कोटि-कोटि तीरथ करै, कोटि कोटि करु धाय ।
जब लग साधु न सेवई, तब लग काचा काम ॥ 581 ॥
वेद थके, ब्रह्मा थके, याके सेस महेस ।
गीता हूँ कि गत नहीं, सन्त किया परवेस ॥ 582 ॥
सन्त मिले जानि बीछुरों, बिछुरों यह मम प्रान ।
शब्द सनेही ना मिले, प्राण देह में आन ॥ 583 ॥
साधु ऐसा चाहिए, दुखै दुखावै नाहिं ।
पान फूल छेड़े नहीं, बसै बगीचा माहिं ॥ 584 ॥
साधु कहावन कठिन है, ज्यों खांड़े की धार ।
डगमगाय तो गिर पड़े निहचल उतरे पार ॥ 585 ॥
साधु कहावत कठिन है, लम्बा पेड़ खजूर ।
चढ़े तो चाखै प्रेम रस, गिरै तो चकनाचूर ॥ 586 ॥
साधु चाल जु चालई, साधु की चाल ।
बिन साधन तो सुधि नाहिं साधु कहाँ ते होय ॥ 587 ॥
साधु सोई जानिये, चलै साधु की चाल ।
परमारथ राता रहै, बोलै बचन रसाल ॥ 588 ॥
साधु भौरा जग कली, निशि दिन फिरै उदास ।
टुक-टुक तहाँ विलम्बिया, जहँ शीतल शब्द निवास ॥ 589 ॥
साधू जन सब में रमैं, दुख न काहू देहि ।
अपने मत गाड़ा रहै, साधुन का मत येहि ॥ 590 ॥
साधु सती और सूरमा, राखा रहै न ओट ।
माथा बाँधि पताक सों, नेजा घालैं चोट ॥ 591
साधु-साधु सब एक है, जस अफीम का खेत ।
कोई विवेकी लाल है, और सेत का सेत ॥ 592 ॥
साधु सती औ सिं को, ज्यों लेघन त्यौं शोभ ।
सिंह न मारे मेढ़का, साधु न बाँघै लोभ ॥ 593 ॥
साधु तो हीरा भया, न फूटै धन खाय ।
न वह बिनभ कुम्भ ज्यों ना वह आवै जाय ॥ 594 ॥
साधू-साधू सबहीं बड़े, अपनी-अपनी ठौर ।
शब्द विवेकी पारखी, ते माथे के मौर ॥ 595 ॥
सदा रहे सन्तोष में, धरम आप दृढ़ धार ।
आश एक गुरुदेव की, और चित्त विचार ॥ 596 ॥
दुख-सुख एक समान है, हरष शोक नहिं व्याप ।
उपकारी निहकामता, उपजै छोह न ताप ॥ 597 ॥
सदा कृपालु दु:ख परिहरन, बैर भाव नहिं दोय ।
छिमा ज्ञान सत भाखही, सिंह रहित तु होय ॥ 598 ॥
साधु ऐसा चाहिए, जाके ज्ञान विवेक ।
बाहर मिलते सों मिलें, अन्तर सबसों एक ॥ 599 ॥
सावधान और शीलता, सदा प्रफुल्लित गात ।
निर्विकार गम्भीर मत, धीरज दया बसात ॥ 600 ॥
निबैंरी निहकामता, स्वामी सेती नेह ।
विषया सो न्यारा रहे, साधुन का मत येह ॥ 601 ॥
मानपमान न चित धरै, औरन को सनमान ।
जो कोर्ठ आशा करै, उपदेशै तेहि ज्ञान ॥ 602 ॥
और देव नहिं चित्त बसै, मन गुरु चरण बसाय ।
स्वल्पाहार भोजन करूँ, तृष्णा दूर पराय ॥ 603 ॥
जौन चाल संसार की जौ साधु को नाहिं ।
डिंभ चाल करनी करे, साधु कहो मत ताहिं ॥ 604 ॥
इन्द्रिय मन निग्रह करन, हिरदा कोमल होय ।
सदा शुद्ध आचरण में, रह विचार में सोय ॥ 605 ॥
शीलवन्त दृढ़ ज्ञान मत, अति उदार चित होय ।
लज्जावान अति निछलता, कोमल हिरदा सोय ॥ 606 ॥
कोई आवै भाव ले, कोई अभाव लै आव ।
साधु दोऊ को पोषते, भाव न गिनै अभाव ॥ 607 ॥
सन्त न छाड़ै सन्तता, कोटिक मिलै असंत ।
