल-गोल घूमती मशीन के गोल सिलिंडर से निकलते गिट्टी सीमेंट के घोल को तसलों में भर-भर कर मजदूर छत पर डाल रहे थे। मैं छत पर ही खड़ा था, गुलमोहर लंबा हो आया था। उसका भूरा हरा तना, तने की मुटाई बस किसी किशोर की बाँह-सी। देखता क्या हूँ - बड़ी बेफ़िक्री के आलम में भारी डील डौल वाली भैंसें पगुराती हुई चली आ रही थीं। कड्यों के सींगों में जंगली लतरों के मीटर दो मीटर के टुकड़े लटक रहे थे। दायें बांये हिलती डुलती कई आगे निकल गईं पर एक को शायद खुजली मची तभी। गुलमोहर के तने से सटकर जो उसने अपनी पीठ रगड़ी तो तना तो चरमराया कि बस अब टूटा तब टूटा, पूरा गुलमोहर झकोरे खा कर हिल रहा था। मैं एकदम नीचे भागा, महिषी को जैसे-तैसे खदेड़ा। तना जगह-जगह से छिल गया था। बस खरोंच ही लगी है यह कहो तुम्हारा फ्रेक्चर नहीं हुआ उसके तने पर हाथ फेरते हुए मैंने कहा, बच गए तुम। पूरा गुलमोहर सीधा होकर हिला जैसे उसने एक लंबी ठंडी सांस ली हो। छत पर गिट्टी डालने की अफरातफरी मची थी, कोई भी तो खाली नहीं था। सुमेर आया था घर से विभा का संदेश लेकर कि लौटते समय अरुण की यूनिफ़ार्म दर्जी के यहाँ से अवश्य लेता आऊँ। मैंने उसे ही गुलमोहर के चारों तरफ़ इंटों की गोल जाली बनाने पर लगा दिया। शाम को सुमेर पर तो बेभाव की पड़ी मैं भी कहाँ बचा था विभा की पैनी दृष्टि से। यूनिफ़ार्म तो आने से रही, सुमेर को और ले बैठे। 'सुनो तो सही मेरी अच्छी विभा,' मैंने कितना प्यार उड़ेला था शब्दों में। इंटों का घेरा न बनता तो बच न पाएगा बेचारा, अभी तो बहुत छोटा है अकेला इस बेरहम दुनिया में, जो चाहे तोड़-मरोड़ डाले, नोच मारे। 'तुम तो हो न उसके सबसे बड़े सगे निकट संबंधी नज़दीकी रिश्तेदार!' कहती हुई विभा चाय बनाने चली गई थी। मकान अपने निर्माण के सभी क्रमों को एक-एक करके पार कर रहा था, सामने लॉन में नल की फिटिंग चल रही थी, गुलमोहर सामने ही तो था। इंटों के ऊँचे गोल घेरे से उसकी पत्तियाँ बाहर झाँकने का प्रयत्न कर रहीं थीं जैसे कोई किशोर पंजों के बल उचक कर मुंडेर से बाहर झांकने की कोशिश कर रहा हो। 'बड़े हो रहे हो क्यों' मैंने एक वाक्य उसकी ओर उछाल दिया। दीपावली पर ही गृह प्रवेश था, कुमकुम़ों के प्रकाश से सारा घर दिपदिप कर रहा था, माँ ने दिए भी जलाये थे। एक दिया मैंने गुलमोहर की जड़ के पास भी रख दिया, स्निग्ध प्रकाश से उसका तना जगमगा उठा। मैंने उसके तने पर हाथ फेरा। दोनों बंद हाथों जैसी बांये अगल-बगल दो डालें निकल आई थीं दाहिने बायें दो बाहों-सी। ऊपर गुंबद-सी गोल हरी कैनोपी एक सुंदर वृक्ष। तने पर हाथ फेरते ऐसा लगा जैसे उर्ध्वमुखी उर्जा बह रही हो स्पंदन-सी। इस घर के निर्माण में तुम्हारा भी कितना सहयोग रहा है न। मज़दूर अपने अंगोछे गोल-गोल करके सिर के नीचे रखकर तुम्हारी छाँव में लेट लेते थे, उनके नंग धड़ंग मस्त बच्चे यहीं खेलते रहे। लोहार ने यही बैठकर कितनी सरियाँ मोड़ी और अपना झबरा मोती तो यहीं गोल घुंडी बना पड़ा रहता था। कितनी मज़दूरिनों ने तुम्हारे तने से टिक कर अपने आंचल में ढक कर गद्बदे बच्चों को दूध पिलाया और अपनी थकान उतारी, तुम छतरी-सा सबको ढके रहे। अब सब विदा हो लिए। अब तो तुम अकेले रह सकते हो न। मैंने उसके तने पर फिर हाथ फेरा, हवा के हल्के झोंके से उसकी पत्तियाँ हिली, सरसराई जैसे कह रहा हो आप तो हैं न। उस दिन का डरा सहमा चरमराता भूलुंठित-सा होता भीमकाय महिषी से जूझता वह नन्हा पेड़ आज सिर उठाए खड़ा था जैसे कोई बच्चा वयस्क होकर घर की सुरक्षित छत की छाँह का मोह त्याग खुले आकाश के नीचे हाथ पैर मारने के लिए निकल पड़ा हो। फिर जीवन का चिरपरिचित क्रम, बच्चों के स्कूल होम वर्क कालिज, विश्वविद्यालय, प्रतियोगिताएँ जीतना हारना, अरुण का डाक्टर बनना, वरुण का इंजिनीयर, करुण को अपने व्यवसाय टिकाने में दिन रात की दौड़ धूप, मोनिका का एम बी. ए. करना, उसकी बारात। हर्ष पूरित आँसुओं से भीगी विदाई, एक-एक कर बहुओं का आना, एक भरे पूरे सरोवर से तीन धाराओं का तीन दिशा में निकल जाना, माँ का पूजा करते-करते महाप्रयाण, विभा का काजल से काले बालों का चाँदी की तारों में बदलना, गठिया का मेरे घुटने को थोड़ा टेढ़ा करना, एक लंबी यात्रा चौड़े राजमार्ग तो संकरी रपटती पगडंड़ियाँ, मलयानिल के मृदु स्पर्श से अहसास तो अंधड़ आंधियों के बवंडर, दंश मारने को आतुर सर्प फुफकात तो चुपचाप धरा अंचल में मिलती शेफाली से अनुभव, पूनम का चाँद तो तपता हुआ सूरज और सबका साक्षी बना चुपचाप खड़ा यह गुलमोहर। बच्चों ने किलकारियों से घर भरा तो सुबह कुछ चाहा भी, उत्पात भी मचाया कई अप्रिय प्रसंगों में घसीटा पर यह गुलमोहर हिलती डुलती जालीदार धूप छाँह देते हुए घर के बाहर ही खड़ा रहा, सड़क के किनारे का एक पेड़। लॉन के पौधों को तो पानी भी मिला पर इसे तो हमने पानी भी नहीं दिया। इसके जड़ों ने धरती से ही रस लिया, घन बरसे तो अपनी हरी अंजुरियों से जल पिया, सूरज ने आग उगली तो जलती धूप को पत्तियों में समेट अपने नीचे धरती पर श्यामल शीतल छांह की प्रिंटेड चादर बिछा दी। पवन चली तो सरसराया, अंधड़ आया तो झकोरे खाए, हिला-झूमा-टिका सब अकेले ही करता रहा, चुपचाप हमारे घर को अपने नाम की पहचान देता- अच्छा वह गुलमोहर वाला घर। पर शायद मैं अधिक ही भावुक हो रहा हूँ, इतना अकेला तो नहीं रहा। राह चलती धेनुएँ यहीं बैठ कर सुस्ताईं, अलस पड़ी गौओं ने उचक-उचक कर कूदते चोंचे घुमाते कौओं से अपने कान खुदवाए। न जाने कितने सब्ज़ी वाले यही ठेले खड़े करके सुस्ताए, न जाने कितनी कारें यहीं आकर रुकीं। बकरियाँ इसके तने के पास आकर मिमियाईं घास चरा उछलकूद मचाई और भाग खड़ी हुईं। न जाने कहाँ से वह चोट खाया आगे की दोनों बँधी टाँगों से उचकता घोड़ा भी इसी के नीचे आकर खड़ा हो जाता था। कितने कठफुडवे जैसे इसके द्वार खुलवाने को तने पर घंटो ठक-ठक