23 February, 2014

कबीर के दोहे



क्ति पन्थ बहुत कठिन है, रती न चालै खोट ।
निराधार का खोल है, अधर धार की चोट ॥ 748 ॥


भक्तन की यह रीति है, बंधे करे जो भाव ।
परमारथ के कारने यह तन रहो कि जाव ॥ 749 ॥


भक्ति महल बहु ऊँच है, दूरहि ते दरशाय ।
जो कोई जन भक्ति करे, शोभा बरनि न जाय ॥ 750 ॥


और कर्म सब कर्म है, भक्ति कर्म निहकर्म ।
कहैं कबीर पुकारि के, भक्ति करो तजि भर्म ॥ 751 ॥



विषय त्याग बैराग है, समता कहिये ज्ञान ।
सुखदाई सब जीव सों, यही भक्ति परमान ॥ 752 ॥


भक्ति निसेनी मुक्ति की, संत चढ़े सब आय ।
नीचे बाधिनि लुकि रही, कुचल पड़े कू खाय ॥ 753 ॥


भक्ति भक्ति सब कोइ कहै, भक्ति न जाने मेव ।
पूरण भक्ति जब मिलै, कृपा करे गुरुदेव ॥ 754 ॥



कबीर गर्ब न कीजिये, चाम लपेटी हाड़ ।
हयबर ऊपर छत्रवट, तो भी देवैं गाड़ ॥ 755 ॥


कबीर गर्ब न कीजिये, ऊँचा देखि अवास ।
काल परौं भुंइ लेटना, ऊपर जमसी घास ॥ 756 ॥


कबीर गर्ब न कीजिये, इस जीवन की आस ।
टेसू फूला दिवस दस, खंखर भया पलास ॥ 757 ॥


कबीर गर्ब न कीजिये, काल गहे कर केस ।
ना जानो कित मारि हैं, कसा घर क्या परदेस ॥ 758 ॥


कबीर मन्दिर लाख का, जाड़िया हीरा लाल ।
दिवस चारि का पेखना, विनशि जायगा काल ॥ 759 ॥


कबीर धूल सकेलि के, पुड़ी जो बाँधी येह ।
दिवस चार का पेखना, अन्त खेह की खेह ॥ 760 ॥


कबीर थोड़ा जीवना, माढ़ै बहुत मढ़ान ।
सबही ऊभ पन्थ सिर, राव रंक सुल्तान ॥ 761 ॥


कबीर नौबत आपनी, दिन दस लेहु बजाय ।
यह पुर पटृन यह गली, बहुरि न देखहु आय ॥ 762 ॥


कबीर गर्ब न कीजिये, जाम लपेटी हाड़ ।
इस दिन तेरा छत्र सिर, देगा काल उखाड़ ॥ 763 ॥


कबीर यह तन जात है, सकै तो ठोर लगाव ।
कै सेवा करूँ साधु की, कै गुरु के गुन गाव ॥ 764 ॥


कबीर जो दिन आज है, सो दिन नहीं काल ।
चेति सकै तो चेत ले, मीच परी है ख्याल ॥ 765 ॥


कबीर खेत किसान का, मिरगन खाया झारि ।
खेत बिचारा क्या करे, धनी करे नहिं बारि ॥ 766 ॥


कबीर यह संसार है, जैसा सेमल फूल ।
दिन दस के व्यवहार में, झूठे रंग न भूल ॥ 767 ॥


कबीर सपनें रैन के, ऊधरी आये नैन ।
जीव परा बहू लूट में, जागूँ लेन न देन ॥ 768 ॥


कबीर जन्त्र न बाजई, टूटि गये सब तार ।
जन्त्र बिचारा क्याय करे, गया बजावन हार ॥ 769 ॥


कबीर रसरी पाँव में, कहँ सोवै सुख-चैन ।
साँस नगारा कुँच का, बाजत है दिन-रैन ॥ 770 ॥