मलय भुवंगय बेधिया, शीतलता न तजन्त ॥ 608 ॥
कमल पत्र हैं साधु जन, बसैं जगत के माहिं ।
बालक केरि धाय ज्यों, अपना जानत नाहिं ॥ 609 ॥
बहता पानी निरमला, बन्दा गन्दा होय ।
साधू जन रमा भला, दाग न लागै कोय ॥ 610 ॥
बँधा पानी निरमला, जो टूक गहिरा होय ।
साधु जन बैठा भला, जो कुछ साधन होय ॥ 611 ॥
एक छाड़ि पय को गहैं, ज्यों रे गऊ का बच्छ ।
अवगुण छाड़ै गुण गहै, ऐसा साधु लच्छ ॥ 612 ॥
जौन भाव उपर रहै, भितर बसावै सोय ।
भीतर और न बसावई, ऊपर और न होय ॥ 613 ॥
उड़गण और सुधाकरा, बसत नीर के संग ।
यों साधू संसार में, कबीर फड़त न फंद ॥ 614 ॥
तन में शीतल शब्द है, बोले वचन रसाल ।
कहैं कबीर ता साधु को, गंजि सकै न काल ॥ 615 ॥
तूटै बरत आकाश सौं, कौन सकत है झेल ।
साधु सती और सूर का, अनी ऊपर का खेल ॥ 616 ॥
ढोल दमामा गड़झड़ी, सहनाई और तूर ।
तीनों निकसि न बाहुरैं, साधु सती औ सूर ॥ 617 ॥
आज काल के लोग हैं, मिलि कै बिछुरी जाहिं ।
लाहा कारण आपने, सौगन्ध राम कि खाहिं ॥ 618 ॥
जुवा चोरी मुखबिरी, ब्याज बिरानी नारि ।
जो चाहै दीदार को, इतनी वस्तु निवारि ॥ 619 ॥
कबीर मेरा कोइ नहीं, हम काहू के नाहिं ।
पारै पहुँची नाव ज्यों, मिलि कै बिछुरी जाहिं ॥ 620 ॥
सन्त समागम परम सुख, जान अल्प सुख और ।
मान सरोवर हंस है, बगुला ठौरे ठौर ॥ 621 ॥
जब लग साधु न सेवई, तब लग काचा काम ॥ 581 ॥
वेद थके, ब्रह्मा थके, याके सेस महेस ।
गीता हूँ कि गत नहीं, सन्त किया परवेस ॥ 582 ॥
सन्त मिले जानि बीछुरों, बिछुरों यह मम प्रान ।
शब्द सनेही ना मिले, प्राण देह में आन ॥ 583 ॥
साधु ऐसा चाहिए, दुखै दुखावै नाहिं ।
पान फूल छेड़े नहीं, बसै बगीचा माहिं ॥ 584 ॥
साधु कहावन कठिन है, ज्यों खांड़े की धार ।
डगमगाय तो गिर पड़े निहचल उतरे पार ॥ 585 ॥
साधु कहावत कठिन है, लम्बा पेड़ खजूर ।
चढ़े तो चाखै प्रेम रस, गिरै तो चकनाचूर ॥ 586 ॥
साधु चाल जु चालई, साधु की चाल ।
बिन साधन तो सुधि नाहिं साधु कहाँ ते होय ॥ 587 ॥
साधु सोई जानिये, चलै साधु की चाल ।
परमारथ राता रहै, बोलै बचन रसाल ॥ 588 ॥
साधु भौरा जग कली, निशि दिन फिरै उदास ।
टुक-टुक तहाँ विलम्बिया, जहँ शीतल शब्द निवास ॥ 589 ॥
साधू जन सब में रमैं, दुख न काहू देहि ।
अपने मत गाड़ा रहै, साधुन का मत येहि ॥ 590 ॥
साधु सती और सूरमा, राखा रहै न ओट ।
माथा बाँधि पताक सों, नेजा घालैं चोट ॥ 591
साधु-साधु सब एक है, जस अफीम का खेत ।
कोई विवेकी लाल है, और सेत का सेत ॥ 592 ॥
साधु सती औ सिं को, ज्यों लेघन त्यौं शोभ ।
सिंह न मारे मेढ़का, साधु न बाँघै लोभ ॥ 593 ॥
साधु तो हीरा भया, न फूटै धन खाय ।
न वह बिनभ कुम्भ ज्यों ना वह आवै जाय ॥ 594 ॥