करते रहे और चीटें-चीटियों की तो पूछिए मत बड़े अधिकार से इसके चारों तरफ़ अपनी छेद-सी बिलें बना कर रवे-सी दानेदार मिट्टी के गोल मनभावन घेरे बना डाले। जब पहली बार खिला था तो कैसे आठ दस अग्नि स्फुलिंग सुर्ख अंगारों से फूल इसकी घनी हरी पत्तियों के आँचल में चमक उठे थे। फिर तो हर वर्ष खिलाने लगा सर्वांग लाल फूलों के छापे वाली छतरी-सी लगाए। कभी-कभी तो पोर-पोर खिल उठता, रोम-रोम खिल उठता जैसे आकाश को लाल पीताभ फूलों का गुलदस्ता भेंट कर रहा हो। विभा अपने बेटे-बहुओं, बेटी-दामाद, पोते-पोतियों नातियों के प्रसंग से ज़रा उबर चली थी पर खीझी-खीझी रहती। बस मैं और वह, उसका समय ही न कटता। घर झाड़ पोछ, सजा-सँवार कर रखती तो दूसरे दिन तक वैसे ही पड़ा रहता तो सारी खीझ गुलमोहर पर उतारती, लॉन तो बरबाद ही कर डाला है - सारे फूल झड़े पड़े रहते हैं कितना कचरा करता है। ज़रा भी सुगंध नहीं है इसके फूलों में। सारी धूप रोक लेता हैं, लॉन में घास तक नहीं उग पाती। जाड़ों में भी धूप नहीं मिलती, कितना बड़ा होता जा रहा है सारा घर ही ढक मारा है। पर गुलमोहर बड़ा ही होता चला गया। ज़रा से वायु के झोंके से पूरी पत्तियाँ ऐसे धीरे-धीरे हिलतीं जैसे कोई गुरूग्रंथ साहब पर चँवर डुला रहा हो। पर कितनी देर क्षण भर को ही न। सड़क के पार अमलतास खिली पड़ी थी घंटियों झुमकों से पीले फूलों में हरे रंग का सजीला मीना ऐसे कर्णफूलों से पीले फूलों के गुच्छ के गुच्छ। गुलमोहर झूम-झूम कर उसे छूने को अकुलाता पर छू न पाता तब भी झाँक-झूँक तो करता ही रहता। हमारे बगल के पड़ोसी सभासद हरिनाथ पांडे जी को पता नहीं क्या सूझी कि सभासद के कोटे में मिली सीमेंटी बेंचो की एक बैंच इसी के नीचे डलवा दी। "यह आपने क्या किया पांडे जी, अरे क्यों परेशान हैं दो चार महीने यहीं रहने दीजिए। फिर तो अंदर रखना ही है।" उस साल गर्मी ने जैसे सारे रिकार्ड तोड़ दिए, तपिश इतनी कि सीमेंट तड़क जाए धूप में। धूप में त्रस्त कितने लोग ठंडी छाँह में उस बेंच पर आकर बैठ जाते घना पेड़ अपने शीतल आँचल में ले लेता। इधर कुछ दिन से एक लड़का लड़की उस पर बैठकर घंटों बतियाते रहते, लड़की सहमी डरी-सी। लड़का उसे धीरज बँधाता-सा विभा बहुत तुनकती, अब लड़का लड़की बैठें हैं तो गीता का पाठ तो कर नहीं रहे होंगे। अब तो बरामदे में भी नहीं बैठ सकते, हर समय कोई न कोई बेंच पर चढ़ा बैठा है। एक दिन रात में लगा बेंच पर कुछ खटर-पटर हो रही है सबेरे देखा तो व्हिस्की की खाली बोतल हवा में लोट रही थी। इधर के पड़ोसी कुशवाहा जी ने तो विरोध का परचम लहरा दिया। यह तो अड्डा बन जाएगा, आजकल के छोकरों को आप जानते नहीं। किसी तरह उन्हें शांत किया ही था कि एक निम्नमध्यवर्गीय दंपति यहीं आकर बैठने लगा, घर संसार की सारी बातें मान मनोबल प्यार मनौवल हालचाल डाँट डपट सब होती वहीं, लगता था घर में प्राइवेसी बिलकुल नहीं थी। एनीमिया से त्रस्त