क्ति पन्थ बहुत कठिन है, रती न चालै खोट ।
निराधार का खोल है, अधर धार की चोट ॥ 748 ॥ भक्तन की यह रीति है, बंधे करे जो भाव । परमारथ के कारने यह तन रहो कि जाव ॥ 749 ॥ भक्ति महल बहु ऊँच है, दूरहि ते दरशाय । जो कोई जन भक्ति करे, शोभा बरनि न जाय ॥ 750 ॥ और कर्म सब कर्म है, भक्ति कर्म निहकर्म । कहैं कबीर पुकारि के, भक्ति करो तजि भर्म ॥ 751 ॥ विषय त्याग बैराग है, समता कहिये ज्ञान । सुखदाई सब जीव सों, यही भक्ति परमान ॥ 752 ॥ भक्ति निसेनी मुक्ति की, संत चढ़े सब आय । नीचे बाधिनि लुकि रही, कुचल पड़े कू खाय ॥ 753 ॥ भक्ति भक्ति सब कोइ कहै, भक्ति न जाने मेव । पूरण भक्ति जब मिलै, कृपा करे गुरुदेव ॥ 754 ॥ कबीर गर्ब न कीजिये, चाम लपेटी हाड़ । हयबर ऊपर छत्रवट, तो भी देवैं गाड़ ॥ 755 ॥ कबीर गर्ब न कीजिये, ऊँचा देखि अवास । काल परौं भुंइ लेटना, ऊपर जमसी घास ॥ 756 ॥ कबीर गर्ब न कीजिये, इस जीवन की आस । टेसू फूला दिवस दस, खंखर भया पलास ॥ 757 ॥ कबीर गर्ब न कीजिये, काल गहे कर केस । ना जानो कित मारि हैं, कसा घर क्या परदेस ॥ 758 ॥ कबीर मन्दिर लाख का, जाड़िया हीरा लाल । दिवस चारि का पेखना, विनशि जायगा काल ॥ 759 ॥ कबीर धूल सकेलि के, पुड़ी जो बाँधी येह । दिवस चार का पेखना, अन्त खेह की खेह ॥ 760 ॥ कबीर थोड़ा जीवना, माढ़ै बहुत मढ़ान । सबही ऊभ पन्थ सिर, राव रंक सुल्तान ॥ 761 ॥ कबीर नौबत आपनी, दिन दस लेहु बजाय । यह पुर पटृन यह गली, बहुरि न देखहु आय ॥ 762 ॥ कबीर गर्ब न कीजिये, जाम लपेटी हाड़ । इस दिन तेरा छत्र सिर, देगा काल उखाड़ ॥ 763 ॥ कबीर यह तन जात है, सकै तो ठोर लगाव । कै सेवा करूँ साधु की, कै गुरु के गुन गाव ॥ 764 ॥ कबीर जो दिन आज है, सो दिन नहीं काल । चेति सकै तो चेत ले, मीच परी है ख्याल ॥ 765 ॥ कबीर खेत किसान का, मिरगन खाया झारि । खेत बिचारा क्या करे, धनी करे नहिं बारि ॥ 766 ॥ कबीर यह संसार है, जैसा सेमल फूल । दिन दस के व्यवहार में, झूठे रंग न भूल ॥ 767 ॥ कबीर सपनें रैन के, ऊधरी आये नैन । जीव परा बहू लूट में, जागूँ लेन न देन ॥ 768 ॥ कबीर जन्त्र न बाजई, टूटि गये सब तार । जन्त्र बिचारा क्याय करे, गया बजावन हार ॥ 769 ॥ कबीर रसरी पाँव में, कहँ सोवै सुख-चैन । साँस नगारा कुँच का, बाजत है दिन-रैन ॥ 770 ॥ कबीर नाव तो झाँझरी, भरी बिराने भाए । केवट सो परचै नहीं, क्यों कर उतरे पाए ॥ 771 ॥ कबीर पाँच पखेरूआ, राखा पोष लगाय । एक जु आया पारधी, लइ गया सबै उड़ाय ॥ 772 ॥ कबीर बेड़ा जरजरा, कूड़ा खेनहार । हरूये-हरूये तरि गये, बूड़े जिन सिर भार ॥ 773 ॥ एक दिन ऐसा होयगा, सबसों परै बिछोह । राजा राना राव एक, सावधान क्यों नहिं होय ॥ 774 ॥ ढोल दमामा दुरबरी, सहनाई संग भेरि । औसर चले बजाय के, है कोई रखै फेरि ॥ 775 ॥ मरेंगे मरि जायँगे, कोई न लेगा नाम । ऊजड़ जाय बसायेंगे, छेड़ि बसन्ता गाम ॥ 776 ॥ ऐसे ही जीव जायगा, काल जु पहुँचा आय ॥ 777 ॥ कबीर गाफिल क्या करे, आया काल नजदीक । कान पकरि के ले चला, ज्यों अजियाहि खटीक ॥ 778 ॥ कै खाना कै सोवना, और न कोई चीत । सतगुरु शब्द बिसारिया, आदि अन्त का मीत ॥ 779 ॥ हाड़ जरै जस लाकड़ी, केस जरै ज्यों घास । सब जग जरता देखि करि, भये कबीर उदास ॥ 780 ॥
आज काल के बीच में, जंगल होगा वास ।
ऊपर ऊपर हल फिरै, ढोर चरेंगे घास ॥ 781 ॥ ऊजड़ खेड़े टेकरी, धड़ि धड़ि गये कुम्हार । रावन जैसा चलि गया, लंका का सरदार ॥ 782 ॥ पाव पलक की सुधि नहीं, करै काल का साज । काल अचानक मारसी, ज्यों तीतर को बाज ॥ 783 ॥ आछे दिन पाछे गये, गुरु सों किया न हैत । अब पछितावा क्या करे, चिड़िया चुग गई खेत ॥ 784 ॥ आज कहै मैं कल भजूँ, काल फिर काल । आज काल के करत ही, औसर जासी चाल ॥ 785 ॥
कहा चुनावै मेड़िया, चूना माटी लाय ।
मीच सुनेगी पापिनी, दौरि के लेगी आय ॥ 786 ॥ सातों शब्द जु बाजते, घर-घर होते राग । ते मन्दिर खाले पड़े, बैठने लागे काग ॥ 787 ॥ ऊँचा महल चुनाइया, सुबरदन कली ढुलाय । वे मन्दिर खाले पड़े, रहै मसाना जाय ॥ 788 ॥ ऊँचा मन्दिर मेड़िया, चला कली ढुलाय । एकहिं गुरु के नाम बिन, जदि तदि परलय जाय ॥ 789 ॥ ऊँचा दीसे धौहरा, भागे चीती पोल । एक गुरु के नाम बिन, जम मरेंगे रोज ॥ 790 ॥
पाव पलक तो दूर है, मो पै कहा न जाय ।
ना जानो क्या होयगा, पाव के चौथे भाय ॥ 791 ॥ मौत बिसारी बाहिरा, अचरज कीया कौन । मन माटी में मिल गया, ज्यों आटा में लौन ॥ 792 ॥ घर रखवाला बाहिरा, चिड़िया खाई खेत । आधा परवा ऊबरे, चेति सके तो चेत ॥ 793 ॥ हाड़ जले लकड़ी जले, जले जलवान हार । अजहुँ झोला बहुत है, घर आवै तब जान ॥ 794 ॥ पकी हुई खेती देखि के, गरब किया किसान । अजहुँ झोला बहुत है, घर आवै तब जान ॥ 795 ॥ |
23 February, 2014
कबीर के दोहे
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