साधू-साधू सबहीं बड़े, अपनी-अपनी ठौर ।
शब्द विवेकी पारखी, ते माथे के मौर ॥ 595 ॥
सदा रहे सन्तोष में, धरम आप दृढ़ धार ।
आश एक गुरुदेव की, और चित्त विचार ॥ 596 ॥
दुख-सुख एक समान है, हरष शोक नहिं व्याप ।
उपकारी निहकामता, उपजै छोह न ताप ॥ 597 ॥
सदा कृपालु दु:ख परिहरन, बैर भाव नहिं दोय ।
छिमा ज्ञान सत भाखही, सिंह रहित तु होय ॥ 598 ॥
साधु ऐसा चाहिए, जाके ज्ञान विवेक ।
बाहर मिलते सों मिलें, अन्तर सबसों एक ॥ 599 ॥
सावधान और शीलता, सदा प्रफुल्लित गात ।
निर्विकार गम्भीर मत, धीरज दया बसात ॥ 600 ॥
निबैंरी निहकामता, स्वामी सेती नेह ।
विषया सो न्यारा रहे, साधुन का मत येह ॥ 601 ॥
मानपमान न चित धरै, औरन को सनमान ।
जो कोर्ठ आशा करै, उपदेशै तेहि ज्ञान ॥ 602 ॥
और देव नहिं चित्त बसै, मन गुरु चरण बसाय ।
स्वल्पाहार भोजन करूँ, तृष्णा दूर पराय ॥ 603 ॥
जौन चाल संसार की जौ साधु को नाहिं ।
डिंभ चाल करनी करे, साधु कहो मत ताहिं ॥ 604 ॥
इन्द्रिय मन निग्रह करन, हिरदा कोमल होय ।
सदा शुद्ध आचरण में, रह विचार में सोय ॥ 605 ॥
शीलवन्त दृढ़ ज्ञान मत, अति उदार चित होय ।
लज्जावान अति निछलता, कोमल हिरदा सोय ॥ 606 ॥
कोई आवै भाव ले, कोई अभाव लै आव ।
साधु दोऊ को पोषते, भाव न गिनै अभाव ॥ 607 ॥
सन्त न छाड़ै सन्तता, कोटिक मिलै असंत ।
मलय भुवंगय बेधिया, शीतलता न तजन्त ॥ 608 ॥
कमल पत्र हैं साधु जन, बसैं जगत के माहिं ।
बालक केरि धाय ज्यों, अपना जानत नाहिं ॥ 609 ॥
बहता पानी निरमला, बन्दा गन्दा होय ।
साधू जन रमा भला, दाग न लागै कोय ॥ 610 ॥
बँधा पानी निरमला, जो टूक गहिरा होय ।
साधु जन बैठा भला, जो कुछ साधन होय ॥ 611 ॥
एक छाड़ि पय को गहैं, ज्यों रे गऊ का बच्छ ।
अवगुण छाड़ै गुण गहै, ऐसा साधु लच्छ ॥ 612 ॥
जौन भाव उपर रहै, भितर बसावै सोय ।
भीतर और न बसावई, ऊपर और न होय ॥ 613 ॥
उड़गण और सुधाकरा, बसत नीर के संग ।
यों साधू संसार में, कबीर फड़त न फंद ॥ 614 ॥
तन में शीतल शब्द है, बोले वचन रसाल ।
कहैं कबीर ता साधु को, गंजि सकै न काल ॥ 615 ॥
तूटै बरत आकाश सौं, कौन सकत है झेल ।
साधु सती और सूर का, अनी ऊपर का खेल ॥ 616 ॥
ढोल दमामा गड़झड़ी, सहनाई और तूर ।
तीनों निकसि न बाहुरैं, साधु सती औ सूर ॥ 617 ॥
आज काल के लोग हैं, मिलि कै बिछुरी जाहिं ।
लाहा कारण आपने, सौगन्ध राम कि खाहिं ॥ 618 ॥
जुवा चोरी मुखबिरी, ब्याज बिरानी नारि ।
जो चाहै दीदार को, इतनी वस्तु निवारि ॥ 619 ॥
कबीर मेरा कोइ नहीं, हम काहू के नाहिं ।
पारै पहुँची नाव ज्यों, मिलि कै बिछुरी जाहिं ॥ 620 ॥
सन्त समागम परम सुख, जान अल्प सुख और ।
मान सरोवर हंस है, बगुला ठौरे ठौर ॥ 621 ॥
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