वही दुबली पतली औरत उससे सटी सो जाती। अब तो कुशवाहा आपे से बाहर हो गए, रोज़ ही लड़ते हैं यहाँ मियां बीबी की लड़ाई तो बड़ी छुतही बीमारी है, उड़ कर लगती है, पूरे मुहल्ले को ले डुबेगी। कटवाइये इस गुलमोहर को, न रहेगा बाँस न बजेगी बाँसुरी, पांडे जी तब कहाँ रख पाएँगे अपनी बेंच। इधर एक नया प्रसंग जुड़ गया। कालोनी भर की जमादारिने अपने लंबे झाडू बंदूक-सा उठाए आतीं और इसके तने से टिका देतीं, फिर चलती उनकी गोष्ठी तो पांडे जी क्या उनकी श्रीमती जी भड़क उठीं। पर जमादारिने किससे दबने वाली थीं। सड़क का पेड़ है, आपका पेड़ था तो अंदर लगातीं, अब तो आप सब लोग कमरों के अंदर पेड़ लगा लेते हैं, हम सब जानते हैं। इसकी छाया सबकी छाया, इसकी बेंच सबकी बेंच, जो बैठना चाहे बैठे। सब ठसके से बेंच पर बैठ रहतीं। श्रीमती पांडे तो बड़ा भुनभुनाती कहे देती हूँ यह बेंच घर में तो लाकर रखना मत। हम सब लोग नोंक-झोंक करते रहते और गुलमोहर लहर-लहर हिलहिल कर धूप छाँह की टेपेस्ट्री बुनता, किसी को अपने नीचे बैठने से न रोकता। पर गर्मी तो कहर ढा रही थी। यदाकदा हमारे घर की कॉल बेल बज उठती। माता जी ज़रा ठंडा पानी पिला देतीं, होंठ एक दम सूख रहे हैं। विभा भुनभुनाती घर न हो गया प्याऊ हो गया, और पानी भी पिएँगे ओक से। ओक भी क्या चीज़ है पचास प्रतिशत पानी तो यों ही बह जाए, और चाहिए सबको ठंडा पानी। दिन भर फ्रिज में बोतलें ही भर-भर रखते रहो। |
था उसे हमने ही टिकने नहीं दिया।
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![]() गुलमोहर की इस सारी हरकतों से कई लोग नाराज़ हो चले थे। विभा तो प्रमुख थी ही, रोज़ कोई न कोई शिकायत मुझसे होती गुलमोहर की। वह गुलमोहर जैसे बिलकुल बस मेरा ही था। पर गुलमोहर मेरी क्या सुनता था, कुछ नहीं। सुने तब न, इधर तो उसकी एकाध हरकत से मैं भी परेशान था। गुलमोहर के पेड़ इधर तो मंझोले आने लगे हैं पर यह तो सिर ऊँचा उठाए ऊपर ही उठता जा रहा था। बिजली, केबिल टेलीफ़ोन सबकी तारों को अपने आगोश में भरता ऊँचा ही उठ रहा था। उसकी ऊपर की फुनगी हमारे दुमंज़िले की छत से भी ऊपर निकलती थी। हवा चलती तो ऐसी झकोर लेता जैसे कोई युवक अपने बालों को झटका दे रहा हो, पर यह सौंदर्य कोई क्यों देखे। यहाँ तो तारें हिलती, शार्ट सर्किट होता बिजली गुल, टेलिफ़ोन ख़राब रोज़ की यही शरारत, कोलोनी का इधर का सारा क्षेत्र अंधेरे में डूब जाता। परीक्षा दे रहे बच्चे शोर मचाते प्रिय धारावाहिक देखते लोग अकुलाते, रसोई में मिक्सी चलाती गृहणियाँ बाहर झपटतीं, कटवाओ इस पेड़ को रोज़ का झंझट। अब देखो बिजली कब आती है। घंटों लगेंगे, पता नहीं आएँगे भी या नहीं बिजली वाले। भाई साहब इसे कटवाना ही पड़ेगा बड़ी ग़लत जगह लगा है कोई छोटा-मोटा पेड़ होता तो ठीक था यह तो सिर ही उठाए चला जा रहा है। इसे कटवाइए सब मुझे काटने को दौड़ते। पूरा गुलमोहर कबीर की सूक्ति निंदक नियरे