कबीर नाव तो झाँझरी, भरी बिराने भाए ।
केवट सो परचै नहीं, क्यों कर उतरे पाए ॥ 771 ॥


कबीर पाँच पखेरूआ, राखा पोष लगाय ।
एक जु आया पारधी, लइ गया सबै उड़ाय ॥ 772 ॥


कबीर बेड़ा जरजरा, कूड़ा खेनहार ।
हरूये-हरूये तरि गये, बूड़े जिन सिर भार ॥ 773 ॥


एक दिन ऐसा होयगा, सबसों परै बिछोह ।
राजा राना राव एक, सावधान क्यों नहिं होय ॥ 774 ॥


ढोल दमामा दुरबरी, सहनाई संग भेरि ।
औसर चले बजाय के, है कोई रखै फेरि ॥ 775 ॥


मरेंगे मरि जायँगे, कोई न लेगा नाम ।
ऊजड़ जाय बसायेंगे, छेड़ि बसन्ता गाम ॥ 776 ॥

कबीर पानी हौज की, देखत गया बिलाय ।
ऐसे ही जीव जायगा, काल जु पहुँचा आय ॥ 777 ॥


कबीर गाफिल क्या करे, आया काल नजदीक ।
कान पकरि के ले चला, ज्यों अजियाहि खटीक ॥ 778 ॥


कै खाना कै सोवना, और न कोई चीत ।
सतगुरु शब्द बिसारिया, आदि अन्त का मीत ॥ 779 ॥


हाड़ जरै जस लाकड़ी, केस जरै ज्यों घास ।
सब जग जरता देखि करि, भये कबीर उदास ॥ 780 ॥

आज काल के बीच में, जंगल होगा वास ।
ऊपर ऊपर हल फिरै, ढोर चरेंगे घास ॥ 781 ॥


ऊजड़ खेड़े टेकरी, धड़ि धड़ि गये कुम्हार ।
रावन जैसा चलि गया, लंका का सरदार ॥ 782 ॥


पाव पलक की सुधि नहीं, करै काल का साज ।
काल अचानक मारसी, ज्यों तीतर को बाज ॥ 783 ॥


आछे दिन पाछे गये, गुरु सों किया न हैत ।
अब पछितावा क्या करे, चिड़िया चुग गई खेत ॥ 784 ॥
 

आज कहै मैं कल भजूँ, काल फिर काल ।
आज काल के करत ही, औसर जासी चाल ॥ 785 ॥
कहा चुनावै मेड़िया, चूना माटी लाय ।
मीच सुनेगी पापिनी, दौरि के लेगी आय ॥ 786 ॥


सातों शब्द जु बाजते, घर-घर होते राग ।
ते मन्दिर खाले पड़े, बैठने लागे काग ॥ 787 ॥


ऊँचा महल चुनाइया, सुबरदन कली ढुलाय ।
वे मन्दिर खाले पड़े, रहै मसाना जाय ॥ 788 ॥


ऊँचा मन्दिर मेड़िया, चला कली ढुलाय ।
एकहिं गुरु के नाम बिन, जदि तदि परलय जाय ॥ 789 ॥


ऊँचा दीसे धौहरा, भागे चीती पोल ।
एक गुरु के नाम बिन, जम मरेंगे रोज ॥ 790 ॥

पाव पलक तो दूर है, मो पै कहा न जाय ।
ना जानो क्या होयगा, पाव के चौथे भाय ॥ 791 ॥


मौत बिसारी बाहिरा, अचरज कीया कौन ।
मन माटी में मिल गया, ज्यों आटा में लौन ॥ 792 ॥


घर रखवाला बाहिरा, चिड़िया खाई खेत ।
आधा परवा ऊबरे, चेति सके तो चेत ॥ 793 ॥


हाड़ जले लकड़ी जले, जले जलवान हार ।
अजहुँ झोला बहुत है, घर आवै तब जान ॥ 794 ॥


पकी हुई खेती देखि के, गरब किया किसान ।
अजहुँ झोला बहुत है, घर आवै तब जान ॥ 795 ॥

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