राखिए आँगन कुटी छवाए मान कर लहराता झूमता ऊपर ही उठा जा रहा था। जितना विरोधियों का स्वर तेज़ इतना ही उसका सरसराना मुखर। गुलमोहर और मैं जुड़ गए थे। उसकी उधमबाजी की सारी शिकायतें मेरे पास आतीं, मैं अकेला उसकी वकालत कहाँ तक करता। कटवा दो भाई जिसे कटवाना हो। यों हरा पेड़ कटवाना कानूनी अपराध है इतना आप सब समझ लीजिए। पूरा पेड़ थोड़े न कटवा रहें हैं कह कर पांडे जी और कुशवाहा जी ने दायीं बायीं दोनों मोटी डालें उचड़वा दीं। जहाँ से डाले उचड़ी थीं वहीं लाल छौंहो से गोल लंबोतरे घेरे से उभर आए थे पर कुछ दिन बाद वहाँ गाँठ-गाँठ उभर आई और कोटर जैसे बन गए। एक खंजन का जोड़ा जो कई महीनों से फुदक रहा था उसमें रहने लगा, एक बाहर आता तो दूसरा अंदर जाता, उनका यही खेल हो गया। लॉन के पौधों पर दिन भर फुदकते कूदते उड़ते रहते। दूसरी ओर एक गिलहरी आ बैठी कोटर से नुकीला मुँह निकाले टिर्र-टिर्र करती सर्र से तने से नीचे उतरती, नीचे ज़मीन पर दौड़ती, घास रौंदती फाटक फलांगती और सर्र से गुलमोहर के ऊपर तक चढ़ जाती। दो बड़ी डालें कट गईं पर समाधान कुछ न हुआ, आए दिन वही बिजली गुल और गुलमोहर है कि ऊपर ही उठा जा रहा है, ऊपर तो घना गुंबद-सा था ही, तारे फिर उलझीं। इस बार कोलोनी के युवा वर्ग ने आव देखा न ताव इधर उधर की सारी डालें काट मारीं। बिजली वालों को फ़ोन किया गया, जंक खाई - दो पहियों वाली छोटी लोहे की रेढ़ी पर पच्चीस तीस मीटर लंबी सीढ़ी लेकर खड़खड़ करते आ तो गए पर पेड़ काटना हमारा काम नहीं है, वह दूसरा विभाग है वहाँ फ़ोन कीजिए। अरे भई पच्चीस पचास ले लो इधर की दो चार डालें तो काट ही दो। जनता बड़े कष्ट में हैं - रोज़-रोज़ बिजली जाती है बच्चे पढ़ाई करें भी तो कैसे। इसे तो जड़ से कटवा दीजिए वरना कुछ लाभ नहीं होगा, तने के पास खड़े होकर ऊपर देखते रहें, इसे तो देखने के लिए सिर उठाना पड़ता हैं, चंद चार छ: पतली डालें काट कूट कर इधर-उधर हजामत करके वे सब चले गए। पर पता नहीं क्या हुआ उन्होंने कोई फेज़ बदल दिया था जो भी हो, बिजली तो आ रही थी पर वोल्टेज एकदम कम। बिजली की राड जैसे लालटेन और बल्ब जैसे खोमचे वाले की बुझती ढिबरी। फिर वहीं शिकायतें, भाई साहब जब तक यह पूरा नहीं कटेगा ऐसे ही उत्पात मचता रहेगा। न जाने सबके मस्तिष्क में एक तर्क ऐसा कुंडली मार कर बैठ गया था कि मेरे लाख समझाने पर भी टस से मस नहीं हुआ कि गुलमोहर की डालें और पत्तियाँ बिजली की तारों से सारी बिजली खींच लेते हैं। गुलमोहर भ्रष्ट हो गया है सब मुझे घेरते सुनाते। सबने मिल कर फिर गुलमोहर छाँट दिया, बस अब बीच का तना ही रह गया था। नीचे से एकदम सीधा ऊपर जाकर जहाँ पहली बार डालें उचेड़ी गई थीं वहाँ से अष्टवक्री होता ऊपर गया था बस ऊपर की गोल घनी छतरी पत्तियों वाली बची जो अभी भी फूलों से भरी थी। मैं तब वाइरल बुखार से उठा ही था, ज्वर ने जैसे सारा शरीर ही निचोड़ लिया था इतनी कमज़ोरी थी कि चला तक नहीं जा रहा था जैसे - पैर घसीट कर उठाने पड़ते। बाहर बरामदे में तख्त पर यों ही अलसाया-सा लेटा था। दिन खिला-खिला था, आकाश धुला नीलाभ के अनंत विस्तार-सा और उसमें नन्हें-नन्हें उजले बादल शावकों से दौड़ते कुलांचे भरते। गुलमोहर के फूल लगभग समाप्त प्राय: थे पर अभी भी हरे आँचल में कहीं-कहीं लाल सितारों से फूल टँके थे। हरी पत्तियों में कत्थई-सी बड़ी पत्तियाँ बीजों से भरी तलवारों-सी लटक रहीं थीं। उस हरीतिमा के विरल आँचल में कई पुष्प पत्र-विहीन सूखी टहनियाँ वक्र टेढ़ी-मेढ़ी शून्य में विलीन होती जान पड़ती थीं। मैं बहुत कमज़ोरी अनुभव कर रहा था, थका उदास-सा गुलमोहर को देख रहा था। यह पेड़ भी पिछले पच्चीस साल से यहीं खड़ा है। सारी डालियाँ काट दी गई हैं बस एक तना ऊपर तक उठता चला गया है, पर कितना ऊँचा हो गया है न आजकल तो गुलमोहर छोटे ही होते हैं यह तो जैसे आसमान छूना चाहता है। विभा मेरे लिए सूप लाई थी, यह भी दिन भर मेरी सेवा में लगी रहती है, मैंने उसके हाथ से सूप और समाचार पत्र दोनों ले लिए। देखो -देखो मैं दिखाती हूँ कह कर उसने समाचार पत्र लेकर बीच का पन्ना खोला, यह वास्तु शास्त्र पर देखो कितना अच्छा लेख है। लिखा है घर के सामने ठीक बीचों-बीच कोई पेड़ नहीं होना चाहिए, मंगलकारी नहीं होता बड़ा अनिष्ट करता है। मैंने अचकचा कर विभा को देखा, लगा गरमा-गरम सूप बेज़ायका हो गया है। यदि यह गुलमोहर यहाँ न होता तो हम लागों ने और कौन से तीर मार लिए होते। सभी बच्चे ठीक हैं, हम दोनों मजे में हैं, ठीक है ऐसा क्या कष्ट है भला हम लोगों को। अब जीवन में कुछ कष्ट दु:ख तो अनिवार्य है ही - होना भी चाहिए ऐसा भी क्या कि कभी दु:ख का दर्द ही न भोगो क्यों? पर विभा के पास कष्टों की लंबी सूची थी और वह उन सारे कष्टों को गुलमोहर के खाते में लिख रही थी। इधर जब से मोनिका का अपने पति से विवाद तलाक की अऱ्जी लिए कोर्ट कचहरी के गलियारों में आगे पीछे घूम रहा है तब से तो विभा ने वास्तुशास्त्र का बड़ा सहारा ले लिया है। पेड़ का घर के सामने ठीक बीचों-बीच होना उसे अनिष्ट का साक्षात दैत्य लग रहा है। कितना समझाया कि मोनिका बंगलोर के अपने फ्लैट में हैं जहाँ पेड़ का नामोनिशान नहीं और इस गुलमोहर की तो एक पत्ती तक नहीं वहाँ, पर विभा तो सुनने को तैयार ही नहीं थी, उन्होंने तो स्पष्ट शब्दों में कह दिया कि 'अब वह इसे कटवा कर ही रहेगी, बेटी का दर्द माँ ही समझ सकती है, तुम क्या जानो।' 'ठीक है जो आपकी इच्छा हो करिए।' मैं चुप तख्त पर आँखें बंद करके लेटा रहा, वह सूप का मग उठा कर अंदर चली गई। मैंने गुलमोहर पर एक दृष्टि डाली धीमी हवा में ऊपर की दो समानांतर डालियाँ हिल उठीं और एक लाल पुष्प गुच्छ बीच में चमक उठा। मैंने कहा तुमने कुछ सुना अभी तक तो व्यक्ति तुम्हारे विरुद्ध थे, फिर कालोनी तुम्हारी विरोध में उठ खड़ी हुई अब तो शास्त्र भी तुम्हारे विरोध में हो गए हैं फिर तुम तो जानते हो विभा एक बार जो ठान लेती है सही या ग़लत कर के ही मानती है। इतने में क्या देखता हूँ कि उन दो डालियों के पृष्ठभाग में एक बहुत ही उजला चमकता-सा बादल आ कर टिक गया और दो डालियों के बीच एक उजले पटल का सुंदर श्वेत फ्रेम-सा बन गया। उसके कोने में अग्निपुष्प से दो चार लाल फूल, इधर लंबी मुड़ी हुई एक दो भूरी-कत्थई फलियाँ, सूखी पतली टहनियाँ वक्र गोलाकार उर्ध्वमुखी क्षीण से क्षीणतर होती, नुकीली होती, विलीन होती हुई और नीचे हरी धानी पत्तियाँ। एक अत्यंत सुंदर मनभावन चित्र फ्रेम में सजा जो चीनी जापानी शैली का एक उत्कृष्ट मास्टर पीस, बस दो चार स्ट्रोक्स। मन हुआ विभा को बुलाऊँ अरे आकर देखो तो कितना सुंदर चित्र है पर वह आवारा बादल तो आगे सरक लिया तिर गया, पलक झपकते सारा सजीला चित्र विलीन छिन्न भिन्न। गुलमोहर क्या तुम यही कहना चाहते हो। तो क्या तुमने मेरा दर्द समझा है मेरी व्यथा को भाँपा है। मैं तुम्हें नहीं कटने दूँगा गुलमोहर, नहीं कटने दूँगा चाहे कुछ हो जाए। मैंने ही तुम्हें यहाँ रोपा था ठीक घर के सामने बीचों-बीच, इसमें तुम्हारा तो कोई दोष नहीं तुम तो किनारे पर ही उगे थे। पर तुम यहाँ नहीं होते तो क्या मोनिका का तलाक नहीं होता। छोटे थे तो यदा-कदा कभी पानी दिया हो फिर हम लोगों ने तुम्हारी क्या सार-संभार की। उन दिनों वास्तुशास्त्र का नाम किसने सुना था, मैंने तो नहीं ही सुना था, नहीं तो बंधु मैं तुम्हें कहीं किनारे कहीं सामने पार्क में ही लगा देता। खैर जो हुआ सो हुआ। मुझे थकान लग रही थी करवट लेकर लेट रहा। मोनिका तलाक के बाद उसी के शब्दों में मुक्तिपर्व मनाने अपने दोनों बेटों के साथ आ रही थी हमारे पास। और था ही कौन मुझे ही जाकर उसे स्टेशन से लाना पड़ा। जैसे ही स्टेशन पहुँचा था बादल घिरने लगे थे - लौटते तो आकाश घटाटोप बादलों से भर उठा। आकाश धरती के बीच सब सँवलाया श्यामल हो उठा और ऊपर दैत्याकार गरजते टकराते मेघों की घन घोर घटा। कार फाटक पर रोक कर अभी सबने बरामदे में पैर रखा ही था कि बड़ी-बड़ी बूँदे, चना-ज़ोर-गरम की गोल चिक्कियों जितनी छितरी-छितरी तेज़ पानी बरसने की तड़-तड़ करती आवाज़ पास आती जा रही थी। सामान अंदर रखते-रखते तो वह ताबड़तोब मूसलाधार वर्षा कि चारों तरफ़ प्लास्टिक की पारदर्शी झिलमिलाती-सी दीवार-सी उठ खड़ी हुई। घनघोर गर्जन-तर्जन, तड़कती तड़ित नभ पर नसों के जालसी चमकती बिजली और फिर तो बिजली इतनी चमकी गरजी, कि प्रकाश का एक तेजपुंज शोले-सा सारे बरामदे को लहका गया। "बड़े समय से आ गए आप सब।" विभा ने चैन की सांस ली वह तेज़ अंधड़ पेड़ों को तो दैत्य-सा झिंझोड़ रहा था, मेघों की भयंकर टकराहट, जैसे पृथ्वी को नष्ट करने का अट्टाहास, झमाझम मूसलाधार पानी। बिजली फिर कौंधी लपकता प्रकाश पूरे बरामदे को लहका गया। सारे पेड़ झुक-झुक कर अंधड़ से पनाह माँग रहे थे गुलमोहर की ऊपर की डालियाँ और पत्तियों की छतरी झकोरे खा रही थी। बिजली एकदम गुल, घना अंधेरा, लगता था पूरा शहर ही अंधेरे में डूब गया, घनघोर अंधेरा घुप्प घना पानी की तड़तड़ाहट से हाँफता फुंफकारता कि तभी भयानक चीत्कार-सा करता कोई पेड़ अड़बड़ा कर चरमराता टूट कर गिरा। कोई मोटी डाल फाटक से टकराती गिर गई, बिजली फिर चमकी गुलमोहर टूट कर गिर पड़ा था। पानी सारी रात बरसता रहा, अंधड़ कहीं सबेरे जाकर थमा। सवेरे-सवेरे उठकर सबसे पहला काम गुलमोहर को देखना था, बीचोबीच वहीं से टूटा था जहाँ सबसे पहले दायी बायीं डालियाँ काटी गई थीं। पैंतालिस का कोण बनाता ऊपर का पूरा का पूरा तना तारों से उलझ लिपटा फँसा सड़क के बीचोबीच गिरा पड़ा था जैसे दंडवत कर रहा हो। चारों तरफ़ डालियों में तारें ही तारें उलझी पड़ी थीं, इधर की डाल फाटक को बचाती हुई गिरी थी। उसकी आखिरी पंत्तियों का गुच्छ कठिनाई से एक फीट की दूरी पर था जहाँ मैंने कार खड़ी की थी। गुलमोहर ज़रा भी आगे बढ़ कर गिरा होता तो कार तो चकना चूर ही हो जाती और अगर समूचा पेड़ जरा और आगे की तरफ़ बढ़ कर गिरा होता तो घर की चाहर दीवारी फाटक सब टूटते। मेरे घर और कार को बाल-बाल बचाता गुलमोहर का लंबा टेढ़ा बांका तना भूलुंठित पड़ा था। झुंड के झुंड कालोनी के सारे लोग चारों तरफ़ इकठ्ठे होते जा रहे थे अब इसे जल्द से जल्द हटवाइए नहीं तो बिजली कल तक भी नहीं आएगी। बिजली वालों को फ़ोन कर दिया गया था, सारा शहर ही टूटे वृक्षों से पटा पड़ा है देखिए कब तक आ पाते हैं। वह तो शाम तक ही आ सकते थे उसके पहले ही न जाने कहाँ से महरियाँ-मजूरिनें-मज़दूर उनके अधनंग बच्चे कुल्हाडियाँ, बाँके, दरातियाँ लेकर आ पहुँचे टिड्डी दल की तरह और आनन-फानन में उसे काटने में जुट गए थे। डाल डाल काट रहे थे - पत्ते नोच रहे थे, गठ्ठर बना रहे थे, डालियों को सड़क पर घसीट रहे थे। विभा अपनी वाणी में जितनी कोमलता भर सकती थीं, भरकर बोली थी इन्हीं से नीचे का तना भी कटवा देते हैं, अब क्या पनपेगा ये ठूँठ-सा खड़ा अच्छा नहीं लगेगा। मैंने अपनी पत्नी को मर्मभेदी दृष्टि से देखा था, लगा था अंदर हुलस रही हैं कि बला टली। वास्तुशास्त्र के प्रमाण से अडिग खड़ा अमंगल अपने आप ही टला जा रहा था। कहना सुनना क्या था चुप रहा। पर सजल नेत्रों से मन ही मन मैंने गुलमोहर को प्रणाम किया था बंधु तुमने मेरी कार और मेरे घर की चाहर दीवारी ही नहीं बचाई, तुमने मुझे भी स्वयं इस तरह गिर टूट कर तुम्हें कटवाने के निरंतर बढ़ते दबाव में तुम्हें कटवाऊँ या न कटवाऊं के अप्रिय निर्णय की उहापोह से भी बचा लिया है। तुमने मुझे धर्म संकट से उबारा है गुलमोहर। सबकी दृष्टि बचा कर मैंने अपनी आँखें पोंछ ली थीं। इस समय भी मेरी आँखें भर आईं थीं, रात और उदासी के मिले-जुले अंधियारे में मैंने फिर अपनी आँखें पोंछ लीं। |
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